सन सत्तावन में चमकी थी, रानी झांसी की तलवार

व्यापारी बनकर आई ईस्ट इंडिया कंपनी फूट डालो और राज करो की नीति से भारत की कंपनी बहादुर बन गई और सुविधा भोगी कुछ देशी राजा उनके सामने दुम हिलाते रहे। कंपनी के अत्याचारों से देश त्राहि-त्राहि कर उठा, लेकिन बचाने वाला कोई न था। ऐसे ही वातावरण में पहली गोली मंगल पांडेय ने चलाकर स्वयं शहादत प्राप्त की और देश को जगाकर बलिपथ पर अग्रसर कर दिया। देश का हर व्यक्ति यह महसूस कर रहा था कि ‘पराधीन सपने सुख नाहिं’। इसलिए पराधीनता की बेड़ियां तोड़कर स्वतंत्र राष्ट्र में सुख की सांस लेने का स्वप्न पूरे देश ने देखा और उसके लिए सर्वस्व अर्पण भी किया। आज़ादी की तड़प कितनी गहरी हो गई इसका अनुमान अजीजन बाई के बलिदान से भी लगाया जा सकता है। वह कानपुर की थी, लेकिन जब क्रांति की चिंगारी मेरठ और दिल्ली से बढ़ती हुई कानपुर पहुंची तो अजीजन बाई वीरांगना बन गई। उसने मस्तानी महिला मंडली का गठन किया और रानी झांसी लक्ष्मीबाई के स्वातंत्र्य समर की प्रमुख नायिका भी बन गई। श्री मोरोपंत और भागीरथी बाई की बेटी मणिकर्णिका मनु और छबीली बनकर बाजीराव पेशवा द्वितीय के बिठूर किले में पलती गई और वीरता उसके रोम-रोम में भरी थी। तांत्या टोपे मनु के गुरु रूप ही थे। मनु की मां उसे बचपन में ही छोड़ गई और पिता ने मां बनकर उसका पालन पोषण किया तथा शिवाजी जैसे वीरों की गाथाएं सुनाईं। उसे देखकर ऐसा लगता था कि मानों वह स्वयं वीरता की अवतार हो और जब वह बचपन में शिकार खेलती, नकली युद्धव्यूह की रचना करती तो उसकी तलवारों के वार देखकर मराठे भी पुलकित हो जाते थे और ऐसा कहा जाता था कि वह दुर्गा का ही अवतार है। समय के साथ और तत्कालीन रीति-नीति के अनुसार मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। वह रानी बनी, पर उसका पति सदा विलासिता में डूबा रहता था। लक्ष्मीबाई के एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ, पर वह तीन महीने का ही दुनिया से चला गया। इसी मध्य राजा गंगाधर राव भी स्वर्ग सिधार गए और तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड डल्हौजी को झांसी राज्य हड़प करने का मौका मिल गया। यद्यपि रानी ने पति के जीवनकाल में ही पुत्र गोद लिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया, पर अंग्रेज शासकों ने गोद ली गई संतान को उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया। जब रानी को पैंशन लेकर झांसी छोड़ने का आदेश सुनाया गया तब रानी के मुख से मानों भारत की आत्मा ही गरज उठी, उसने कहा-‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।’ इसके पश्चात सैनिक क्रांति हुई, महारानी झांसी ने वीरता से युद्ध का नेतृत्व किया। इस स्वातंत्र्य यज्ञ में रानी के बहादुर साथी तांत्या टोपे, अजीमुल्ला, अहमद शाह मौलवी, रघुनाथ सिंह, जवाहर सिंह, रामचंद्र आदि बहादुरी से लड़े और शहीद हुए।