बॉलीवुड का सौदागर  सुभाष घई


बहुत वर्ष पहले मैं सुभाष घई को रईया (अमृतसर) में ‘शेरनी’ की शूटिंग के दौरान मिला था। वह इस पंजाबी फिल्म के नायक थे। लेकिन उनकी अधिक दिलचस्पी कैमरे के शॉट्स के प्रति ही थी। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि ‘शेरनी’ का यह नायक हिन्दी फिल्म जगत के राज कपूर के बाद शो मैन का दर्जा हासिल करने वाला निर्माता-निर्देशक बनेगा। वह एक सफल हीरो तो नहीं बन सके, लेकिन उन्होंने अन्य कई नायक और नायिकाओं को असीमित सफलता दिलाई है। सुभाष घई का जन्म 24 जनवरी, 1945 को नागपुर में हुआ था। उनके पिता डैंटिस्ट थे और दिल्ली में प्रैक्टिस करते थे। इसीलिए सुभाष की प्राथमिक शिक्षा (हायर सैकेंडरी) दिल्ली में ही हुई थी। इसके बाद लाऊस के वैश कालेज रोहतक में दाखिला ले लिया। सिनेमा और थियेटर की चेटक उनको यहीं से ही लगी थी।
इस संबंध में सुभाष घई के गुरु और मेरे सरकारी कालेज गुरदासपुर के सहयोगी प्रो. कृपाल सिंह योगी मुझे अक्सर उनके विद्यार्थी जीवन की तस्वीरें दिखाया करते थे और सुभाष की नाटकों के प्रति रुचि के विवरण भी बताया करते थे। प्रो. योगी के अनुसार ‘सुभाष’ कालेज की नाटक मंडली का सदस्य था। मैंने इस क्लब को स्थापित किया था और अक्सर हम पंजाबी नाटक ही खेलते थे, क्योंकि मैं खुद पंजाबी का प्रोफैसर था। सुभाष इन नाटकीय मुकाबलों में ज़रूर हिस्सा लिया करता था। एक बार एक ऐसे ही मुकाबले के लिए वह टीम के साथ रोहतक से मुक्तसर तक भी आया  था। खैर, कॉमर्स में डिग्री लेने के बाद सुभाष ने पूना के फिल्म इंस्टीच्यूट में दाखिले ले लिया और अभिनय कला की शिक्षा भी ग्रहण की। इसके बाद उनको आत्मा राम ने अपनी फिल्म ‘उमंग’ (1970) का नायक बना दिया। इस फिल्म में लगभग सारे ही कलाकार नए थे। 
बाक्स आफिस पर ‘उमंग’ पूरी तरह से फ्लॉप रही। जब सुभाष की बतौर नायक रोल मिलने बंद हो गए तो महत्वहीन भूमिकाएं लेनी भी शुरू कर दी थीं। इस दृष्टिकोण से उन्होंने ‘तकदीर’, ‘अराधना’ और ‘गुमराह’ (1976) में ही छोटे-छोटे रोल भी निभाए थे। लेकिन सुभाष घई का मन हमेशा ही कुछ ठोस करने की सदा सोचता रहा था। लिहाज़ा कॉमेडियन भल्ला के साथ मिलकर उन्होंने ‘कालीचरण’ फिल्म की पटकथा तैयार की लेकिन इस कहानी को कोई भी निर्माता खरीदने को तैयार नहीं था। शत्रुघ्न सिन्हा के कहने पर एन.एन. सिप्पी ने यह कहानी ही नहीं खरीदी, बल्कि सुभाष को इसका निर्देशन भी सौंप दिया था। ‘कालीचरण’ (1976) ही सुभाष के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई थी। इसकी सफलता से प्रेरित होकर सुभाष ने खुद अपना ही बैनर (मुक्ता आर्ट्स) भी स्थापित कर लिया था। यह बैनर उनकी पत्नी मुक्ता के नाम पर स्थापित किया गया था। 
(शेष अगले रविवारीय अंक में)
