लोकसभा चुनाव-2019 : भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए आसान नहीं मंज़िल

चुनावी साल शुरू हो चुका है, और पक्ष-विपक्ष ने अपनी-अपनी पेशबंदी शुरू कर दी है। दोनों तरफ से राज्य स्तर से लेकर देशव्यापी रणनीतियों के निर्माण का आगाज़ किया जा चुका है। अगर मीडिया मंचों पर हो रहे विमर्श पर जाएं तो पहली नज़र में 2019 की राजनीति के लिए दो संभावित नज़ारे दिखाई पड़ते हैं। पहला, विपक्ष और उसके समर्थकों ने मान लिया है कि जैसे ही उसके बीच सीटों का तालमेल हुआ, वैसे ही भाजपा की पराजय की घंटी बजनी शुरू हो जाएगी। दूसरा, भाजपा और उसके समर्थकों को पूरा विश्वास है कि विपक्ष के पास नरेंद्र मोदी जैसा कोई चेहरा नहीं है जो देश भर में लोकप्रिय हो, और साथ ही विपक्ष के पास राजनीतिक प्रबंधन करने वाला अमित शाह जैसा कोई व्यक्ति नहीं है जो पिछले चार साल में चुनाव दर चुनाव जिताता चला गया हो। यानी दोनों ही पक्ष अपने-अपने आरामदेह दायरों में संतुष्ट लग रहे हैं। राजनीतिक मत का सम्पूर्ण ध्रुवीकरण हो चुका है। निष्पक्षता का कोई मतलब नहीं रह गया है। विपक्ष कह रहा है कि उसकी मिली-जुली ताकत के सामने भाजपा का टिकना नामुमकिन है, और भाजपा कह रही है कि विपक्ष मिल कर भी उसे रोक नहीं पाएगा। मुझे तो लगता है कि दोनों ही पक्ष अपने-अपने मुगालतों में फंसे हुए हैं। वे किसी नई राजनीति का ़खाका पेश करने में असमर्थ हैं। इसलिए इन दोनों ही दावों पर निरासक्त भाव से कुछ विचार करना ज़रूरी है। विपक्ष का यह दावा केवल तकनीकी रूप से सही है कि वह आपस में जुड़ जाए तो उसके वोट भाजपा से ज़्यादा हो जाते हैं। पहली मुश्किल यह है कि यह महज एक परिकल्पना है। सभी प्रदेशों में और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के बीच तालमेल होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा द्वारा पिछले चार साल में की जाने वाली चप्पे-चप्पे में छा जाने वाली राजनीति से विपक्ष के कान खड़े हुए हैं और वह आपसी मतभेद भुला कर चुनावी तालमेल करने के मूड में आ गया है। फिर भी इसमें कई किंतु-परंतु हैं। मसलन, दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच तालमेल की संभावनाएं उत्तरोत्तर घटती जा रही हैं। दोनों पार्टियों के बीच कड़वाहट बढ़ती जा रही है। बावजूद इसके कि दोनों ही दल जानते हैं कि अगर तालमेल न हुआ तो भाजपा सातों सीटें एक बार फिर जीत लेगी। इसी तरह पश्चिम बंगाल है जहां तृणमूल कांग्रेस और अन्य ़गैर-भाजपा दलों के बीच कोई समझौता होना कल्पनातीत ही है। ममता बनर्जी की पार्टी मानती है कि वह अकेले ही सभी को पराजित कर देगी। इसलिए ममता राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाले किसी मंच पर आने के लिए तो आसानी से तैयार हो जाती हैं, लेकिन बंगाल में अपनी ज़मीन पर किसी के लिए कुछ भी छोड़ने का उनका कोई इरादा नहीं। तीसरी तऱफ ओडिशा है जहां अगर बीजू जनता दल और कांग्रेस के बीच किसी तरह की समझदारी नहीं निकली तो भाजपा का फायदे में रहना तय है। लेकिन कांग्रेस और बीजद ने तो अभी इस विषय में सोचना तक शुरू नहीं किया है। चौथी तऱफ बिहार है जहां अगर ़गैर-भाजपा ताकतों ने नितीश और भाजपा के बीच के मतभेदों और रणनीतिक रस्साकशी का समय रहते लाभ न उठाया तो केवल लालू की पार्टी, कांग्रेस और जीतन मांझी की पार्टी के गठजोड़ से भाजपा को परास्त नहीं किया जा सकता। विपक्ष को समझना चाहिए कि उसके पास समय तो है, पर बहुत ज़्यादा नहीं। अगर वह अभी से पेशबंदी कर लेगा तो अक्तूबर-नवम्बर में राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनावों के तुरंत बाद वह प्रदेश स्तरीय गठजोड़ों की डगर पर चल निकलेगा। वरना बहुत देर हो जाएगी। भाजपा क्या सोच रही है? ऐसा लगता है कि वह राष्ट्रवाद और आर्थिक रियायतों का एक मिश्रण बनाने के ज़रिये 2019 की कहानी तैयार करेगी और उसके आधार पर चुनाव लड़ा जाएगा। राष्ट्रवाद के लिहाज़ से