पाकिस्तान में चुनाव और भारत-पाक दोस्ती का भविष्य

पाकिस्तान की मौजूदा सरकार का कार्यकाल 31 मई को समाप्त हो गया है और जुलाई में नई सरकार के गठन के लिए चुनाव होंगे। नवाज़ शरीफ मैदान में नही हैं। इसलिए चुनाव के रंग-ढंग बहुत बदले-बदले होंगे क्योंकि ज़रदारी साहिब 20 वर्ष के पश्चात फिर सियासत में सरगर्म होंगे। जरनल मुशर्रफ भी चुनाव में उतरने के लिए पर तोल रहे हैं। परन्तु अभी वह बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के आरोप में विदेश में देश-निकाला झेल रहे हैं। इतिहास तो लोग ही बनाते हैं, ऐसा माना जाता है परन्तु हम यह नहीं मानते। इतिहास हमेशा से अपने तरीके से लोगों का इस्तेमाल करता है। भारत-पाकिस्तान से रिश्तों को इतिहास के झरोखों से देखा जाए तो यही सिद्ध होता है कि पाकिस्तान में वहां के नेता इतिहास को अपने अनुकूल ढालने का प्रयास करते देखे जा सकते हैं और उनके द्वारा रचा गया इतिहास वहां की अमन पसन्द जनता का शोषण ही करता है। चुनाव के पश्चात् भी वही सब देखने को मिलेगा। वहां के नेताओं की मज़बूरी है कि वे भारत को जी भर कर गालियां दें। इस पर वहां के कट्टरवादी तो तालियां पीट ही देंगे। भारत-पाकिस्तान के उथल-पुथल भरे रिश्तों के संदर्भ में देखा जाए तो आज तक कभी भी सीमाओं पर शान्ति देखी नहीं गई। वहां के नेता युद्ध की धमकियां भी देते रहे और अमन की बात भी करते रहे। एक सांस में गुस्सा दूसरे सांस में मोहब्बत की बातें करना वहां के नेताओं की मजबूरी भी हो सकती है। बातचीत ज़रूर होनी चाहिए। हमारी ओर से भारत में भी ऐसे बहुत से नेतागण हैं जो पाकिस्तान से बातचीत के पक्षधर नहीं हैं जैसे विदेश मन्त्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने एक पै्रस कान्फै्रस में कहा, जब तक जनाज़े उठ रहे है, तब तक बातचीत नहीं हो सकती। वार्ता तो कई बार हुई परन्तु पाकिस्तान की कूटनीति बनाने वालों ने एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दी।
जब भी वहां नई सरकार आती है, वहां के नेता भारत से दोस्ती की बातें करने लगते हैं परन्तु कुछ ही दिनों के पश्चात् सारा गुड़ गोबर हो जाता है। वही आग उगलते भाषण और वही कश्मीर का रोना रोया जाता है और वही सीमाओं पर गोलीबारी की घटनाएं निरन्तर होने लगती हैं। हमें याद है कि एक बार वहां के कट्टरपंथी गुट के नेता मौलाना फाजल-उर-रहमान भारत आए थे। यहां की उन्नति और मुस्लिम समाज में धीरे-धीरे फैल रही खुशहाली की रौशनी की तारीफ करते रहे। पाकिस्तान में जाकर उन्होंने भारत से दोस्ती के लिए उठी बुलन्द आवाज़ की प्रशंसा भी की थी परन्तु अभी उनके भाषणों की समाचार-पत्रों में स्याही भी नहीं सूखी थी कि वह भी भारत के विरुद्ध ज़हर उगलने लगे। पाकिस्तान का भाग्य ही ऐसा है, न चैन से रहना है और न ही अड़ोस-पड़ोस में चैन की हवा को सहन करना है। गत सत्तर वर्षों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि वहां कोई भी, कैसा भी लीडर आए, वह भारत के विरुद्ध यथा-शक्ति ज़हर उगलता है। भारत कितना