खजुराहो से कम नहीं है ओसियां का शिल्प वैभव

ओसियां का सबसे महत्वपूर्ण व चर्चित मंदिर गुर्जर-प्रतिहार राजा वत्सराज के शासनकाल में 700-800 ईस्वी शताब्दी के दरम्यान जैन व्यापारियों ने निर्मित करवाया था। जैन मंदिर को किसी एक व्यापारी ने नहीं बल्कि कइयों ने उदारतापूर्वक दान इच्छा शक्ति से बनवाया था। मंदिर के निर्माण में मूर्ति की प्रतिस्थापना, तोरणद्वार निर्माण, छोटे मंदिर आदि का निर्माण योजनाबद्ध तरीके से किया गया। सम्पूर्ण मंदिर वास्तु एवं मूर्तिकला की शैली की एक सुदीर्घ विकास यात्रा का साक्ष्य प्रस्तुत करता है, जिसमें वास्तु की दृष्टि से महाणक एवं महागुर्जर शैली की झलक भी प्रस्तुत करता हैं। पीले पत्थर से निर्मित यह मंदिर परकोटे के भीतर एक विस्तृत जगती पर निर्मित है। मुख्य भाग नवीं-दसवीं शताब्दी में मंदिरों के सम्मुख तोरणद्वार बनाने की परम्परानुसार ही बनाया गया था, जो कालान्तर में ध्वस्त हो गया था। लेकिन उसके अवशेष मंदिर में रखे हुए हैं। ध्वस्त तोरणद्वार के स्तम्भों में पश्चिमी भारतीय वास्तुशैली के गढ़नों को देखा जा सकता है। गढ़ने में कई मूर्तियां हैं, जिनमें जिन व महावीर स्वामी की भी है। स्तम्भ के ऊपरी भाग में सोलह भुजाएं हैं, जिसके चारों तरफ विद्याधरों की मूर्तियां हैं। स्तम्भ के ऊपरी गोल भाग पर ग्रास पट्टिकाएं उत्कीर्ण हैं, जिन पर नृत्यरत संन्यासियों व स्त्रियों की आकृतियां हैं। जैन मंदिर का आसन संधार जैसा है व एक भीतरी दीवार के गूढ़मंडप से जुड़ा हुआ है व इसके आगे मुखमंडप है। सुख चतुष्की के सामने से थोड़ा हटकर एक तोरण है व दो-दो देवकुलिकाएं दोनों पार्श्वों में हैं। मूल प्रासाद के दोनों ओर व पीछे एक भ्रमन्तिका बनी हुई है। मूल मंदिर के भीतर भी अनेक मंदिर व गढ़ने हैं जिनकी ताखों पर कुबेर, लक्ष्मी, वायु, मिथुन, इन्द्र, अग्नि, यम, उत्कीर्ण हैं। गुढमंडप के ऊपर त्रिस्तरीय स्तूपाकार छत है, जिसके प्रस्तुत पर गंगा-यमुना की आकृतियां उत्कीर्ण की गई हैं। मंदिर के मुखमंडप व इसमें प्रयुक्त सभी स्तम्भों पर लगभग घट-पल्लव अलंकरण कारीगरी की कुशलता का परिचय देती है। 
मंदिर के मुख्य प्रासाद के दोनों हिस्सों (पूर्व व पश्चिम) की ओर मुख किए दो-दो देवकुलिकाएं बनी हुई हैं। ये देव कुलिकाएं मंदिर का ही लघु प्रतिरूप हैं, जिनमें तीर्थंकरों की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। मंदिर के मूल गर्भगृह में भगवान महावीर की स्वर्ण-लेपन प्रतिमा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि राजा उपलदेव के मंत्री उहड़ ने जब ओसियां में महावीर जिनालय को बनवाना शुरू किया तो उसकी गाय के दूध से देवी सच्चियाय माता के प्रताप से बालू रेत में भगवान महावीर की मूर्ति का निर्माण हो रहा था। मंत्री उहड़ की गाय, घर में दूध न देकर एक ‘केर’ के पेड़ के नीचे प्रतिदिन उसके स्तनों से दूध झरता था। इस रहस्य को जानने के लिए जब रेत खोदी गई तो मूर्ति पूरी तरह से निर्मित नहीं हो पाई थी। भगवान महावीर के निर्वाण के 70 वर्ष बाद मार्गशीर्ष शुक्ल 5 गुरुवार को आचार्य रत्नप्रभसूरी ने इस प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की थी। महावीर स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा के बाद जब आचार्य अपने शिष्यों के साथ ओंसियां से चले गये तभी एक यक्ष ने यहां उत्पात मचाना शुरू कर दिया तथा जैनों को सताना शुरू कर दिया, और यहां के लोगों ने रत्नप्रभ सूरी जी को उपद्रव शांत कराने हेतु प्रार्थना की तो उन्होंने अपने शिष्य वीरधवल को भेजा, जिन्होंने यथा का उपद्रव शांत कर दिया लेकिन यक्ष को अमरत्व प्रदान करने हेतु वीरधवल का नाम यक्ष सूरीश्वर रख दिया जो बाद में इसी नाम से विख्यात हुए। जैन मंदिर में आज भी यक्ष प्रतिमा विराजित है। जैन मंदिर का संवत् 1936 से 1951 तक जीर्णोद्वार बड़े पैमाने पर कराया गया। जैन धर्म की आस्था का केन्द्र ओसियां विभिन्न धर्मों का समागम बन गया है, जहां विभिन्न सम्प्रदायों के मंदिर है, इसलिए इस नगर को त्रिवेणी भी कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। महावीर जैन मंदिर से सटे जैन विद्यालय की नींव खुदाई के दौरान एक पात्र में बड़ी संख्या में अरब गवर्नर अहमद की चांदी की मोहरें मिली हैं। इसके अलावा भी इस क्षेत्र में की गई खुदाई के समय मिट्टी की बड़ी-बड़ी मूणें (घड़े) मिले हैं, जिनके मुंह पर गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि के अभिलेख हैं, जो तीसरी या चौथी शताब्दी में बने होने का प्रमाण देते हैं। इन मूणों में से कुछ मंदिर में भी रखी हुई हैं। कुल मिलाकर कला व शिल्प की दृष्टि से समृद्ध ओसियां नगर व इसकी कला तथा पाषाणों पर उत्कीर्ण बेहतरीन घड़ाइयों को देखने के लिए प्रतिदिन बड़ी संख्या में देश-विदेश के सैलानी आते हैं।


—चेतन चौहान
महामंदिर गेट के निकट जोधपुर (राजस्थान) 342010