विपक्ष की एकता के सामने भाजपा क्यों हारी ?

भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता और रणनीतिकार लगातार उन कारणों की खोज कर रहे हैं जिनके कारण उनकी उप-चुनावों में एक के बाद एक पराजय होती जा रही है। पहला कारण उसने यह खोजा है कि इस तरह की अलग-थलग पड़ी चुनावी लड़ाइयाँ मुख्य तौर पर स्थानीय मुद्दों के आधार पर होती हैं। उनमें मतदाताओं के सामने कोई बड़ी राष्ट्रीय तस्वीर नहीं होती। स्वपन दासगुप्ता जैसे भाजपा समर्थक बुद्धिजीवी ने इसी बात को सैद्धांतिक रूप देते हुए कहा है कि चुनाव की बिसात जितनी छोटी होगी, भाजपा उतनी ही कमज़ोर साबित होगी और जितनी विशाल होगी, भाजपा उतनी ही ताकतवर निकलेगी। पार्टी प्रवक्ताओं ने इस दलील को कुछ इस प्रकार पेश किया है : 2019 में हमारे पास सारे देश को दिखाने के लिए नरेंद्र मोदी का चेहरा होगा जिसकी लोकप्रियता आज तक कायम है। उस समय हमारे मतदाता पूरे जोशो-खरोश के साथ मतदान करने निकलेंगे, और मतदान-प्रतिशत पैंसठ से 70 ़फीसदी के बीच होगा। जबकि तीनों उप-चुनावों में यह प्रतिशत नीचे जाता हुआ दिखा। मतदान का प्रतिशत बढ़ते ही आला कमान का पचास ़फीसदी से ज़्यादा वोट पाने का लक्ष्य पूरा हो जाएगा, और विपक्ष की एकता भी उस सूरत में मोदी को नहीं हरा पाएगी। दूसरा कारण भाजपा ने यह खोजा है कि वह मुसलमान-दलित वोटों के गठजोड़ के कारण कैराना चुनाव में हार गई, वरना उसने राष्ट्रीय लोक दल की बढ़त लगभग 90 हज़ार से घटा कर 50 हज़ार से कम तो कर ही दी थी। भाजपा यह तर्क भी दे रही है कि विपक्ष की जैसी एकता थी, उसके लिहाज़ से रालोद उम्मीदवार को कम से कम डेढ़ लाख वोटों से जीतना चाहिए था। उसका दावा है कि कैराना और बिजनौर के नूरपुर में भाजपा ने अपने विरुद्ध खड़ी ज़बरदस्त शक्तियों के मुकाबले जोरदार चुनाव लड़ा। नूरपुर में 2017 में विपक्षी पार्टियों ने अलग-अलग जो वोट प्राप्त किये थे, वे उनके संयुक्त उम्मीदवार को इस बार मिले वोटों से ज़्यादा थे। यानी भाजपा के तर्क के अनुसार विपक्ष की एकता होने पर उसके वोट उस तरह से नहीं जुड़ते जैसी कल्पना की जाती है। भाजपा का यह भी कहना है कि दलित-मुसलमान गठजोड़ एक स्थानीय परिघटना है जो भीम आर्मी की कारिस्तानी है। जब भाजपा मोदी के चमकदार और लोकप्रिय चेहरे के साथ चुनाव लड़ेगी तो इस तरह के पहलुओं का असर न्यूनतम हो जाएगा। भाजपा द्वारा दिये जाने वाले इन कारणों और दावों की जाँच करना ज़रूरी है। विपक्ष के उम्मीदवार जब अलग-अलग लड़ते हैं तो भाजपा से हार जाते हैं, पर जब मिल कर लड़ते हैं तो कम वोट मिलने के बावजूद जीत जाते हैं। कर्नाटक के राज राजेश्वरी नगर में हुए विधानसभा उप-चुनाव को साथ-साथ सरकार चलाने के बावजूद कांग्रेस और जनता दल (स) ने अलग-अलग लड़ा। दोनों को मिले वोटों को अगर जोड़ दिया जाए तो कुल पड़े मतों का 70 ़फीसदी बैठता है। अगर दोनों पार्टियाँ साथ लड़ेंगी तो क्या उन्हें फिर 70 ़फीसदी वोट मिलेंगे? नहीं। इसलिए कि इस सीधी टक्कर का किरदार अलग तरह का होगा। वोटों का ध्रुवीकरण भी अलग तरह का होगा। भाजपा को तितऱफा चुनाव के मुकाबले ज्यादा वोट मिल सकते हैं, पर सवाल यह है कि क्या वे ज़्यादा वोट विपक्ष के सम्मिलित वोटों से अधिक होंगे। नूरपुर का चुनाव यही बताता है। 