उसने पहलकदमियां लेनी शुरू कर दी हैं। पहला कदम कश्मीर में पीडीपी के साथ गठजोड़ तोड़ कर उठाया गया, दूसरा कदम सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो क्लिप जारी करके उठाया गया और तीसरा कदम राम मंदिर के बारे में उसे हर कीमत पर बनाने की दावेदारियों के वक्तव्य जारी करके उठाया जा रहा है। राष्ट्रवाद के इस नैरेटिव के साथ अगर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा कर देने का फैसला जोड़ दिया जाए तो सत्तारूढ़ दल की रणनीति का एक खाका सामने आ जाता है। लेकिन विपक्ष की तरह भाजपा की यह आत्म-समझ भी परिकल्पनात्मक ही लगती है। मसलन, यह समझ केवल सकारात्मक पहलुओं पर ही ज़ोर देती है, और उसमें निहित नकारात्मक पहलुओं को नज़रअंदाज़ करने पर आधारित है। राष्ट्रवाद के ये तीनों मुद्दे घिसे-पिटे हैं और इनके ज़रिये सारे देश में राष्ट्रवादी उफान लाने की कोशिश उस स्तर पर सफल नहीं हो सकती, जिस पर उसकी कल्पना की जा रही है। इसी तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ने का मतलब होगा बाज़ार में खाद्यान्न की बढ़ी हुई खुदरा कीमतें यानी महंगाई। तेल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में पहले से ही बढ़ रही हैं। जो तेल साठ रुपए के आसपास आ गया था, वह 75 रुपए के आसपास बिक रहा है। दुनिया के बाज़ार में कमोडिटी (जिंस) दामों में भी बढ़ोतरी हो रही है। ये तीनों कारक चुनावी साल में महंगाई का कहर ढाएंगे जो भाजपा के लिए घातक साबित हो सकता है। चुनाव अध्ययन के हिसाब के मुताबिक गुजरात में ़गैर-भाजपा विपक्ष को करीब 13 ़फीसदी अतिरिक्त वोटरों को अपने पक्ष में झुकाना होगा, तब वह 26 में से 15 लोकसभा सीटें जीत पाएगा। अगर यह रुझान दस ़फीसदी तक रुक गया तो भाजपा को केवल सात सीटों का ही नुकसान होगा। इसी तरह राजस्थान में भी कांग्रेस को भाजपा को दस सीटों में समेटने के लिए कम से कम 15 प्रतिशत के अतिरिक्त समर्थन की उपलब्धि करनी होगी। मध्य प्रदेश में कांग्रेस केवल दो सीटें जीत पाई थी। वहां भाजपा उससे 20 ़फीसदी आगे थी। यानी कांग्रेस अगर मध्य प्रदेश में भाजपा का त़ख्ता पलटना चाहती है तो उसे कम से कम ग्यारह ़फीसदी का स्विंग हासिल करना होगा। फिलहाल तो यह दिखाई नहीं पड़ रहा है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इतना ज़बरदस्त स्विंग कांग्रेस कैसे हासिल करेगी। इसके लिए उसे स्थानीय छोटी पार्टियों से जो तालमेल करना होगा, उसकी सूरत अभी तक स्पष्ट नहीं है। ऊपर से बहुजन समाज पार्टी ़खुद को कांग्रेस से दूर रखने पर अड़ी हुई है। 
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के एक होने की सूरत में भाजपा 78 में से केवल 54 सीटें खो देगी। कर्नाटक में भाजपा ने पिछली बार 18 सीटें जीती थीं। अगर वहां जनता दल (से) और कांग्रेस एकजुट हो जाए तो भाजपा को ग्यारह सीटों का नुकसान हो सकता है। शायद उत्तर प्रदेश ही एक मात्र राजनीतिक ज़मीन है जहां विपक्ष की प्रमुख ताकतों के एकजुट होने की संभावनाएं सबसे मुखर हैं। फिर यह प्रश्न तो है ही कि क्या विपक्ष की मिली-जुली ताकत भी नरेंद्र मोदी के करिश्मे और अमित शाह के चुनाव प्रबंधन का मुकाबला कर पाएगी? इसका कुछ-कुछ जवाब मोदी सरकार के पांचवें साल में एंटी-इनकम्बेंसी (सरकार विरोधी भावनाएं) की उस आहट से मिल सकता है, जो अभी क़ाफी धीमी है, पर है ज़रूर। मसलन, सीएसडीएस-लोकनीति के राष्ट्रीय सर्वेक्षण में जब 19 राज्यों के वोटरों से 27 अप्रैल से 17 मई के बीच पूछा गया कि क्या वे मोदी सरकार को दोबारा चुनना चाहेंगे, तो उनमें से 47 ़फीसदी वोटरों ने विभिन्न कारणों से इंकार में जवाब दिया, और केवल 39 ़फीसदी ने हां में उत्तर दिया। यह आंकड़ा बताता है कि दोबारा चुनाव जीतने के लिए मोदी को कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। जैसे-जैसे विपक्ष का बिखराव कम होगा, वैसे-वैसे ये मुश्किलें और संगीन होती चली जाएंगी।