पंचायती संस्थाओं की सार्थकता


पंजाब सरकार की ओर से पंचायती संस्थाएं भंग करके  उनके स्थान पर प्रशासक नियुक्त करने की घोषणा कर दी गई है। आगामी कुछ महीनों में पंचायतों, पंचायत समितियों एवं ज़िला परिषदों के चुनाव होने हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार इस हेतु प्रबंध कर लिए गए हैं तथा इस संबंध में सूचना प्रदेश के चुनाव आयोग को भेज दी गई है। यह बहुत बड़ा कार्य है, जिसे नियोजित ढंग के साथ सम्पन्न किया जा सकता है। पंजाब में मौजूदा कांग्रेस सरकार के समय इस स्तर पर यह पहला चुनाव होने जा रहा है, जिसके साथ लाखों लोग जुड़े हुए हैं। 
इस समय लगभग 13 हज़ार पंचायतें हैं, लगभग 150 पंचायत समितियां तथा 22 ज़िला परिषद् हैं। इन तीन स्तरीय संस्थाओं का कार्य एक-दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है, इसलिए  इन तीनों संस्थाओं के चुनाव एक साथ करवाए जा सकते हैं। पिछले 10 वर्ष तक अकाली-भाजपा सरकार का शासन रहा है। उस समय के दौरान अधिकतर यह प्रभाव बना रहा कि इन संस्थाओं पर अकालियों का कब्ज़ा है। अब सरकार की इच्छा अनुसार प्रबंधक लगाए जाने से यह ़गलबा खत्म हो जाएगा। चाहे पंचायती राज को लागू हुए 25 वर्ष से अधिक का समय हो गया है। इस संबंध में कानून में समय-समय पर कई प्रकार के संशोधन भी किए गए हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य निचले स्तर तक गांवों के लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ जोड़ना एवं स्थानीय मामलों को हल करने में उनकी शमूलियत करवाना था। इस दृष्टिकोण से यह व्यवस्था बहुत बढ़िया है, परन्तु अब तक इसकी भावना के अनुसार क्रियान्वयन नहीं हो सका। अभी भी इस समूची व्यवस्था पर अफसरशाही ही हावी है। प्रांतीय सरकार ने भी एक प्रकार से इसे अपनी जकड़न में लिया हुआ है। केन्द्र की ओर से प्रदेश सरकारों को जो भी अनुदान गांवों के विकास के लिए मिलते हैं, उनको खर्च करने में सरकारी अधिकारियों की शमूलियत भी होती है इसलिए सरकार का दबदबा बना रहता है। स्थानीय मामलों जैसे कि शामलात ज़मीनों की सार-सम्भाल, जौहड़ों की साफ-सफाई, गलियों एवं नालियों को पक्का करना, समूचे तौर पर अपने क्षेत्र का विकास, खेलों एवं स्कूलों आदि के प्रबंध में पंचों-सरपंचों की शमूलियत ज़रूरी होती है। पंचायती संस्थाओं को और लोकतांत्रिक बनाने के लिए कानून में एक संशोधन करके इनमें 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व महिलाओं को दिया गया था। परन्तु बड़े स्तर पर इस संशोधन के अंतर्गत अनुमानित लक्ष्य पूर्ण नहीं किए जा सके। अधिकतर रिश्वतखोरी एवं राजनीतिक हस्तक्षेप भी इस कानून की भावना को नुक्सान पहुंचाते हैं।
अनेक बार मिलने वाली अनुदान राशियों को अधिकारी  सरपंचों के साथ मिल कर खा-पी जाते हैं। यहां तक कि केन्द्र की ओर से शुरू की गई मनरेगा जैसी योजनाओं का भी पंजाब पूरा लाभ नहीं उठा सका, क्योंकि यहां की पंचायती व्यवस्था को सशक्त एवं स्वस्थ नहीं बनाया जा सका। चाहे पंचायतों  के चुनाव राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह पर नहीं लड़े जाते, परन्तु पंचायत समितियों एवं ज़िला परिषदों के चुनावों में राजनीतिक पार्टियों के चुनाव चिन्ह प्रयुक्त किए जाते हैं। इसका एक नकारात्मक पक्ष यह उजागर हुआ है कि ग्रामीण धरातल तक आपसी खींचतान, पार्टीबाज़ी एवं झगड़े बढ़े हैं। महिलाओं की 50 प्रतिशत की शमूलियत की बात इसलिए प्रभावी सिद्ध नहीं हो सकी, क्योंकि महिलाओं के नाम पर अब भी अधिक कार्य उनके मर्द पति ही करते हैं। अधिकतर पंच-सरपंच शिक्षित न होने के कारण भी निर्धारित लक्ष्यों तक पहुंचने में असमर्थ होते हैं। हरियाणा सरकार ने इस संबंध में एक अच्छा फैसला लिया है कि इन संस्थाओं के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की न्यूनतम शिक्षण योग्यता का एक पैमाना अवश्य होना चाहिए। हरियाणा सरकार अपने इस निर्धारित लक्ष्य में सफल हो गई है। 
अभी से ही इन चुनावों की पार्टी स्तर पर तैयारियां शुरू हो गई हैं, जिनसे गुटबाज़ी और बढ़ने की सम्भावना पैदा हो गई है। चाहिए तो यह कि आज जिन चुनौतियों में से प्रदेश गुज़र रहा है, उन्हें देखते हुए आदर्श पंचायतें अस्तित्व में आएं, जो प्रदूषण की रोकथाम में अपना योगदान डाल सकें, नौजवानों में नशे की लत को घटा सकें, रिश्वतखोरी की लाहनत को दूर करके मिलने वाली ग्रांटों को सही ढंग से गांवों के विकास हेतु इस्तेमाल कर सके। चाहे व्यक्त की गई इन भावनाओं को आदर्श ही कहा जा सकता है, परन्तु पंजाब को प्रत्येक दृष्टिकोण से पुन: स्वस्थ एवं ताज़ा दम करने के लिए निचले स्तर पर ऐसी प्रतिबद्धता का होना बहुत ज़रूरी है। इसलिए हमारी राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों से यह अपील है कि वे इन चुनावों को ऐसी स्वस्थ भावना के साथ ही ग्रहण करें ताकि अपने प्रदेश को पुन: धड़कता हुआ देखा जा सके। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित बनाया जाना चाहिए कि पंचायती संस्थाओं के आगामी चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष ढंग से सम्पन्न हों तथा इनमें नशों का इस्तेमाल भी न किया जाए। 
-बरजिन्दर सिंह हमदर्द