तबदीली के संकेत दे रहा है देश का राजनीतिक माहौल

ऐसा समय आता है जब तानाशाही असंतुष्टि पैदा करती है और किसी और सम्भावित दुनिया का विचार ज़ोर पकड़ना शुरू कर देता है। दरअसल जब आत्म-विश्वास का चेहरा ऐसा हो जाता है तो यह प्रतिदिन परेशान करता है। गुजरात चुनावों से इसकी शुरुआत हो गई थी, जहां धरती के पुत्रों की जोड़ी बड़ी मुश्किल से आधा रास्ता पार कर सकी, कांग्रेस ने नई इच्छा से सहयोगियों और समीकरणों को ढूंढा जो उन्होंने पहले नहीं किया था। दरअसल, कांग्रेस और राष्ट्रीयवादी कांग्रेस पार्टी अगर चुनाव से पहले ही समझौता कर लेती तो श्री मोदी अपने गृह राज्य में ही हार सकते थे। फिर अलवर, अजमेर, गोरखपुर, फूलपुर, अरारिया के लोकसभा उप-चुनावों के परिणामों ने अहंकारी हस्तियों को हार का चेहरा दिखाया। अमित शाह और मोदी कर्नाटक में कुछ भी कर सकते थे, वह राहुल की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी के बराबर ही वोट शेयर हासिल करके और भाजपा के लिए कम-गिनती के 36 फीसदी वोट हासिल करके साधारण बहुमत हासिल कर सकते थे। परन्तु मोदी ने जो 20 या अन्य सीटों पर बड़ी गर्मजोशी और उत्साह से चुनाव प्रचार किया था, उनमें से सिर्फ 6 सीटों पर ही जीत हासिल हुई और अब हुए 14 उप-चुनावों में किसी विशेषज्ञ को राजनीतिक दृश्य की पुष्टि करनी चाहिए कि मोदी-शाह को किस तरह से असाधारण हालात का सामना करना पड़ा है। कुछ और भूचाल की तरह अंदर ही अंदर चल रहा है, जिसको परिवर्तनशील कार्य की सहायता करनी चाहिए जबकि भगवां कैम्प इस व्यवहार को बहुत सारे छोटे डेविडों के व्यर्थ यत्नों से दूर करनी चाहती है, लेकिन यह यत्न गोलीयाथ के तूफान की गज़र् से उड़ा दिए जाएंगे। अगर देखा जाए तो मीडिया चैनलों की ओर लगातार मददगार प्रचार जारी रखा जा रहा है, जो शासन के सम्भावित पतन में कार्पोरेट जगत को लगने वाले भारी झटके की सम्भावनाओं को देखता है। विचार यह है कि लोगों को विशाल स्तर पर अराजकता की सम्भावनाओं के प्रति चेतावनी दी जाती है कि इमारत नीचे आ जायेगी। सोचा यह जा रहा है कि नई जागृति अब राष्ट्रीय सम्पत्ति को निजी कंट्रोल में देने के अमल को रोक सकती है और केन्द्रीय एकाधिकारी जीवन के मुद्दों को सुलझाने के लिए ज़रूरी है और इसका विरोध पैदा कर सकता है। आर्थिक केन्द्रीयकरण की ज़रूरत है—एक विचारात्मक स्कीम जिसकी ओर सीज़र की ओर से सबसे ज्यादा ध्यान दिया गया, कि संवैधानिक राष्ट्र की निष्ठा सिर्फ बोलने या वायदे करने से ज्यादा हो सकती है। इस विचार से हवा में एक दहशत है कि अधिकारों के उपदेश को नया जीवन मिल सकता है और 2019 में परिणाम अलग हो सकते हैं। अगर लोगों के बड़े समूह को नीति बनाने के मामलों में वापिस न लिया गया। कार्पोरेट माडल के समर्थकों का मत है कि भारत के एक फीसदी लोगों के लिए सब कुछ छोड़ दिया जाए, जिनके पास इस समय भारत की 73 फीसदी जायदाद है। आधुनिकता को समानता