चिंतन शिविर....

गड़बड़दयाल ने एक बार आंखें खोल कर जायज़ा ले लिया। शरारती बच्चे की तरह सुबह एक बार खिड़की थपथपा कर पीछे हट गई थी। रसोई में बर्तनों का सरगम अभी छिड़ा न था। श्रीमती ने चादर, लम्बी तान ली थी। रविवार ही था सुस्ती के सलवटों भरे कपड़े पहने घूम रहा था। ‘पहले तुम’ के अलाप में उसने करवट बदल ली।
सात तो बज चुके होंगे। सात बजे आमतौर पर ‘बिस्तर कप’ हाथ में होता है। उनका अनुभव था कि तलब, स्वाद या भूख (किसी भी किस्म की) की इच्छा जाहिर करने पर पहली कोशिश भी खुद ही करनी होती है। आलस्य की फिसलन भरी ज़मीन कोशिश की जन्मजात बैरन है। एक झपकी और मार लो, कौन-सी अ़खबार की सुर्खियां बदल जाने वाली हैं।
अ़खबार से याद आया ‘चिन्तन शिविर’। रात को सोने से पहले ही घोषणा हो गई थी श्रीमती द्वारा कि कल से, कल से आज से, आज से भी क्यों, अभी से ही चिंतन शिविर आरम्भ होता है। लोकतांत्रिक पार्टियां ‘चिन्तन शिविर’ के लिए क्या-क्या नहीं करतीं। कोई पार्टी गोआ जा रही है। कोई शिमला। कोई आज तक नहीं जान पाया कि कितना चिंतन होता है और कितनी शिविर बदूता। यहां तो घर में होने वाला है। वैसे शिविर की माकूल जगह पानीपत का मैदान होना चाहिए या फिर हल्दीघाटी। जख्मों पर जल्दी हल्दी का उपयोग लाभदायक हो सकता है। घर में चिंतन शिविर ज्यादा मुश्किल सवाल नहीं लगता? कैटरीना सुंदर है या करीना? टमाटर पहले महंगा होगा या प्याज़ कब पेट्रोल स्कूटर पर गंगाजल की तरह छिड़कने मात्र के काम आने लगेगा? जैसे सवालों पर तो तलवारें निकल आती हैं। हालांकि प्रेमचंद बड़े हैं, या गोर्र्की, पूंजीवाद की बंदूक कीमती है या समाजवाद की छाती जैसे मसलों पर तो बात होनी ही बंद हो चुकी है। फिर भी चिंतन शिविर?
मरता क्या न करता के मुहावरा उच्चारण के साथ वह उठे तो कव्वे के जाज में भी कुछ ऐसा ही सुनाई दिया। स्त्रियों के मताधिकार से लेकर संसद में आरक्षण तक के तमाम मोर्चों का संरक्षण करते हुए सशक्त सी चाय के दो कप तैयार किए। रेलवे स्टेशन के चाय विक्रेता की तरह और टेढ़े कर ‘चाय’ कहा तो श्रीमती जी उठ गईं। उठते ही कहा—‘भारतीय नारी आज जाग उठी है।’ गड़बड़दयाल को लगा कि जब-जब उनके घर नारी जाग उठी है अपने कच्छे-बनियान से लेकर चादरें-गिलाफ तक उन्होंने खुद ही धोये हैं।
कई बार स्त्री दुर्दशा देख कर उनका मन कुल्फी की तरह पिघल गया है। वह चाहते रहे हैं कि दफ्तरों में काट खाने वाले बाबुओं की जगह मधुर स्वर में कहती समझातीं महिलाएं हों। परन्तु कुछ विभागों में जहां वे तैनात हुईं है, घर की पूरी खीझ निकालती नज़र आई हैं। —चीनी कितने चमच डाली है चाय में? चिंतन शिविर के अध्यक्ष की तरह पूछा उन्होंने।
डेढ़ चम्मच। —जब मैं डेढ़ चम्मच डालती हूं तो कोलेस्टरीन बढ़ने से लेकर चीनी के बढ़ते दामों तक के सभी कैसेट चला देते हो। चिंतन शिविर में, उन्हें लगा गार्गी, सावित्री ही आयेंगी परन्तु दुरवासा वहां से आ निकले। नाश्ते के वक्त भी चिंतन शिविर जारी था। कुछ घंटों के बाद उन्होंने विरक्त सी वाणी सुनी। —मैंने क्या किया, एक निरर्थक जीवन जीया। बीस वर्षों तक भोजन बनाती रही। कपड़े धोती रही। टिफिन पैक करती रही। स्त्री प्रश्न, स्त्री चेतना और फिर स्त्री सशक्तिकरण अ़खबारों में, रेडियो में और फिर टी.वी. में होता रहा। घर में अ़खबार, रेडियो, टी.वी. की मौजूदगी भी रही, लेकिन पारिवारिक जीवन किसी मुल्क के राष्ट्रीय गीत की तरह चलता रहा।
गड़बड़दयाल ने तय कर रखा था कि चिंतन शिविर में कोई गड़बड़ नहीं करेंगे। कपड़े धोकर सूखने डालते हुए आस-पास देखते रहे कि कोई देख तो नहीं रहा। मर्दाना समाज में कोई पति अगर पत्नी की कमीज़-सलवार प्रैस करता नज़र आ जाये तो धोबीघाट से लेकर शहर के घटिया होटल तक हर तरफ अफसाना बन जाता है। फलां शख्स आज गुलामी की तमाम हदें पार करता हुआ नज़र आया।
शाम को श्रीमती ने पूछा—कपड़े धोये? हां, धोये। —कमीज़ का कॉलर तो साफ नहीं हुआ?—मैंने आज कमीज़ धोयी ही नहीं। —बिल्कुल ठीक। मुझे सदा उन गलतियों के लिए सुनना पड़ता रहा, जो मैंने की नहीं।
गड़बड़दयाल अब अपने को रोक नहीं पाये। जिन बीस सालों में तुम घर में पिसती रही हो, उन बीस सालों में मैं पारलौकिक यात्राएं नहीं करता रहा। घटिया अफसरों की बकवास नौकरी करता रहा हूं। दिन को रात, रात को दिन कहता रहा हूं। 
सभ्य इन्सान माना जाता रहूं, इसलिए नेताओं के यातना शिविर जैसी अपारदर्शिता, अलोकतांत्रिकता अन्याय प्रियता, भेदभाव की नीतियों को मुण्डी हिलाकर मानता रहा हूं और यथा प्रस्तावित यथास्थिति पर एक पत्थर तक नहीं फैंका। फ्रिज़ से निकालकर ठंडा पानी पीकर खुद ही गुस्सा शांत करना पड़ा। पत्नी जी शाम तक स्त्री विमर्श की कहानियां सुनाती रहीं। शाम को गड़बड़दयाल को चाय की तलब होने लगी। चाय बनाऊं? उन्होंने पूछा।—मैं खुद बनाऊंगी। नहीं तो हफ्ते भर की चीनी एक दिन में उड़ जायेगी। चिंतन शिविर? अगले चिंतन शिविर तक स्थगित।