रेहड़ीवाला.......

    बड़ी बेटी बारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी और छोटी वाली अभी नवीं कक्षा में थी। शिक्षा के महत्व को वह भली-भांति समझता था। पढ़ाई छोड़ने का दु:ख क्या होता है उससे बेहतर भला कौन समझ सकता था। इसलिए वह चाहता था कि जो वह अपने जीवन में न कर पाया उसके बच्चे करके दिखाएं। इसलिए दोनों पति-पत्नी अपना पेट काट-काटकर अपने बच्चों के हर अरमान पूरे कर रहे थे। वह चाहता था कि उसका बेटा खूब पढ़-लिखकर अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करे ताकि वह जल्दी अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो सके। इसलिए उसने अपनी हैसियत से भी बढ़ कर अपने बच्चों पर खर्च किया। कभी पड़ोसियों से कर्ज लेकर कभी बैंक से कर्ज लेकर। केवल बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाने पर ही खर्च नहीं होता और भी बहुत सारे छोटे-मोटे खर्चे होते हैं जो कभी गिनती में ही नहीं आते। किस तरह वह घर का गुजर बसर कर रहा था यह तो उसका दिल ही जानता था। पर वह खुश था कि डेढ़- दो साल के बाद उसका बेटा किसी अच्छी कंपनी में नौकरी जरूर हासिल कर लेगा। बेटी अभी बाहरवीं कक्षा में पढ़ रही थी तो उसे ज्यादा चिंता नहीं थी। उसे उम्मीद थी कि जब तक वह शादी लायक होगी तब तक उसका भाई कमाने वाला हो चुका होगा पर मन में एक डर भी था अपनी हैसियत को लेकर क्योंकि अभी तक वे उसी कच्चे मकान में रह रहे थे और इतना तो वह जानता ही था कि लोग गुण बाद में रिश्ता जोड़ते समय पहले घर-वार देखते हैं। खैर बेटियां उसकी दोनों ही सुंदर और संस्कारी थी, इसलिए उसे उनके रिश्ते को लेकर किसी तरह की चिंता न थी। उसकी उम्मीदें अपने बेटे से बहुत ज्यादा थी। इसलिए वह अपने बेटे की हर फरमाइश पूरी कर रहा था ताकि वह अच्छी नौकरी हासिल कर सके तथा साथ ही अपने घर की जिम्मेदारियां भी उठा सके। क्योंकि ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते अब वह बहुत थक चुका था और कुछ पल आराम के जीना चाहता था-चिंतामुक्त। पर ऐसा भी कहीं होता है, जिदंगी खत्म हो जाती है लेकिन ज़िम्मेदारियां कभी खत्म नहीं होती। ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं। इन्सान सपने तो बहुत देखता है लेकिन सपने हमेशा पूरे नहीं होते, कुछ सपनों की किस्मत में अधूरापन ही लिखा होता है। अगर सब कुछ इन्सान की सोच के अनुरूप ही होने लगे तब तो इन्सान खुद को ही भगवान न समझने लग जाए। इतने में ही उसकी जेब में पड़ा पुराना मोबाइल फ ोन बज उठा। यह फ ोन उसके बेटे ने दिया था उसे, क्योंकि बेटा किसी दूसरे शहर में पढ़ रहा था और तीन-चार दोस्तों के साथ सस्ते से किराये के कमरे में रह रहा था। मोबाइल फोन की घंटी ने उसके ख्यालों में व्यवधान डाल दिया। बेटे की कॉल देखकर खुश तो बहुत हुआ लेकिन अगले ही पल परेशानी ने उसे घेर लिया क्योंकि एक सप्ताह में उसे पचास हजार रुपयों का इंतजाम करना था, बेटे की फीस जो भरनी थी। गरीबी इन्सान को लाचार बना देती है। उसे मजबूरी की जंजीरों में जकड़ कर रख देती है, लेकिन उससे भी बड़ा होता है इन्सान का हौंसला, जो इन्सान को कभी टूटने नहीं देता, बिखरने नहीं देता। हरी सिंह ने भी सोचा बस एक डेढ़ साल की ही तो बात है फि र वह इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जायेगा और उसके बेटे का भविष्य भी सुखद बन जायेगा। वह कुछ अलग तो नहीं कर रहा था सभी मां-बाप अपने बच्चों के लिये मेहनत करते ही हैं। यह सोच कर उसने अपने मन को तसल्ली दी। दिन के तीन बज रहे थे लेकिन आसमान आग उगल रहा था। अचानक उसे ख्याल आया कि आज तो बोहनी भी नहीं हुई है। वह झटके से उठा, पांव में चप्पल पहनी और रेहड़ी खींचता हुआ फि र से सड़क तक आ गया इस उम्मीद के साथ कि कोई न कोई कुछ तो खरीद ही लेगा। गर्मी इतनी ज्यादा थी कि सड़क पर इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे। सिर्फ वाहनों का ही शोर था। सड़क के दूसरी ओर किनारे पर एक पेड़ देखकर उसने सोचा कि यहां अपनी रेहड़ी खड़ी करता हूं। ये जगह माल बेचने के लिए ठीक रहेगी। वह सड़क पार करने लगा। सड़क पार करते-करते अचानक वह सोचने लगा कि एक सप्ताह में वह पचास हजार रुपयों का इतंजाम कैसे करेगा। उस जैसे रेहड़ी वाले के लिये पचास हजार कोई छोटी-मोटी रकम तो थी नहीं। पड़ोसियों के आगे भी कितनी बार हाथ फैलाएगा, अब तो कोई उधार भी न देगा क्योंकि अभी पहले का ही उधार खत्म नहीं हुआ था। ऐसा कौन है जो इस बुरे वक्त में उसकी मदद कर सके, अभी इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि एक ट्रक से टकरा गया। गलती ट्रक वाले की नहीं थी क्योंकि वह तो काफी देर से हॉर्न बजा रहा था लेकिन वही था जो अपनी चिंता में इस कदर डूब चुका था कि उसे ख्याल ही न रहा कि सामने से ट्रक आ रहा है। उसके फ ल-सब्जियां सड़क पर बिखरे पड़े थे और साथ ही पड़ी थी रेहड़ी और उसका मृत शरीर। ट्रैफि क जाम हो गया था, लोग नये-नये तरीके अपना कर अपनी-अपनी गाड़ियां निकाल रहे थे। किसी के पास उसके लिये शोक मनाने या रोने का समय नहीं था क्योंकि उनकी नजरों में सड़क पर तो हमेशा हादसे होते ही रहते हैं और यह कोई नयी बात भी नहीं थी। कोई भी पुलिस के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था इसलिए किसी ने भी उसके मृत शरीर को हाथ तक न लगाया, लेकिन हां जो थोड़ी बहुत उसकी फ ल-सब्जियां सड़क पर बिखरी पड़ी थी कुछ एक ने दूसरों की नजरें बचा कर अपने थैले में डाल ली और चुपचाप निकल गये। 


      उपायुक्त कार्यालय, ऊना,  (हि.प्र.)