2017 में सपा, बसपा और रालोद ने अलग-अलग लड़ कर 1,14,510 वोट लिए थे। इस बार उनके संयुक्त उम्मीदवार को केवल बीस हज़ार कम यानी 95 हज़ार के आसपास वोट मिले। भाजपा की उम्मीदवार को पहले के मुकाबले दस हज़ार ज़्यादा वोट मिले, पर फिर भी वह पिछड़ने पर मजबूर हो गई। समझने की बात यह है कि कई निर्वाचन क्षेत्रों में पहले के मुकाबले ज़्यादा वोट पाने के बावजूद भाजपा संयुक्त विपक्ष से हार जाने वाली है। इसी लिहाज़ से यह देखना होगा कि कैराना में क्या हुआ? फूलपुर और गोरखपुर से सबक सीखते हुए संघ और भाजपा ने तय किया कि वे अपने वोटरों को घर में नहीं बैठने देंगे और उनसे जम कर वोटिंग करवाएँगे। कोई दंगा नहीं हुआ, साम्प्रदायिक हिंसा नहीं हुई, फिर भी साम्प्रदायिक कार्ड खेला गया। विपक्ष का कार्ड यह था कि मुसलमानों को एकजुट करके (इसके लिए रालोद उम्मीदवार के एक उम्मीदवार परिजन को बैठाया गया) उनके साथ हिंदू वोट जोड़े जाएँ। ज़ाहिर है कि इसे साम्प्रदायिक कार्ड नहीं कहा जा सकता। कहा तो यह जाना चाहिए कि विपक्ष चरण सिंह के ज़माने का सेकुलर कार्ड खेल रहा था जब पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट और मुसलमान एक जगह वोट करते थे। लेकिन योगी आदित्यानाथ ने अपने पहले भाषण से ही चार साल पहले हुए दंगे की याद दिलाना शुरू कर दी। छोटी-छोटी हिंदू बिरादरियों को आपस में जोड़ने के लिए कश्यप और सैनी उम्मीदवारों को बैठाया गया। हिंदू ध्रुवीकरण हुआ, लेकिन केवल एक सीमा तक ही और अंतत: मुसलमान+दलित+जाट ध्रुवीकरण के मुकाबले पिछड़ गया। पूरा हिंदू ध्रुवीकरण क्यों नहीं हो पाया? स्थितियाँ बहुत असामान्य हों, यानी साम्प्रदायिक भावनाएँ अपने उफान पर हों तो पचास ़फीसदी के आसपास हिंदू वोट एकजुट हो सकते हैं। सामान्य परिस्थितियों में यह प्रतिशत घट कर चालीस और उससे नीचे आ जाता है। इससे स्पष्ट है कि भाजपा का काम पचास ़फीसदी से ज़्यादा हिंदू वोट पाने के लिए हर जगह महज़ समाज में पहले से मौजूद साम्प्रदायिक जज़्बात का सहारा लेने से नहीं चलेगा। उसके लिए विशेष रूप से साम्प्रदायिकता भड़कानी पड़ेगी। क्या भाजपा इसके लिए तैयार है या अपने आप को तैयार कर रही है? अभी तक मिले संकेत ऐसा कोई इशारा नहीं करते। इसीलिए कैराना में साम्प्रदायिक मुद्दों पर सेकुलर मुद्दे हावी रहे। इसी बात को ‘जिन्ना पर हावी गन्ना’ के मुहावरे में कहा जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का आठ हज़ार करोड़ रुपए का बकाया दिलवाने के लिए सरकार ने कुछ नहीं किया। केवल बातें होती रहीं। इस विफलता ने उन जाट वोटों को विपक्ष के पाले में धकेल दिया जो पिछले दो चुनावों से भाजपा के पाले में थे। बार-बार की चुनावी सफलता ने भाजपा को विपक्ष की क्षमताओं को कम करके आँकने की समस्या से ग्रस्त कर दिया है। पता नहीं उसके रणनीतिकार यह क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में फूलपुर इलाहाबाद के पास है, गोरखपुर नेपाल की सीमा से लगा है और कैराना पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है। यानी उत्तर प्रदेश के तीन बिल्कुल अलग-अलग इलाकों में और एकदम अलग-अलग सामाजिक विन्यास के तहत विपक्ष ऐसी रणनीतियाँ बना पाया जिनकी काट भाजपा नहीं कर पाई। ये रणनीतियाँ ज़मीन पर कारगर साबित इसलिए हुईं, क्योंकि 2018 और 2014 के बीच में बड़ा अंतर आ गया। उस समय कांग्रेस के मुकाबले भीषण सत्ता विरोधी रूझान था। इस बार कांग्रेस या किसी अन्य विपक्षी दल के प्रति जनता में कोई नाराज़गी नहीं हो सकती। वोटर तो मोदी सरकार के कामकाज की समीक्ष करेंगे। कहीं उन्हें गन्ना मिलेगा, तो कहीं बेरोज़गारी मिलेगी। कहीं महँगाई मिलेगी, तो कहीं विकास के वायदों के नाम पर ठेंगा मिलेगा। भाजपा को तितऱफा सत्ता विरोधी रूझान का सामना करना पड़ेगा। पहला सत्ता विरोधी रूझान भाजपा के विधायकों के ़िखल़ाफ है, दूसरा राज्य सरकार के  और तीसरा केंद्र सरकार के खिल़ाफ है।