केदारनाथ जहां मन को मिलती है शान्ति

केदारनाथ ज्योतिर्लिंग चमोली जनपद में समुद्र तल से 11755 फु ट ऊंचाई पर स्थित है। संस्कृत में केदार का अर्थ दलदल वाली भूमि है। हम अंधेरे में पहुंचे थे। प्रात: देखा कि हिमालय पर्वत की ऊंची चोटी के अंक में मंदिर विस्तृत समतल पर स्थित था। मंदाकिनी नदी कलकल करती बह रही है। तीनों ओर ऊंची पर्वत शृंखलाएं हिमाच्छादित रहीं। ऐसा लग रहा था जैसे शृंखलाएं और अंतरिक्ष एक हों । भूमि का अंतिम किनारा लगा। इस के तीनों शिखर 22000, 22900, 21700 फु ट के लगभग हैं। दक्षिणी-पूर्वी दिशा से मंदाकिनी का उद्गम स्थान है। बदरीनाथ के आगे माना गांव है परन्तु यहां आगे कोई गांव नहीं देखा।  यह शृंखला बदरीनाथ भागी रथी तक गई है। सारे पर्वत 20000 फुट से अधिक हैं। यहां भगवान विष्णु के अवतार नर नारायण ने भारतखण्ड के बद्रिकाश्रम में तप किया और नित्य पार्थिव शिवलिंग की पूजा करते थे। इस पर शिव ने प्रसन्न हो कर दर्शन दिये और वर मांगने को कहा। दोनो ने कहा,  आप यहीं स्थित हों। बाद में केदारेश्वर कहलाये। सतयुग में उपमन्यु  और द्वापर में पाण्डवों ने तप किया। यहां के दर्शनों की बहुत महिमा है। केदार नाथ के मंदिर निर्माण बारे तिथि या सम्वत् आदि उल्लेख नहीं है। कल्याण, पुराणों और वेदों में अनादि शब्द लिखा है। बदरी, केदरी, यमनोत्री और गंगोत्री के कारण हिमालय का महत्व बढ़ा है। प्राचीन काल से हिन्दुओं की आस्था के उत्तरा खण्ड में चार धाम माने गये हैं । हनुमान द्वारा हिमालय से संजीवनी द्रौण पर्वत से लाई गई उसी अनुमान के अनुसार लगभग 5000 वर्ष पूर्व यहां लोग आते-जाते रहे होंगे। पुराणों में कई प्रसंग हैं। वायु पुराण में भी वर्णन है। प्रकाण्ड पं. राहुल सांस्कृत्यायन घुम्मकड़ ने लिखा है। यह भारत का अत्यंत प्राचीन तीर्थों में एक है। राहुल, डा. शिवप्रसाद और डबराल की पुस्तकाें में वर्णन अधिकतर मिलते हैं। बदरीकाश्रम, बदपीवन आदि नाम महाभारत के पर्वों में हैं। केदार शब्द ईसा सन् के बाद प्रयोग हुआ। शिव ने पार्वती को केदार धाम बहुत प्राचीन बताया था। दयानंद जी ने मंजरी में शिव को हिमालय का राजा माना है। प्रामाणिक कोई उल्लेख नहीं है। अत: अनादि मानना उचित है। लेखक संस्कृत शब्द केदार को  उचित नहीं मानते । डा. शिव डबराल ने किरात और केदार एक माने हैं। किरात से केदार बना हो। ब्रह्मवैवर्त पुराण में सतयुग के राजा केदार ने यहां तप किया। उनके नाम से केदार हुआ। दो हजार वर्ष पूर्व हिमालय के उत्तराखण्ड भाग में पाषुपत धर्म था। उस के बारे में हिमालय की काशी में ताम्रपट्ट सातवीं सदी का मिला है। उसमें कपालेश्वर की पूजा का वर्णन है। आठवीं शती में बैजनाथ (कांगड़ा) के विशाल शिव मंदिर और उसकी दोनों प्रशस्तियां धर्म के प्रमाण हैं। गुप्तकाल में ज्योतिर्लिंगों की कल्पना हो चुकी थी। केदार नाथ शैवों का तीर्थ बन गया था। शंकराचार्य द्वारा चार मठों का वर्णन है। शंकराचार्य का जन्म युधिष्ठिर संवत 2611 लिखा है। राहुल जी ने सातवीं सदी माना है। एक लेखक ने शंकराचार्य की मृत्यु 820 ई. में 32 वर्र्ष की आयु मानी है। महाभारत हमारा पुराना ग्रंथ है। अत: यह स्थान 5 हजार वर्र्ष पुराना है। पाण्डव केदार नाथ आए थे।  केदार मंदिर  उतराखण्ड में सर्व श्रेष्ठ और विशाल है। निर्माण में बड़े-बड़े पत्थर लगे हैं। देखने पर आश्चर्य होता है। मंदिर निर्माण में कल्यूरी शिखर शैली है। जो नागर शिखर शैली का परिवर्तित रूप है। मंदिर की ऊंचाई लगभग 85 फुट और दीवारें 12 फुट मोटी और परिक्रमा लम्बाई 187 फुट और चौड़ाई 80 फुट लगभग बताई जाती है। मंदिर के पार्श्व में पूर्व की और ईशानेश्वर का मंदिर है। इसे राजा भोज के समय का मानते हैं।  