भी दोस्ती और भाईचारे के सुख-संदेशे भेजे, व्यर्थ जैसा ही सिद्ध होता है। भारत को परेशान रखने का कोई अवसर वहां के लोग हाथ से कभी जाने नहीं देते। हम नहीं जानते कि वहां के लीडर कैसा इतिहास आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ कर जाना चाहते हैं। मरहूम मोहतरमा बेनज़ीर भुट्टो जब सरकार से बाहर थीं और अपने वतन से दूर विदेशों की ओर धकेली गई थीं, तब वह जब भी भारत में आतीं, इस देश से मित्रता की बातें ही करतीं परन्तु जब देश के चुनाव में उतरीं तो वही घृणा, वही नफरत उनकी तकरीरों में अनुभव होने लगी। जब ज़िया-उल-हक, जयपुर में क्रिकेट मैच देखने आए तो प्यार-मोहब्बत की बातें करते रहे और राष्ट्रपति ज़रदारी जब अजमेर में आए तो भी वही रटा-रटाया भाषण देते रहे। गिलानी मोहाली में क्रिकेट देखने आए तो भी भाईचारे और अमन की बातें करते रहे। पाक के विदेश मन्त्री अजमेर शऱीफ में पधारे तो भी हमारे विदेश मंत्री से प्रेम-प्यार की बातें कर गए। ऐसे ही कुछ मुर्शरफ व नवाज़ शरीफ ने किया। हम हैरान हैं कि पाकिस्तान में जाते ही उन्हें क्या हो जाता है। क्या वहां की आबो-हवा ही ऐसी है कि भारत विरोधी भावनाएं खुद-बखुद फूट पड़ती हैं। इस्लामाबाद में अमन की बातें तो परवेज़ मुशर्रफ भी बहुत करते थे परन्तु लाहौर आते-आते उनका रंग-रूप ही बदल गया था। वहां के राजनेता ‘पल में तोला, पल में माशा’ हैं। पाकिस्तान से दोस्ती चाहने वाला भारत चुनाव के पश्चात् एक बार फिर निराश होगा। इमरान खां, फजल-उर-रहमान और ज़रदारी आदि सभी चुनाव में एक-दूसरे पर नहीं बल्कि भारत पर ही निशाना रखेंगे। अमरीका को गालियां देंगे और अ़फगानिस्तान पर ज़हर उगलेंगे। अपने लोगों के लिए खुशहाली, शिक्षा और बेहतर जीवन जीने के साधन जुटाने की बातें बहुत कम ही करेंगे। यह कैसा इतिहास बनाने का फार्मूला अपनाया है, वहां के नेताओं ने। मुहम्मद गौरी, महमूद गज़नवी, तैमूर लंग, औरंगज़ेब और मुहम्मद बिन कासिम की बातें करेंगे। वहां के अधिकतर युवा वर्ग इस्लामी कानून यानि निजाम-ए-मुस्तफा लागू कराने के हक में हैं जिसके अधीन कोड़े लगाना, संगसार करना और चौक-चौराहों पर फांसी पर लटका देना होता बड़ा कानून था। यह बात ब्रिटिश कौंसिल द्वारा करवाये गए एक सर्वे से ज़ाहिर हुई है। हालांकि पाकिस्तान मेें यह दूसरी बार है जब एक लोकतंत्रीय सरकार ने पांच-वर्ष का पूरा समय शासन किया हैं। चुनाव हो जाएंगे, तो नए लोग सत्ता सम्भाल लेंगे परन्तु भारत-पाकिस्तान में दोस्ती ख्याली पुलाव ही सिद्ध होगा। जब तक वहां के नेताओं की मानसिकता नहीं बदलती, तब तक कुछ होने वाला नहीं। किसी एक पाकिस्तानी नेता को तो भारत से संबंध सुधारने के लिए दिलेरी करनी ही होगी वरन् यह ऩफरत जारी रहेगी निरन्तर, और वर्षों तक, क्योंकि वहां की सेना का दखल पाकिस्तान की सियासत में बहुत अधिक है। सेना की मर्जी के बिना और आतंकवादी संगठनों के दखल के बगैर वहां सियासत में अमन के लिये कोई कोशिश नहीं की जा सकती। यदि कोई करेगा तो उसका हश्र भी नवाज़ शरीफ जैसा होगा।