साहित्यिक रसों से सराबोर एक काव्य फुहार

समीक्षा हेतु पुस्तक : बहके भाव, बावरे रंग (काव्य संग्रह) कवयित्री : डा. राज शर्मा, सम्पर्क : राज शर्मा, एम.-3 डी, एम.आई.जी. फ्लैट्स, जे.पी. नगर, जालन्धर, पंजाब। प्रकाशक : बिटवीन लाइन्ज़, 451, अर्बन एस्टेट, फेज़-1, पटियाला-147002, मूल्य : 350 रुपए।
डा. राज शर्मा का यह दूसरा सम्पूर्ण काव्य-संग्रह है। इससे पूर्व उनका एक काव्य संग्रह ‘हार नहीं मानूंगी’ वर्ष 2012 में प्रकाशित हो चुका है। प्रकाशन की विरासत में डा. राज शर्मा ने बहुत कुछ दिया है हिन्दी साहित्य जगत को। शिक्षा के धरातल पर भी बहुत सुसंस्कृत पीठ है डा. राज शर्मा के पास .... और इसी धरातल पर उनके इस काव्य संग्रह का अध्ययन करें, तो पाते हैं कि कवयित्री ने निजी अनुभवों के मोतियों को, स्मृतियों के धागे में पिरो कर तैयार किया है यह काव्य संग्रह। कवयित्री की निजी अभिरुचि प्राकृतिक दृश्यावलियों को काव्य के कैनवास पर उतारने हेतु उद्यमशील दिखती है। इसकी पुष्टि हेतु उनकी कविता ‘छू लो आसमान’ को उद्घृत किया जा सकता है। (पृष्ठ 64) मेरे बेडरूम की खिड़की पर/अचानक आ बैठी एक चिड़िया। देखा मैंने/कुछ क्षण शांत मौन बैठी/गर्दन घुमा-घुमा कर/मानो कुछ निरीक्षण कर/आश्वस्त हो/उसने पुकारा, चीं चीं।
परिन्दों की उड़ान, उनके भीतरी उद्गार, उनकी सोच, समझ-बूझ... इस सब कुछ का कवयित्री ने कुछ इस तरह से निर्वहन किया है कि साक्षात यह पूरा दृश्य पाठक के मन-मस्तिष्क पर उतरने लगता है। प्रकृति के झीने आंचल के पीछे से झांकती, यह एक कविता भी सौंदर्य-बोझ को जगाती है—मैं धरा पर आई/ले अमृत जल-धारा/युगों से है पावन मेरा किनारा/सागर पुत्रों से लेकर/सबके पुरखों का करती आई उद्धार। (गंगा करे पुकार-पृष्ठ 55) इसके अतिरिक्त संग्रह की पहली ही कविता, अपनी पहली पंक्ति से प्राकृतिक मुआशिरे से प्राण-वायु संचार ग्रहण करते प्रतीत होती है—बहार ने खटखटाया द्वार/कई बार... मैंने ही उठ कर न झांका बाहर/... अब मौन प्रतीक्षारत हूं/ शायद ये पुन: लौटें।
कवयित्री ने संग्रह की अनेक कविताओं के माध्यम से जहां अपनी उदार-चेता काव्य-मयता का परिचय दिया है, वहीं कई कविताएं सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं में वर्णित शौर्य एवं वीर रस का रसा-स्वादन कराते भी प्रतीत होती हैं। संग्रह के तीन हिस्सों में बांटा गया है। दूसरा भाग ़गज़ल के हिस्से में आया है। ़गज़लों को पढ़ कर साफ पता चलता है कि कवयित्री को साहित्य/अदब की इस कठिन विधा की भी बखूबी जानकारी है। एक ़गज़ल का एक शेअर मुलाहिज़ा कीजिये—
जीना नहीं आसां, है सच्ची बात ये ‘शबनम’
जीना है तो मरने का सलीका भी तो सीखें।
तीसरे हिस्से में बाल गीत हैं, क्षणिकाएं हैं। बाल गीतों में बाकायदा सुर-ताल है, तरलता है और गीतात्मकता है। कुल मिला कर इस दूसरे संग्रह ने कवयित्री से तीसरे संग्रह की उम्मीदें बढ़ा दी हैं। यह संग्रह देश/प्रांत के हिन्दी साहित्य जगत में अपनी जगह बना लेने की ऊर्जा रखता है।

—सिमर सदोष