गुरुद्वारा श्री रीठा साहिब 

सिख इतिहास में गुरुद्वारों का बहुत ही महत्वपूर्ण तथा अहमतरीन स्थान है। रूहानियत का केन्द्र होने के साथ-साथ यह गुरुद्वारे सदियों से आपसी भाईचारक सांझ का भी प्रतीक हैं। सिख गुरु साहिबान ने गुरुद्वारों के निर्माण करवाए तथा इनके दरवाजे बनवाकर चारों वर्णों को साझे आध्यात्मिक उपदेश से जोड़ने का एक महान कार्य किया। गुरु साहिब के इस परोकारी कार्य की गवाही देता है भारत के उत्तराखण्ड राज्य की रमणीय घाटी में शोभित गुरुद्वारा श्री रीठा साहिब। श्री गुरु नानक देव जी तथा उनके अभिन्न साथी भाई मरदाना जी की ऐतिहासिक याद से जुड़ा गरुद्वारा श्री रीठा साहिब उत्तराखण्ड प्रदेश के समुद्री तल से 7000 फु ट की ऊंचाई पर स्थित ज़िला चम्पावत में मौजूद है। इस ज़िले की सीमाएं शहीद ऊधम सिंह नगर तथा नैनीताल ज़िले से लगती हैं। यह वह पवित्र स्थान है जहां गुरु नानक देव जी तथा उनके संगी भाई मरदाना जी जगत को ठण्डक पहुंचाते हुए सिद्धों को जोग के असली अर्थ समझाने के लिए आए थे। इस जगह पर उस समय गोरख नाथ का चेला ढेर नाथ रहा करता था। जब गुरु जी ढेर नाथ से जिन्दगी के असली एवं सार्थक उद्देश्य को लेकर गोष्ठी कर रहे थे तो उस समय एक अचंभित तथा बेमिसाल घटना घट गई। इस एक घटना से कड़वे रीठों में मिठास भर गई। इतिहासकारों के अनुसार कार्तिक की पूर्णमासी के दिन जब श्री गुरु नानक देव जी अपने साथियों सहित इस स्थान पर आए तो उस समय रीठे के एक भरे हुए वृक्ष के तले गोरख नाथ जोगी का चेला ढेर नाथ डेरा जमाए बैठा था। इस वृक्ष की दूसरी तरफ  गुरुजी तथा उनके सहयोगी भाई मरदाना जी ने भी आसन लगा लिया। गुरु जी की आमद को देख कर सिद्ध हैरान हो गए तथा उन्होंने गुरु जी से यहां आने का कारण पूछा। श्री गुरु नानक देव जी ने जोगियों को बताया कि अपनी पारिवारिक तथा सामाजिक ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए उस निरंकार से जुड़े रहना ही सच्चा जोग है। बाहरी दिखावे, कर्म-कांडी जीवन तथा पाखण्डबाज़ी के साथ करतार की खुशियों का पात्र नहीं बना जा सकता। अभी विचार-गोष्ठी चल ही रही थी कि भाई मरदाना जी को भूख लग गई। जब भाई साहब ने गुरु जी को कुछ खाने की इच्छा प्रकट की तो गुरु जी कहने लगे,‘मरदानिया हम तो बाहर से आए हैं। परदेसी हैं तथा सिद्धों के मेहमान हैं। तुम इन्हीं से कोई पदार्थ खाने के लिए मांग लो।’    गुरु साहिब का हुक्म पा कर जब भाई मरदाना जी ने बड़ी नम्रतापूर्वक सिद्धों से भोजन की मांग की तो सिद्धों ने कहा :— बैठे रहो न क्तिहूं जाई, देखहि शक्ति जे देहि खवाही। भाव यदि तुम्हारा गुरु सर्व कला सम्पन्न है तो वह बिना कहीं जाए भोजन का प्रबन्ध क्यों नहीं कर देता। इस प्रकार हम भी उसकी शक्ति को देख लेंगे। सिद्धों का यह कठोर व अहंकार से भरा व्यवहार देख कर श्री गुरु नानक देव जी ने रीठे के फ लों की ओर इशारा करके भाई मरदाना जी को कहा कि ,‘मरदानियां ! यह फ ल तोड़ के खा ले। करतार भली करेगा।’    बाबे का वचन सुनकर मरदाना जी गहरी सोच में पड़ गए तथा कहने लग—बाबा मुझे क्यों मारना चाहते हो,मैं तो अभी जीना चाहता हूं। ये रीठे तो जहर जैसे कडवे हैं तथा लोगों के वस्त्र धोने के काम आते हैं। श्री गुरु नानक देव जी ने अपनी तरफ  के रीठों की टहनियों पर मेहर की नज़र डाली व कहा,‘भाई जी, सत करतार कह कर रीठे के वृक्ष पर चढ़ जाओ। आप फ ल खाओ और इन सिद्धों को भी तोड़ कर दो।’ सत्य वचन कह कर भाई मरदाना जी गुरुजी की तरफ  की टहनी पर चढ़ गए तथा रीठे तोड़ कर खाने लग गए। भाई जी की हैरानी की कोई हद न रही जब श्री गुरु नानक देव जी की कृपा से जहर जैसे रीठे शहद जैसे मीठे हो गए।    पहले भाई मरदाना जी ने आप पेट भर रीठे खाए तथा फि र सिद्धों को भी खाने के लिए दिए। छुवारे जैसा आनन्द देने वाले रीठे जब नाथ-जोगियों की जीभ को लगे तो वे हैरान हुए बिना न रह सके। परन्तु जिस वृक्ष पर श्री गुरु नानक देव जी की कृपा-दृष्टि हो गई, उसका फ ल न सिर्फ़ मीठा ही हुआ, बल्कि नानक नाम-लेवा संगत के सत्कार का पात्र भी बन गया। इस पात्रता के कारण ही यह स्थान आज ‘श्री रीठा साहिब’ के नाम से जाना जाता है।

—रमेश बग्गा चोहला
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