यह सुभाष घई की कला पक्ष की विशेषता यह कि उन्होंने भिन्न-भिन्न कथानकों को लेकर बहुत दिलचस्प और सफल फिल्मों का निर्माण किया है। ‘कज़र्’ (1980) एक अंग्रेज़ी फिल्म ‘रीनकारनेशन’ से प्रेरित होकर बनाई गई पुनर्जन्म से संबंधित फिल्म थी। इसमें ऋषि कपूर और सिम्मी की प्रमुख भूमिकाएं थीं। टीना मुनीम ने भी इसमें महत्वपूर्ण रोल निभाया था। फिल्म के माहौल के मुताबिक ही सुभाष ने इसकी शूटिंग खंडाला में की थी। संगीतज्ञ दृष्टिकोण से भी ‘कज़र्’ बहुत ही लोकप्रिय मूवी सिद्ध हुई थी।
अपनी अगली फिल्म ‘हीरो’ (1983) का फोक्स भी उन्होंने खंडाला की पहाड़ियों पर ही रखा था। इसका नायक ‘जैकी श्राफ’ एक अपराधी है जोकि नायिका ‘मीनाक्षी शेषाद्रि’ का अपहरण कर लेता है लेकिन उसके अंदर का इन्सान जाग उठता है और वह फिर समाज की मुख्य धारा से जुड़ जाता है। 
सुभाष की कुशलता का प्रमाण यहां से भी मिल सकता है कि वह नए कलाकारों से भी उसी सहजता से काम करवा लेते थे, जिस समझदारी से वह पुराने अदाकारों को संभालते थे। जैसी श्रॉफ और महिमा चौधरी को भी वह वही प्राथमिकता देते थे, जो वह दलीप कुमार, राजकुमार और शम्मी कपूर को देते थे।
दलीप कुमार के साथ उन्होंने तीन फिल्में  ‘कर्मा’, ‘सौदागार’, ‘विधाता’ की थीं। उन्होंने ‘सौदागर’ में दलीप के साथ राज कुमार को भी लिया था। इन दोनों महान कलाकारों को एक साथ संभालना सदा ही कठिन रहा था। इसीलिए ‘पैगाम’ के बाद यह ‘सौदागर’ में ही नज़र आए थे। फिल्म की शूटिंग शुरू करने से पहले इन दोनों ने ही सुभाष के पास फिल्म की पटकथा के हर पेज़ पर हस्ताक्षर करवाए थे, ताकि कोई दृश्य उनकी मज़र्ी के बगैर बदला न जा सके। लेकिन सुभाष कभी भी किसी कलाकार के साथ अन्याय नहीं कर सकते, इसलिए ‘सौदागर’ की शूटिंग भी बगैर किसी रुकावट के कुल्लू में हुई थी। 
इसी तरह ही ‘राम लखन’ में उन्होंने अनिल कपूर को ‘मेरी जंग’ के बाद दोबारा प्रतिष्ठा दिलवाई। नायिकाओं के दृष्टिकोण से उन्होंने मनीषा कोइराला, महिमा चौधरी और मीनाक्षी शेषाद्रि जैसी तुलनात्मक रूप में उस समय नई नायिकाओं का भी उन्होंने ही करियर बदला था। वैसे तो माधुरी दीक्षित के संबंध में भी उन्होंने भविष्य की मधुबाला कहकर उनका प्रचार किया था।
हां, एक दो बार ऐसे मौके भी आए कि सुभाष घई विवादों में भी फंस गए थे। इस दृष्टिकोण से उनकी फिल्म ‘खलनायक’ का हवाला दिया जा सकता है। इसके बीच एक गीत ‘चोली के पीछे क्या है’ काफी विवाद का विषय बना रहा था। कई आलोचकों ने इसका सीधा संबंध अश्लीलता से ही जोड़ा था। इसी तरह ही इसका कथानक राजनीतिक संस्थानों द्वारा भी काफी नकारा गया था। इसीलिए उनको फिल्म का काफी भाग री-शूट भी करना पड़ा था।
जब यह फिल्म निर्माता अपनी दृढ़ता का प्रगटावा करता है तो कोई भी रुकावट उनको रोक नहीं सकती है। इस दलील की प्रौढ़ता एक असली घटना से की जा सकती है। यह ‘गौतम  गोविंदा’ फिल्म की शूटिंग महबूब स्टूडियो में कर रहे थे।
(शेष अगले रविवारीय अंक में)