लक्ष्मीबाई की बहुत बड़ी शक्ति उसकी सहेलियां थीं जो योग्य सैनिक ही नहीं, सेनापति बन गई थीं, विवाह के पश्चात राजमहल की सभी सेविकाओं को रानी ने सहेली बनाया, दासी नहीं। उन्हें युद्ध विद्या सिखाई। इनमें से सुंदर, मुंदर, मोतीबाई, मालती बाई,  जूही आदि के नाम उल्लेखनीय हैं और साथ ही गौस खां तथा खुदाबख्श जैसे तोपचियों का नाम भी नहीं भुलाया जा सकता, जिन्होंने अंतिम श्वास तक स्वतंत्रता के लिए वीर रानी का साथ दिया। झांसी के किले पर अंग्रेज कभी भी अधिकार न कर पाते, अगर एक देश द्रोही डुल्हा जू अंग्रेजों को रास्ता न देता। 12 दिन झांसी के किले से रानी मुट्ठी भर सेना के साथ अंग्रेजों को टक्कर देती रही। लेकिन देश का दुर्भाग्य कि ग्वालियर और टीकमगढ़ के राजाओं ने अंग्रेज़ी सेना की मदद की। रानी का अपना ही एक सैनिक अधिकारी डुल्हा जू अंग्रेजों से मिल गया अन्यथा कभी भी झांसी अंग्रेजों के हाथ न जाती। इस युद्ध में जरनल ह्यूरोज से रानी ने भीषण संघर्ष किया। लैफ्टिनैंट वॉकर भी रानी के हाथों घायल होकर भागा, पर अंत में रानी को गुप्त मार्ग से झांसी का किला छोड़ना पड़ा।ग्वालियर के महाराज सिंधिया और बांगा के नवाब से इन्होंने सहयोग की मांग की, पर वे सहमत न हुए। परिणामस्वरूप रानी ने ग्वालियर के तोपखाने पर हल्ला बोल दिया। ग्वालियर के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिकों ने इनका साथ दिया, विजय भी मिली पर राग रंग में मस्त रहने के आदी राव साहब ने जीत का जश्न मनाना प्रारंभ कर दिया, किंतु रानी ने अपनी दो बहादुर सखियों काशीबाई तथा मालती बाई के साथ कुछ सैनिकों को लेकर पूर्वी दरवाजे का मोर्चा संभाल लिया। 17 जून को जनरल ह्यूरोज ने ग्वालियर पर हमला किया। अंग्रेजों की शक्तिशाली सेना भी रानी की व्यूह रचना को तोड़ नहीं पाई। पीछे से तोपखाने और सैनिक टुकड़ी के साथ जनरल स्मिथ रानी का पीछा कर रहा था। इसी संघर्ष में रानी की सैनिक सखी मुंदर भी शहीद हुई। रानी घोड़े को दौड़ाती चली आ रही थी, अचानक सामने नाला आ गया। अंग्रेज़ सैनिकों ने रानी के सिर पर पीछे से प्रहार किया और दूसरा वार उसके सीने पर। चेहरे का हिस्सा कटने से एक आंख निकलकर बाहर आ गई, पर ऐसी स्थिति में भी लक्ष्मी ने दुर्गा बनकर अंग्रेज घुड़सवार को यमलोक भेज दिया, किंतु स्वयं इस प्रहार के साथ ही घोड़े से गिर गई। रानी के साथ यह दुर्घटना नये घोड़े के कारण घटी अन्यथा रानी शत्रुओं की पकड़ से बहुत दूर पहुंच जाती। अंतिम समय में भी रानी ने रघुनाथ सिंह से कहा मेरे शरीर को गोरे न छूने पाएं। रानी के विश्वासी अंगरक्षकों ने दुश्मन को उलझाए रखा और शेष सैनिक रानी का शव बाबा गंगादास की कुटिया में ले गए, जहां बाबा ने रानी के मुख में गंगाजल डाला और हर-हर महादेव तथा गीता का श्लोक बोलते हुए प्राण त्याग दिए। बाबा ने अपनी कुटिया में ही रानी की चिता बनाकर उसको अग्नि देव को समर्पित कर दिया। रघुनाथ सिंह शत्रु को भरमाने के लिए रात भर बंदूक चलाता रहा और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ। साथ ही काशीबाई भी शहीद हुई।