बैंकों का डूबता ऋण; सरकार कड़ा रुख अपनाए

देश के बैंकों द्वारा पिछले वित्तीय वर्ष में एक बार फिर खरबों रुपये के डूबत कर्ज़ों  की वापिसी की कोई सम्भावना न रह जाने पर इस राशि को बट्टे खाते में डाले जाने की घोषणा से देश का जन-मानस सकते में है। यह राशि एक लाख 20 हज़ार करोड़ रुपए बनती है। बैंकों के ऋण सर्वेक्षण पर आधारित एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार यह राशि 144093 करोड़ रुपए बैठती है। इस राशि में से भी सर्वाधिक डूबत राशि सार्वजनिक बैंकों की है जो 120165 करोड़ रुपए बनती है। इस राशि में शेष 23928 करोड़ रुपया निजी बैंकों का भी है। विगत कुछ वर्षों से बैंकों से भारी-भरकम राशि के ऋण लेकर मुकर जाने की परम्परा एक राष्ट्रीय बुराई बन कर उभरी है। विगत 10 वर्षों में बैंकों की इस डूबत राशि में निरन्तर एवं बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है। वर्ष 2009 में यह डूबत राशि केवल 2165 करोड़ रुपए थी, जिसमें अधिक भाग सार्वजनिक यानि सरकार पोषित बैंक संस्थानों का था जो 1594 करोड़ रुपए था। इसके बाद यह राशि निरन्तर चक्र -वृद्धि ब्याज की भांति बढ़ती गई, और आज स्थिति यह है कि इस डूबत राशि ने कई बैंकों के अस्तित्व तक को खतरे में डाल दिया है। पिछले वर्ष यानि वर्ष 2016-17 में यह डूबत राशि कुल 89048 करोड़ रुपए थी जिसमें सार्वजनिक बैंकों का योगदान 75929 करोड़ रुपए था। बैंकों को इस स्थिति से उभारने के लिए केन्द्रीय सरकारें समय-समय पर संरक्षण पैकेज घोषित करती रहती हैं। वर्तमान में भी केन्द्र सरकार ने बैंकों को इस भंवर से निकालने के लिए राहत पैकेज की कई बार घोषणा की थी, परन्तु अब बैंकों की ओर से वर्ष 2017-18 के लिए 144093 करोड़ रुपए की ऋण राशि को बट्टे खाते में डाले जाने की घोषणा से एक नई बहस शुरू हो गई है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि यह राशि बैंकों द्वारा दिखाये जाने वाले वार्षिक घाटे से अतिरिक्त होती है। बैंकों से करोड़ों अथवा अरबों रुपए की राशि ऋण के रूप में लेकर औद्योगिक एवं व्यवसायिक संस्थानों द्वारा स्वयं को दीवालिया घोषित कर देना अतीत में भी कोई दुर्लभ घटना नहीं रही है, परन्तु बैंकों  से अथाह मात्रा में अरबों-खरबों रुपये के ऋण लेकर दीदा-दानिश्ता लौटाने से मुकर जाने की घटनाएं पिछले कुछ वर्षों से सामने आई हैं। नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और विजय माल्या इस दबंगता का एक बड़ा हिस्सा हैं। इस पूरे संदर्भ में सितम- ज़रीफी की हद यह भी है कि इस प्रकार के लोगों द्वारा लिये गये ऋण की राशि को राष्ट्रीय विकास अथवा सकल घरेलू उत्पाद हेतु प्रयुक्त नहीं किया गया, अपितु इससे इन लोगों ने अपने निजी एवं पारिवारिक हितों का ही पोषण किया। आंकड़ों का गणित यह भी बताता है कि सार्वजनिक एवं निजी बैंकों, दोनों के धरातल पर पिछले दस वर्ष में यह पहली बार है कि इतनी बड़ी धन राशि के ऋणों की राशि को बट्टे खाते में डाल दिया गया। इस पूरे मामले में एक उल्लेखनीय पक्ष यह भी है कि वर्ष 2016-17 में देश के सार्वजनिक क्षेत्र के 21 बैंकों ने लाभांश दर्ज किया था परन्तु एक ही वर्ष बाद यह लाभांश शून्य होकर बैंकों ने 85370 करोड़ रुपए का घाटा प्रदर्शित किया। यह स्थिति तब है जब सरकार ने इसी वर्ष जनवरी में एक लाख करोड़ रुपया बैंकों की साख एवं उनका अस्तित्व बचाये रखने के लिए झोंकने की घोषणा की थी। हम समझते हैं कि नि:संदेह इससे जन-साधारण के बीच बैंकों की साख एवं विश्वसनीयता को आघात तो पहुंचा है। एक ओर वे किसान हैं जो दो-चार-पांच लाख रुपए का ऋण न लौटा पाने पर मृत्यु के चक्र-व्यूह में फंस जाते हैं। उनकी ज़मीनें एवं ट्रैक्टर छिन जाते हैं। बैंकों का ब्याज अदा करते-करते उनकी कमर टूट जाती है, और अन्तत: वे मृत्यु को गले लगाने अथवा आत्म-हत्या करने पर विवश हो जाते हैं। दूसरी ओर विजय माल्या और नीरव मोदी गुट के लोग हैं जो अपने निजी परिवेश एवं पारिवारिक हितों को उभारने हेतु बैंकों में जमा आम लोगों की अरबों रुपये की धन-राशि को लेकर विदेशों में भाग गये हैं। इतनी राशि से तो देश के किसानों को पूर्णतया कज़र्-मुक्त कर, उनके कृषि व्यवसाय को भविष्य में भी सुरक्षित एवं संरक्षित किया जा सकता है। नि:संदेह रूप से इस सम्पूर्ण माया जाल में बैंकिंग क्षेत्र के अधिकारियों, कुछ राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभुगत दर्शनीय है। हम समझते हैं कि बेशक सराकारें बैंकों की वित्तीय स्थिति को उभारने के लिए राहत पैकेज दें, परन्तु इसके साथ ही इस प्रकार की खुली लूट को रोकने, इस प्रकार के नैतिक एवं वित्तीय अपराधियों को कानून के दायरे में लाने, और फिर उनसे देश की पूंजी का एक-एक पैसा वसूल करने के लिए भी सरकार को तत्पर होना चाहिए। इस प्रकार की स्थितियों एवं भेदभाव से राष्ट्र की मानसिकता भी आहत होती है। सरकार जितनी शीघ्र स्थितियों को संवारने हेतु प्रयत्न-रत होगी, उतना ही देश की सेहत के लिए अच्छा होगा।