ज़रूरी तो नहीं....

नेहा ने मुश्किल से अपनी कलाई छुड़ाई और जरा धक्का देते हुए तेजी से सीढ़ियां उतर कर नीचे स्टोर की तरफ  भागी ताकि अपने आप को स्टोर में बंद कर सके मगर जीजाजी भी उसके पीछे-पीछे दुगुनी तेजी से नीचे आ गए। वो दरवाजा बंद करने ही वाली थी कि जीजाजी ने चौखट पर अपना पैर रख दिया। ‘साली जी इतनी भी क्या जल्दी है दरवाजा बंद करने की। जरा हमें भी तो अन्दर आने दो... फिर कर लेना बंद...’ कहते हुए उन्होंने स्टोर का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। जैसे ही जीजाजी रंग ले कर उसके पास आये उसने सहमी हुई हिरनी की तरह अपने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढांप लिया और घुटनों में मुंह छिपा कर ज़मीन पर बैठ गई। जीजाजी ने बलपूर्वक उसके हाथों को चेहरे से हटाया और गालों पर जोर से रगड़ते हुए गुलाल मल दिया। उसके बाद धीरे-धीरे उनके हाथ उसके पूरे शरीर को टटोलने लगे। 
नेहा को लगा मानों सैकड़ों कोकरोच उसके शरीर पर रेंग रहे हों। उसे घिन सी आने लगी, वो चिल्लाई- ‘बस कीजिये... छोड़िये मुझे... मगर जीजाजी कहां मानने वाले थे... वे तो मानो वहशी बने हुए थे। नेहा को आज अपनी लाज लुटती सी लगी। वह और जोर से चिल्लाई मगर घर में था ही कौन जो उसकी आवाज सुनता। तभी सीमा दीदी की आवाज सुनाई दी- ‘नेहा! कहां हो तुम?’ शायद वो उसे कमरे में न पा कर ढूंढ रही थी। जीजाजी तुरंत स्टोर का दरवाजा खोल कर बाहर निकल गए। नेहा वहीं घुटनों में मुंह छिपाए सिसकती रही। दीदी उसे ढूंढती हुई नीचे आई तो उसकी हालत देख कर स्तब्ध रह गई। मगर शायद सब कुछ समझ भी गई थी। चुपचाप नेहा को सीने से लगा कर दिलासा देती रही।
‘मैं बहुत शर्मिंदा हूं नेहा! तुम्हें अपने घर में सुरक्षा नहीं दे पाई। मुझे माफ कर देना मेरी बहन... एक अहसान और करना मुझ अभागिन पर। इस घटना को हादसा समझ कर भूल जाना... किसी से भी इसका जिक्र मत करना... यही हम सब के हित में होगा।’ सीमा दीदी ने अनुनय की। उसके बाद पूरे दिन नेहा कमरे से बाहर नहीं आई और अगले दिन सुबह जीजाजी के जागने से पहले ही अपना आखिरी पेपर देने स्कूल चली गई और फिर वहीं से सीधे गांव चली गई। तब से आज तक वह सीमा दीदी और जीजाजी से दुबारा नहीं मिली। धीरे-धीरे वक्त के साथ मन के घाव तो भरते गए मगर खरोंचो के छूटे हुए निशानों ने उसे आज तक उस काली होली को भूलने नहीं दिया। वक्त ने एक बार फिर नेहा को वैसे ही हालातों के जंगल में खड़ा कर दिया। तो क्या फिर से इतिहास अपने आप को दोहराने वाला है... चाय उबलते-उबलते सूख गई। जब पतीला जलने की गंध आई तो रवि ने आ कर उसे झिंझोड़ा- ‘क्या हुआ, कहां खो गई?’‘कुछ नहीं...’ कहते हुए नेहा ने फिर से चाय का पानी गैस पर चढ़ा दिया। रिया नेहा की छोटी बहन... बेहद चुलबुली और शरारती है मगर उतनी ही मासूम भी.... होली के दो दिन पहले ही उसके ससुराल आ गई। दोनों जीजा साली का उत्साह देखते ही बनता था। दोनों ने रंग, गुलाल, पिचकारी और न जाने क्या-क्या खरीददारी कर डाली थी। कुछ एक-दूसरे के साथ तो कुछ एक दूसरे के लिए सरप्राइज। ज्यों-ज्यों होली का दिन नजदीक आ रहा था किसी अनिष्ट की आशंका से नेहा की घबराहट भी बढ़ती जा रही थी। होली दहन के तुरंत पश्चात् रवि ने नेहा के माथे पर गुलाल का टीका लगाया और शेष गुलाल रिया की तरफ  शरारत से उछाल दिया मानो उसे होली खेलने का निमन्त्रण दे रहा हो। रिया ने भी शरमा के उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया था। नेहा की चौकस निगाहें रवि के हाव-भाव और व्यवहार पर निरंतर लगी हुई थी।