भारत में संभव नहीं हैं लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव

लोकसभा और राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होने को लेकर चल रही चर्चा रुकने का नाम नहीं ले रही है, जबकि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक साथ चुनाव हमेशा हो पाना संभव ही नहीं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद इसकी चर्चा शुरू की थी। निर्वाचन आयोग से पूछा गया था। निर्वाचन आयोग ने कहा कि उसे एक साथ चुनाव कराने में कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन इसका फैसला वह नहीं ले सकता।अब विधि आयोग इस पर चर्चा करा रहा है। उसने एक सर्वदलीय बैठक भी बुलाई, जिसमें न तो कांग्रेस ने शिरकत की और न ही भारतीय जनता पार्टी ने। कुल 14 राजनीतिक दल उस चर्चा में शामिल हुए और उनमें से चार ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि 10 ने इसका विरोध किया। समर्थन करने वालों का अपना अपना स्वार्थ था। समाजवादी पार्टी ने इस प्रस्ताव का समर्थन इसलिए किया, क्योंकि उसे लगता है कि उत्तर प्रदेश में भी 2019 में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा का चुनाव हो जाय, तो बहुत अच्छा। जनता दल(यू) ने इसका समर्थन किया, क्योंकि नितीश कुमार को लगता है कि यदि लोकसभा के साथ ही बिहार विधानसभा के चुनाव हुए तो विधानसभा में वे बड़े भाई की भूमिका में तो स्वीकार कर ही लिए जाएंगे, चाहे भले ही लोकसभा चुनाव का चेहरा नरेन्द्र मोदी हों। लेकिन यह प्रस्ताव पूरी तरह अव्यवहारिक है, क्योंकि भारत में लोकतंत्र का जिस तरह से विकास हुआ है, वह ऐसा करने की अनुमति नहीं देता। सच तो यह है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही 1951-52 में हुए थे। 1957 के चुनाव भी साथ-साथ ही हुए थे। 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ साथ ही हुए थे। यह दौर कांग्रेस के एकदलीय शासन का दौर था। लेकिन 1967 में देश की राजनीति से कांग्रेस का एकाधिकार समाप्त हो गया और अनेक राज्यों की विधानसभाओं में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारें बनीं। कुछ विधानसभाएं अपना कार्यकाल पूरा हुए बिना ही भंग हो गईं, क्योंकि एक समय ऐसा आया था कि उसके तहत कोई सरकार नहीं बन पाती थी। इसके कारण कुछ विधानसभाओं के मध्यावधि चुनाव भी हुए। खुद लोकसभा का मध्यावधि चुनाव 1971 में हुआ, जबकि 1967 में 1972 तक के लिए उसे चुना गया था। यानी 1967 के बाद साथ-साथ चुनाव कराने का दौर समाप्त हो गया। एक पार्टी के एकाधिकार समाप्त होने के बाद ऐसा होना ही था। राजनीतिक अस्थिरता भी भारतीय लोकतंत्र की एक संभावना है और अस्थिरता के दौर को चुनाव के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है। चुनाव के पहले विधानसभा सभा या लोकसभा को वैसी हालत में भंग भी करना पड़ेगा। फिर तो प्रत्येक राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण ही वहां चुनाव होंगे, न कि कोई व्यक्ति यह तय करेगा कि चुनाव कब हो। अब यदि मान लिया जाये कि 2019 में लोकसभा के साथ-साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव करा दिए जाते हैं और यदि त्रिशंकु होने के कारण लोकसभा 2020 में ही भंग हो जाती है, तो क्या फिर अन्य सभी राज्यों की विधानसभाओं को भंग कर दिया जाना चाहिए, ताकि उनके चुनाव भी लोकसभा के साथ-साथ 2020 में करा दिए जाएं?  ऐसा कोई कम अक्ल वाला व्यक्ति ही सोच सकता है। बात सिर्फ  लोकसभा और विधान सभाओं के बीच की ही नहीं। हो सकता है कि कुछ विधानसभाएं त्रिशंकु हों और वह अपना कार्यकाल पूरा करने के पहले ही सरकार न देने के कारण गिर जाएं, तो क्या उसके साथ-साथ अन्य विधानसभाओं और लोकसभा का चुनाव करवा दिया जाना चाहिए या उस राज्य में विधानसभा की पूर्व निर्धारित 5 साल की अवधि पूरी होने तक राष्ट्रपति शासन लागू रहेगा? जाहिर है, भारतीय लोकतंत्र इस बात की इजाजत ही नहीं देता कि हम यह तय कर दें कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हमेशा एक साथ ही कराएं। यह संभव ही नहीं है। खासकर भारत की बहुदलीय व्यवस्था में संभव नहीं है। हां, यह तब संभव है जब देश में एकदलीय व्यवस्था हो और उस दल के सदस्य ही वोटर हों, जैसा कि कम्युनिस्ट देश चीन में है। पर भारत में चीन जैसी व्यवस्था नहीं है। भारत एक संघीय गणतंत्र है। यहां राज्यों के चुनाव ज्यादातर मामले में राज्यों के मुद्दे पर लड़े जाते हैं और लोकसभा के चुनाव मुख्य तौर पर राष्ट्रीय मुद्दे पर लड़े जाते हैं, हालांकि सच यह भी है कि राज्यों के चुनावों में भी राष्ट्रीय मुद्दे उठते हैं और लोकसभा के चुनाव में भी कहीं-कहीं क्षेत्रीय मुद्दे प्रबलता से उठते हैं, लेकिन ऐसा पूरे देश में एक साथ नहीं होता। सवाल उठता है कि इस पर चर्चा कराने में नरेन्द्र मोदी की मंशा क्या है? कहने को तो वे कह रहे हैं कि इससे पैसे की बचत होगी और देश हमेशा चुनाव के मोड में नहीं रहेगा। इस समय हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं और चुनावों के कारण केन्द्र सरकार को कड़े निर्णय लेने से परहेज करना होता है। पर सवाल उठता है कि क्या पैसा बचाने के लिए हम लोकतंत्र को ही कुर्बान कर देंगे? जहां तक लोकप्रिय निर्णयों के लिए सरकार चुनाव के कारण विवश होती है, तो यही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है कि सरकार चलाने वाले लोग हमेशा जनता की आकांक्षाओं के दबाव के तहत ही काम करें और जन कल्याण करते रहें। इसका मतलब है कि सरकार पांच साल तक जनता को ठेंगे पर रखकर सरकार चलाना चाहती है। इस तरह की मंशा पालना भी अलोकतांत्रिक है। सरकार को प्रति दिन प्रति पल जनता को ध्यान में रखकर ही अपना निर्णय लेना लोकतंत्र की मांग है और किसी भी पार्टी को चुनाव लड़ने से कभी नहीं डरना चाहिए। सबकी कीमत होती है। लोकतंत्र भी मुफ्त में उपलब्ध नहीं होता। उसकी कीमत भी हमें चुकानी पड़ेगी और लोकतंत्र की आत्मा यानी चुनाव के प्रति हमें सम्मान का भाव रखना चाहिए, न कि उससे डरना चाहिए। एक साथ चुनाव कराने की चर्चा कर हम एक व्यर्थ की कुश्ती कर रहे हैं, जिसका कोई नतीजा निकलना नहीं है। (संवाद)