की फिक्र करने की ज़रूरत नहीं, यहां तक कि सामाजिक, धार्मिक, सभ्याचारक शर्तें में भी नहीं। उप-चुनावों के परिणाम लोगों को वंचित किए जाने से पैदा हुए खतरे की चेतावनी देते हैं। अगर कैराना में दलितों, जाटों और मुसलमानों ने इकट्ठी वोट दिया है तो यह घटना आंकड़ों के गणित से ज्यादा और भी बहुत कुछ नेताओं को समझा रही है। ऐसा महसूस किया जा रहा है कि लोग फिर गणतंत्र प्राप्त करने के लिए तैयार हैं। लेकिन अगर उनकी सही राजनीतिक संरचना अगुवाई करे और वह समझदारी भी धारण करे। यह ज़िम्मेदारी कांग्रेस पार्टी पर पड़ती है और उनसको ऐतिहासिक पलों की ज़रूरतों के लिए एक नई निष्ठा और मान्यता हासिल करनी चाहिए। राहुल गांधी सिर्फ जत्थेबंदी को संगठित कर रहे हैं, बल्कि अपने प्रवक्ताओं को तीखे प्रतिक्रम देने के लिए भी उत्साहित करते आ रहे हैं। विचारों का यह नवीनीकरण राजनीतिक पार्टियों को पहले से ही ताकत देता रहा है, जिसने कि संघर्ष के साथ अपने आप को विचारात्मक तौर पर तैयार किया हो। विरोधी पक्ष प्रतिदिन चैनलों के जाल में फंसने से इन्कार कर रही है, क्योंकि आने वाली प्रतियोगिता कोई दो शख्सियतों के बीच नहीं होगी, बल्कि इसका महत्व गणतंत्र को चलाने के लिए ज़रूरी लोकतांत्रिक को बचाने पर आधारित होगा। 
ज्यादातर विरोधी जो लगभग 65 फीसदी मतों की अगुवाई करते हैं, ने इकट्ठे यह महसूस किया है कि वह आने वाले चुनावों में उनको फेल हो जाना चाहिए। मीडिया का ज्यादा रुझान इसी ओर होगा कि हमें यह विश्वास दोहराया जाए कि यह गठजोड़ बेतुकी भीड़ है। असली तथ्य यह है कि लोकतंत्र के विरोधी सिर्फ अपने आप को ही बचाने के लिए एकजुट नहीं हुए, बल्कि अपनी-अपनी कुर्सी को भी बचाना चाहते हैं।
चुनाव के कुछ महीने ही रह गए हैं, चाहे अब मोदी का करिश्मा शोर पैदा करने वाली आवाज़ की तरह ही होगा लेकिन विरोधियों के लिए सत्ता तक पहुंचने का रास्ता भी आसान नहीं होगा। सत्ताधारी शायद किसी जंग के होने संबंधी ढोल बजा सर्जीकल स्ट्राइक से कुछ ज्यादा करने की कोशिश करें, हमें राष्ट्रवादी समर्पण के लिए उत्तेजित करें या फिर इससे आगे का भी कोई रास्ता धारण कर सकते हैं। उनकी ओर से हिदुंत्व के अपने पक्के एजेंडे को नहीं छोड़ा जायेगा। किसी ने यह कहने की हिम्मत की है कि ऐसा दाव अब काम नहीं कर सकेगा, क्योंकि विरोधी पक्ष को आंकड़ों  के द्वारा कुछ नया रास्ता ढूंढ लिया है। लेकिन कभी भी सत्ता पक्ष को अनदेखा नहीं किया जा सकता, विशेष रूप से जबकि राजनीतिक ताकत उनके हाथों में हो जोकि दबाव पाने और चालाकी करने की अपनी शैली से सांस हासिल कर रहे हों।अगर लोग अपने खासे मुताबिक है और विरोधी लीडरशिप सुचेत है तो गणतंत्र के साथ अभी भी सब सही होगा। अगर हज़ारों ही लोग विशेष करके मुस्लिमऔर इसाई, जो भारत माता की धरती में दफन हैं, यह अधिकार रखते हैं कि आने वाले दिनों में कोई अच्छी खबर सुनने को मिले। 

(मंदिरा पब्लिकेशन्ज़)