मजबूती देखकर हैरानी होती है। बफ रीले तूफानों में भी नहीं गिरा है। कुछ केदारनाथ को पाण्डवों द्वारा बनाया गया बताते हैं। प्राचीन समय से यात्री आते जाते रहे हैं। पहले  यात्रा सुविधा नहीं थी। मंदिर  मण्डप में पाण्डवों की मूर्तियां  तथा द्वार पर शैव मूर्तियां हैं। भीतर शिवलिंग नहीं है अपितु एक पत्थर ग्रेनाइट की त्रिभुजाकार विशाल शिला है। पाण्डवों ने पहली बार पूजा की थी। इस की पूजा अब सभी करते और घी लगाते हैं। शिवपुराण के अनुसार महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्यास जी ने गोत्र हत्या पर पांण्डवों को केदार जाने की प्रेरणा दी। ताकि पाप से मुक्ति मिले। वे यहां आए। पाण्डवों की व्याकुलता और भक्ति देख कर साक्षात शिव ने दर्शन दिए। गोत्र हत्या और गुरु हत्या के पाप से मुक्त किया। उस समय शिला प्रकट हुई। अग्र भाग नेपाल में पशुपति नाम से विख्यात है। शिव पुराण के अनुसार उस शिला के चार खंडित हुए थे। पशुपति नाथ शिवलिंग के चार मुकुट हैं। उत्तराखंड में चार शिव प्रकट हुए । तुंगनाथ ,मुख नाथ ,मदमहेश्वर ,कल्पेश्वर और पांचवां केदार नाथ है। केदारनाथ की पूजा घृत, बिलपत्र, चंदन और कमल फूलों से होती है। सभा मंडप में पांडवों की मूर्तियां हैं। उन को वस्त्रों से सजाया है । मंदिर कला की दृष्टि से अनुपम हैं। पुजारी दक्षिण भारत से मालाबार गोसाईं (लिंगायत)जाति के ब्राह्मण हैं। इन को रावल कहते हैं। यह मान गढवाल राजा ने दिया था। यह विवाह नहीं कर सकते। एक से अधिक शिष्य जंगम जाति के हैं। सर्द ऋ तु में अगस्तय मुनि आश्रम में और नबम्बर से अप्रैल तक पूजा केदार शिव की उखी मठ में होती है। अक्षय तृतीया को कपाट खुलता है। उत्सव मूर्ति को उखी मठ ले आते हैं। सन् 1939 तक बदरीनारायण , केदारनाथ की व्यवस्था रावलों के पास रही। इन के अधीन अगस्तय मुनि, मदमहेश्वर, त्रियुगी आदि हैं। मंदिर द्वार पर श्रंगी भृंगी द्वारपाल हैं। रावल की गद्धी स्थान उखी मठ है। मंदिर व्यवस्था हेतु पुजारी दक्षिणी ब्राह्मण हैं।  वाद  में 1939 में संशोधन के बाद बदरी नाथ मंदिर अधिनियम नाम दिया। पुजारी को रावल कहा और यह कर्नाटक के हैं। पहले रावल सर्वेसर्वा था। अब मंदिर समिति है। कर्मचारी वेतनभोगी हैं। पुरोहितगिरी का काम गांव के ब्राह्मण करते हैं और गुप्त काशी के समीपवर्ती गांव में रहते हैं। यहां अन्नपूर्णा, नवदुर्गा, हंस कुण्ड आदि हैं। मुख्य पूजा केदार की होती है। संकटेश्वर, स्वर्गद्वारी ताल में पण्डे ले जाते हैं। उस दिन लिंग पर भात लगाया जाता है और उसे अन्न कूट दर्शन कहते हैं। आषाढ़ में भैरव भण्डारा होता है। केदार की प्राकृतिक शोभा अनुपम है। यहां पहुंच कर सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य होने लगता है। ईश्वर अराधना हेतु मन लगता है। अब सभी सुविधायें बिजली आदि की हैं। मंदिर के समीप मंदाकिनी का उद्गम स्त्रोत है। इस के अतिरिक्त मधुगंगा, क्षीरगंगा, स्वर्णाद्वारी, सरस्वती और मंदाकिनी आदि के उदग्म स्थान है।  अन्य अनेक नदियों का संगम है। घाटी में प्रिमरोज और कुला के फू ल मिलते हैं। मार्ग में अखरोट, चेस्टनट, मैपल, हेजल, भोज आदि वृक्ष दिखे।
1)    स्वर्गारोहिणी :- शिखर पर एक लम्बी धवल जल धारा दिखाई देती है। इसे स्वर्गा रोहिणी कहते हैं और पाण्डव इसी मार्ग से आगे गए थे। 
2)    गांधी सरोवर :- तीन कि. मी. दूर एक सरोवर है। इसे पहले चीरवाड़ी ताल कहते थे। 1948 में महात्मा गांधी की अस्थियां प्रवाहित की गईं, तो नाम गांधी सरोवर रखा गया। मंदाकिनी उदगम तक लोग जाते हैं।
3)    वासुकि ताल :- यह 8 कि. मी. दूर है। आगे मननी देवी चार कि.मी. पर है। बह्मकूट पर्वत पर शिव पार्वती की आकृति शिखर पर दिखाई देती है। 

—सुदर्शन अवस्थी इन्दु 
मो. 98165-12911