क्या पाकिस्तान में आम चुनाव निश्चित तिथि पर हो सकेंगे ?

घोषणा के अनुसार पाकिस्तान में आम चुनाव 25 जुलाई को होंगे, परन्तु क्या यह सचमुच होंगे? परिदृश्य पर अनिश्चितता के घने बादल नज़र आ रहे हैं। हैरानी की कोई बात नहीं कि कुछ महीने पूर्व अस्तित्व में आई बलोचिस्तान की राज्य सरकार ने इस मामले में अग्रणी बनते हुए विधानसभा में प्रस्ताव पास करके मांग की है कि चुनावों को एक महीना आगे बढ़ा दिया जाए। कारण यह बताया गया है कि जुलाई में बलोचिस्तान के कई हिस्सों में बहुत गर्मी पड़ती है और कई मतदाता इस समय हज के लिए भी गए होंगे। जैसे कि देश के अन्य हिस्सों में कोई अलग मौसम विभाग होगा तथा अन्य राज्यों के पाकिस्तानी मतदाता हज के लिए नहीं जायेंगे। पिछले महीनों के दौरान बलोचिस्तान में राजनीतिक जुगाड़बाज़ी बड़े रूप में देखने को मिली है। वर्ष के शुरू में वहां की सरदार नबी बख्श जिहरी के नेतृत्व में पी.एम.एल. (नवाज़) की राज्य सरकार पर्दे के पीछे की जुगाड़बाज़ी के कारण अपना बहुमत गंवा बैठी थी। इसके बाद वहां एक राजनीतिक प्रशिक्षु अब्दुल कुदूस बिजैंजो द्वारा जल्दबाज़ी में बनाई बलोचिस्तान आवामी पार्टी नाम की नई पार्टी की सरकार अस्तित्व में आई थी। बलोचिस्तान आवामी पार्टी का छोटा नाम बी.ए.पी. अर्थात् ‘बाप’ है। सैनेट चुनावों को प्रभावित करने वाली और पी.एम.एल. (नवाज़) को अपना चेयरमैन नामजद करने से रोकने वाली इस नई पार्टी का ‘बाप’ कौन है। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
इस कारण आम चुनाव आगे बढ़ाने के प्रस्ताव संबंधी जितना कुछ सामने नज़र आ रहा है। कई लोग उससे भी आगे तक देख रहे हैं। इसी तरह पंजाब के कार्यवाहक मुख्यमंत्री की नियुक्ति संबंधी इमरान खान द्वारा अपनाए गए रुख ने भी अनिश्चितता में ही वृद्धि की है। नासिर खोसा पी.टी.आई. (पाकिस्तान तहरीक-ए-इन्साफ) की पहली पसंद थे और पंजाब के मुख्यमंत्री भी तत्काल उनके नाम पर सहमत हो गए थे। खोसा एक ईमानदार छवि वाले पूर्व नौकरशाह हैं। उनकी नामजदगी के तत्काल बाद सोशल मीडिया पर उनको शरीफ के वफादार के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा। मीडिया का एक हिस्सा भी इस कार्य में शामिल हो गया। खान ने अनावश्यक जल्दबाज़ी दिखाते हुए खोसा की नामज़दगी से पांव पीछे खींच लिए। इससे पहले खैबर पख्तून खबा में भी खान ने मंजूर अफरीदी के नाम पर जे.यू.आई. (एफ.) के साथ सहमति करके बाद में अपना फैसला बदल लिया था। 
पंजाब के कार्यवाहक मुख्यमंत्री के नाम संबंधी अपनाये गये डावांडोल रवैये ने पी.टी.आई. की कोई अच्छी छवि पेश नहीं की। विपक्ष द्वारा खान की यह आलोचना समझ में आने वाली ही है कि वह समय पर सही फैसला करने और अपने फैसले पर कायम रह सकने में सक्षम नहीं हैं। यहां तक कि इमरान खान की अपनी पार्टी के कई नेता भी उनके डावांडोल वाले रवैये के प्रति निजी तौर पर संदेह व्यक्त करते हैं।  परन्तु कईयों का कहना है कि वह यह सब कुछ सोचे-समझे ढंग से ही कर रहे हैं। खैबर पख्तून ख्बा के मुख्यमंत्री परवेज़ खट्टक की ओर से भी चुनाव एक महीना आगे बढ़ाने की मांग का समर्थन करने के बाद ऐसे संदेहों को और भी बल मिला है। निश्चित तौर पर खट्टक ने अपने ‘बॉस’ की सहमति के बिना तो ऐसी मांग नहीं की होगी। वैसे यह विरोधाभास भी साथ ही है कि इमरान खान ने स्वयं अपनी पार्टी के पहले रुख को ही दोहराया है कि चुनाव निर्धारित समय पर ही होने चाहिएं। क्या पी.टी.