मानसून सत्र-अखाड़ा न बने संसद

मानसून सत्र को गर्माए रखने के लिए कांग्रेस समेत लगभग समूचे विपक्ष ने अपने-अपने हथियार भांज लिए हैं। गोया, यह आशंका कायम है कि विपक्षी दल संसद को ठप बनाए रखने में ही अपना समय जाया करेंगे।  नतीजतन एक बार फिर बजट सत्र की असफलता की पुनरावृत्ति हो सकती है। इसके दुष्परिणाम यह निकलेंगे कि सत्तारूढ़ राजग बिना बहस के ही लोकसभा से अपनी मनपसंद के विधेयक पारित करा सकता है। बजट सत्र में इसी हंगामे के दौरान वित्त विधेयक बिना किसी विचार-विमर्श के पारित करा लिया गया था। इसी कारण बीते सत्र में दोनों सदनों में कोई उल्लेखनीय कामकाज नहीं हो पाया था। टीडीपी ने संसद को ठप बनाए रहने की पृष्ठभूमि नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के फैसले के साथ ही रच दी है। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की अध्यक्षता में टीडीपी संसदीय दल की बैठक में यह फैसला लिया गया है। जबकि इस प्रस्ताव का गिरना तय है। बावजूद हठधर्मिता के ये उपाय केवल इसलिए किए जा रहे हैं, जिससे विधायी कामकाज का सिलसिला ठीक से शुरू ही न होने पाए ? विपक्ष के कुछ अन्य दल भी इस प्रस्ताव के समर्थन में आ सकते हैं। बहरहाल 18 कार्य दिवस के इस सत्र में सरकार ने 18 विधेयकों को संसद के पटल पर पेश करने के लिए सूचीबद्ध किया है। तृणमूल कांगेस ने सत्र की अवधि छोटी रखने पर भी सवाल उठाए हैं। अलबत्ता सुचारु रूप से काम हो तो यह अवधि भी विधेयकों के प्रारूप पर बहस-मुबाहिसा के लिए कम नहीं है।  सरकार ने इस सत्र में 18 विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित कराने के लिए सूचीबद्ध किए हैं। इनमें से 9 विधेयक लोकसभा से पारित हो चुके हैं। चूंकि लोकसभा में राजग स्पष्ट बहुमत में है, इसलिए वह हो-हल्ला के बीच भी विधेयक पारित कराने में सफल हो जाती है। लोकसभा से पारित विधेयक हैं, व्हिसल ब्लोवर्स संरक्षण (संशोधन) विधेयक-2015, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग विधेयक-2017, द इंडियन इंस्ट्रीट्यूट ऑफ मेनेजमेंट विधेयक-2017, भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक-2013 और नागरिकता अधिकार विधेयक-2016। ये विधेयक अब राज्यसभा से पारित होने हैं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग विधेयक सरकार पिछले सत्रों में अपने ही सांसदों की लापरवाही से पारित नहीं करा पाई है। केंद्र सरकार इस आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के लिए 123वां संविधान संशोधन विधेयक पारित कराना चाहती है, जैसे कि अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग और अल्पसंख्यक आयोग हैं। भाजपा के पास जदयू के सदस्य मिलाकर  राज्यसभा में इतनी सदस्य संख्या थी कि यदि सभी सांसद राज्यसभा में उपस्थित रहते तो विधेयक पारित हो जाता, लेकिन सांसदों की अनुपस्थिति में सरकार की मंशा पर पानी फेर दिया। इन विधेयकों के अलावा विश्व विद्यालय अनुदान आयोग 1951 को खत्म कर जो भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचआईसीआई) विधेयक लाया जा रहा है, उसे भी बहस का मुद्दा बनाया जा सकता है। क्योंकि सरकार अभी तक यह तय नहीं कर पाई है कि विवि एवं महाविद्यालयों को अनुदान देने का अधिकार किसके पास होगा ? तीन तलाक, प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी विधेयक-1990, राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय विधेयक-2017, वित्तीय समाधान और जमा बीमा (एफआईआर) विधेयक-2017 और पूर्वोत्तर परिषद् (संशोधन) विधेयक-2013 को वापिस लेने के लिए सूचीबद्ध किया गया है। इनमें सबसे गरम बहस तीन तलाक विधेयक पर होनी है।   सरकार तीन तलाक की तरह ईसाई दंपतियों से जुड़े डेढ़ सौ साल पुराने कानून में संशोधन के भी मूड में है। ईसाई समुदाय इसमें संशोधन की मांग अर्से से कर रहा है। हालांकि फिलहाल यह प्रस्ताव केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूर नहीं हुआ है। विधि मंत्रालय के प्रस्ताव के अनुसार आपसी सहमति से तलाक के लिए आवेदन दाखिल करने वाले ईसाई दंपतियों को अर्जी लगाने से पहले अलग-अलग रहने की अवधि को मौजूदा दो साल से कम करके एक साल करने के लिए तलाक अधिनियम 1869 में संशोधन किया जाना है। दरअसल हिंदू विवाह अधिनियम, पारसी और विशेष विवाह अधिनियमों में यह अवधि एक साल है। इस संशोधन का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था। ईसाई समुदाय के सदस्यों की मांग की पृष्ठभूमि में कानून मंत्रालय ने अलग रहने की अवधि को कम करने का प्रस्ताव रखने का फैसला किया है।लेकिन विधेयकों पर मुनासिब बहस करने से इतर संसद में उन मुद्दों पर ज्यादा हुल्लड़ होने की आशंका है, जिन पर नीतिगत एक राय बनाना संभव नहीं है। इनके अलावा कश्मीर में हिंसा, पाकिस्तानी सेना के साथ युद्ध जैसे हालात और घाटी में जिदंगी सामान्य कैसे हो, ये मुद्दे छाये रह सकते हैं। यदि संसद में राजनीतिक गतिरोध बना रहता है और संसद अखाड़े में तबदील होती रही तो उन विधेयकों और अधिनियमों पर बारीकी से बहस संभव नहीं है, जो देश की सवा सौ करोड़ जनता की भलाई व नियमन के लिए कानून बनने जा रहे हैं ? सांसद का दायित्व भी यही बनता है कि वह विधेयकों के प्रारूप का गंभीरता से अध्ययन करे, जिससे यह समझा जा सके कि उसमें शामिल प्रस्ताव देश व जनता के हित से जुड़े हैं अथवा नहीं ? लेकिन राज्यसभा और लोकसभा का यह दुर्भाग्य है कि ज्यादातर सांसद अधिनियम के प्रारूप पर चर्चा करने की बजाय, ऐसे मुद्दों को बेवजह बीच में घसीट लाते हैं, जिनसे उनकी क्षेत्रीय राजनीति चमके। ऐसी स्थिति सत्तारूढ़ सरकार के लिए लाभदायी होती है, क्योंकि वह बिना किसी बहस-मुबाहिसे के ही ज्यादातर विधेयक पारित करा लेती है। जबकि विपक्ष सार्थक बहस करने की बजाय गाहे-बगाहे सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में लगा रहकर संसद का समय जाया कर देता है। प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा की दृष्टि से यह स्थित देशहित में कतई नहीं है। इस लिहाज से सत्तारूढ़ सरकार और दल का कर्त्तव्य बनता है कि वह राजनीतिक गतिरोध का समाधान, राजनीतिक तौर-तरीकों से ही निकाले। 

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