ज़रूरी तो नहीं....
‘दीदी! इस बार होली पर आपके पास आ रही हूं।’ रिया का व्हाट्स अप्प पर मैसेज देख कर नेहा असहज हो उठी। उसने कोई रिप्लाई भी नहीं किया। शाम को रवि ऑफि स से चहकते हुए आए और खुश होते हुए बोले- ‘भई इस बार होली पर मजा आ जायेगा। पता है! रिया आ रही है होली पर...’ शादी के बाद पहली बार साली साहिबा के साथ होली खेलने का सुनहरा मौका हाथ लगा है। रवि का उत्साह देख कर नेहा और भी गहरी सोच में डूब गई। गैस पर उबलती चाय के साथ उसकी यादों में भी खदबदी मचने लगी।आज भी वैसी की वैसी ही अंकित है लगभग पन्द्रह बरस पहले की वो होली जो उसके जीवन में काले रंग पोत गई थी। लाख कोशिशों के बावजूद वह अपने मन के बदरंग हुए कैनवास को कभी उजला महसूस नहीं कर सकी। उसकी बारहवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा का केंद्र जोधपुर आया था। दसवीं तक की पढ़ाई तो उसने अपने गांव के सरकारी स्कूल से की थी मगर आगे की पढ़ाई के लिए गांव में कोई स्कूल नहीं था इसलिए उसे स्वयंपाठी विद्यार्थी के रूप में अपना नामांकन करवाना पड़ा और उसका परीक्षा केंद्र निकटतम शहर जोधपुर आया था। मां ने निश्ंिचत हो कर कहा था- चलो अच्छा है, जोधपुर आया है। अपनी सीमा वहीं तो है, उससे कह देती हूं। उसी के पास रह कर परीक्षा दे देना।’सब कुछ तय हो जाने के बाद नेहा को परीक्षा के तीन दिन पहले पापा सीमा दीदी जो कि मां की मौसेरी बहन की बेटी थी के घर छोड़ आये। सीमा नेहा से लगभग सात-आठ वर्ष बड़ी थी। जीजाजी भी बहुत ही हंसमुख और मजाकिया स्वभाव के थे। तीन-चार दिनों में ही नेहा सबसे घुल-मिल गई। दीदी के साथ-साथ जीजाजी भी उसका खास ख्याल रखते थे। पोर्च पर बने छोटे कमरे में नेहा के पढने की व्यवस्था की गई। नेहा सिर्फ खाने-नाश्ते के लिए ही नीचे हॉल में आती थी, बाकी समय पढ़ती ही रहती थी मगर जीजाजी ऑफिस से आते ही सबसे पहले ऊपर नेहा के पास जाते और उसके साथ हंसी मजाक करते। दीदी के टोकने पर कहते — ‘अरे भई साली साहिबा कहां रोज-रोज आएंगी हमारी कुटिया को पवित्र करने। और वैसे भी सारा दिन किताबों में सिर खपाने के बाद अगर थोड़ी देर हंसी-मजाक कर लिया जाये तो दिमाग फिर से तरोताजा हो जाता है।’ देखते ही देखते नेहा के सारे पेपर खत्म हो गए। बस एक आखिरी पर्चा बचा था। इसी बीच होली का त्यौहार आ गया। दीदी ने पूछा-‘नेहा होली पर गांव जाओगी क्या?’ ‘अरे, कमाल करती हो तुम भी! गांव कैसे जाएगी, धुलंडी के अगले दिन ही तो पेपर है इसका। और धुलंडी पर गांवों में बसें भी नहीं चलतीं। कैसे आएगी ये वापस पेपर देने?’ नेहा के कुछ कहने से पहले ही जीजाजी ने दीदी को टोका। ‘पहली बार साली साहिबा के साथ होली खेलने का सुनहरा संयोग बना है और तुम इस पर रंग पोत देना चाहती हो।’ जीजाजी ने चुटकी लेते हुए नेहा की तरफ देखा और मुस्कुराये।नेहा ने भी सोचा कि बिना वजह आने-जाने में पढ़ाई का हर्जा होगा और अगर बसें नहीं चलीं तो वो अपना आखिरी पर्चा कैसे दे पायेगी। फिर अंत में यही तय हुआ कि नेहा गांव नहीं जाएगी। यूं तो नेहा को होली के रंगों से बहुत डर लगता था मगर शहर की होली देखने का उसका यह पहला अवसर था। सुना था यहां होली पर बहुत धमाल मचती है। स्त्री-पुरुष और बच्चे सब जोरदार ढंग से रंग खेलते हैं। नाचते-गाते और धमाल मचाते हैं। किसी को कितना भी रंग लगाओ कोई बुरा नहीं मानता। उसके गांव में तो लड़कियों और महिलाओं पर कोई रंग नहीं डालता। रिश्ते की भाभियों पर भी बहुत ही शालीनता से रंग लगाया जाता है। नेहा बहुत उत्साहित थी और कुछ डरी हुई भी। न जाने क्या होने वाला है इस बार होली पर। होली वाले दिन सुबह से ही घर में हलचल मची हुई थी। जीजाजी ने कई तरह के रंग इकट्ठे कर लिये थे। गीले और सूखे सभी तरह के.... भांग की ठंडाई बनाने की भी तैयारी चल रही थी। नेहा ऊपर कमरे में बैठी पढ़ाई कर रही थी मगर उसका आधा ध्यान नीचे हो रही गतिविधियों की तरफ लगा हुआ था।‘नेहा, मैं जरा मंदिर हो आती हूं, फिर होली के हुड़दंग में निकला नहीं जायेगा।’ दीदी नेहा को आवाज़ लगाती हुई बाहर निकल गई। उनके जाते ही जीजाजी ऊपर कमरे के दरवाजे पर आ खड़े हुए। ‘आज न छोड़ेंगे बस हमजोली खेलेंगे हम होली, चाहे भीगे तेरी चुनरिया चाहे भीगे रे चोली, खेलेंगे हम होली।’ जीजाजी ने बहुत ही अश्लील ढंग से गाने की ये पंक्तियां गुनगुनाईं तो नेहा सतर्क हो गई। उसकी छठी इन्द्रीय ने जैसे उसे संकेत दिया कि कुछ अप्रिय घटने वाला है। नेहा ने उन्हें नजरंदाज करते हुए पानी पीने का बहाना बनाया और नीचे की तरफ जाने लगी मगर जीजाजी ने उसकी कलाई पकड़ कर अपनी तरफ खींचते हुए कहा- ‘बच कर कहां जाओगी साली साहिबा... आज तो तुम्हारे अंग-अंग पर अपने हाथों से रंग लगाऊंगा।’ (क्रमश:)