आई. और सत्ता के निकटतम अन्य गुट पांव छोड़ रहे हैं? खान तथा उनके अन्य सहयोगी लगभग 100 सम्भावित विजेताओं को अन्य पार्टियों से अपने साथ जोड़ने में सफल रहे हैं। अधिकतर सदस्य सत्ताधारी पी.एम.एल. (एन.) को ही छोड़कर गए हैं। इसलिए सैद्धांतिक तौर पर तो उनको चुनाव जीतने के प्रति पूरे विश्वास में होना चाहिए। परन्तु व्यंग्य की बात है कि यही स्थिति विपरीत समस्या पैदा कर रही है। पंजाब के अधिकतर क्षेत्रों में पी.टी.आई.  के टिकट के कई-कई दावेदार खड़े हो गए हैं। शायद पी.टी.आई. के डर और संदेह सही भी हैं। सब कुछ होने के बावजूद पी.एम.एल. (एन.) देश के सबसे बड़े राज्य में आज भी मज़बूत तथा एकजुट है। पंजाब में इसके वोट बैंक को बिखरा देने के विरोधियों के प्रयास मिले-जुले परिणामों वाले ही रहे हैं। पी.एम.एल. (एन.) को छोड़कर जाने वाले अधिकतर लोग वही हैं, जो पहले पी.एम.एल.(क्यू.) को छोड़कर इसमें आए थे। पी.एम.एल. (क्यू.) मुशर्रफ ने पी.एम.एल. (एन.) में फूट डलवा कर ही बनवाई थी। इसलिए, पार्टी का कहना है कि इसने न कुछ हासिल किया है और न ही गंवाया है। शायद पी.टी.आई. का यह भी सोचना है कि राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के दोषों में एक बार नवाज़ शरीफ को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाए तो चुनाव प्रचार से उनकी अनुपस्थिति से इसलिए चुनाव जीतना और आसान हो जायेंगे। दूसरी तरफ पी.एम.एल. (एन.) तथा पी.पी.पी. दोनों की ही एक राय है कि चुनाव अपने निर्धारित समय पर ही होने चाहिएं। चुनाव आयोग भी अपने घोषित कार्यक्रम के अनुसार 25 जुलाई की तिथि को लेकर ही आगे बढ़ रहा है। अच्छी बात है कि कार्यवाहक प्रधानमंत्री नासि रुल मूल्क ने भी शपथ ग्रहण करते हुए ही ऐलान किया कि चुनाव समय पर ही होंगे। वैसे पंजाब, खैबर पख्तूनख्वा और बलोचिस्तान के कार्यवाहक मुख्यमंत्रियों संबंधी फैसले अभी भी लटक रहे हैं। परन्तु सम्भव तौर पर दो-चार दिन में यह मामला निपट जायेगा। परन्तु एक बड़ा सवाल यह है कि काम चलाऊ प्रबंध की आखिर ज़रूरत ही क्या है? काम चलाऊ प्रबंधों की बात पिछली पी.पी.पी. की सरकार के समय विरोधी गुट पी.एम.एल.(एन.) की सहमति से संविधान में शामिल की गई थी। शायद इसके पीछे विचार निरपेक्ष प्रबंध अधीन स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित बनाने का था। परन्तु यह अनुभव बड़ी सीमा तक असफल ही रहा। काम चलाऊ प्रतिनिधियों के बारे में जैसे रस्साकशी हुई है, उसकी रौशनी में हो सकता है कि अगली चुनी हुई सरकार चुनाव आयोग को और शक्तियां देने और काम चलाऊ सरकार स्थापित करने के असफल अनुभव को त्याग देने के बारे में विचार करे। यदि एक स्वतंत्र और शक्तिशाली चुनाव आयोग को शक्तियां दे दी जायें कि वह चुनाव गलत ढंग से प्रभावित करने वाले किसी भी व्यक्ति या गुट के खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई कर सके तो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित बनाये जा सकते हैं।  गत वर्ष डेढ़ वर्ष के समय के दौरान देखने को मिली सारी नकारात्मकता और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद देश में दूसरी लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर रही है। पाकिस्तान के दागी राजनीतिक इतिहास के मद्देनज़र यह देश में लोकतंत्र के भविष्य के लिए एक अच्छा शगुन है। शेख राशीद जैसे निराशावादी सांसद जो देश के लिए काले दौर और एक ‘न्यायिक मार्शल लॉ’ की भविष्यवाणियां कर रहे थे, गलत साबित हुई हैं। सैन्य नेतृत्व सहित कोई भी एक और मार्शल लॉ नहीं चाहता है।

(मंदिरा पब्लिकेशन्ज़)