दलित नौजवानों में वर्ग संघर्ष संबंधी बढ़ रही है चेतना


दलित राजनीति के बदल रहे स्वरूप और स्वभाव से ब़ेखबर आर.एस.एस. और इसके अग्रणी संगठन अभी भी दलितों को हर समय नीचा दिखाने की पुरानी रणनीति को ही आगे बढ़ा रहे हैं। उनका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस कथन कि दलित हिन्दू समाज का अभिन्न अंग हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए, को भी मानने से इन्कार करना यह साबित करता है कि संघ परिवार के सदस्य दलितों के प्रति सम्मान की कोई भावना नहीं रखते।
संघ के केडरों और रक्षकों आदि द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह की तरफ ध्यान न देना इस तथ्य को भी उभारता है कि प्रधानमंत्री अपनी पहुंच में संजीदा नहीं हैं। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि उनके चार वर्ष के शासन काल के दौरान दलितों पर अत्याचार और भीड़ द्वारा मारपीट किए जाने की घटनाओं में लगातार बढ़ौतरी हुई है। ऐसा भी नहीं है कि संघ के ‘थिंक-टैंक’ और विचारक देश के दलितों में आ रहे नये उभार, जोकि प्रतिबिम्बित और दर्शन-शास्त्री किस्म का है, से अन्जान हैं। बात वास्तव में और ही है : आर.एस.एस. के ‘थिंक-टैंक’ इस बदलाव और इसके प्रभावों के गहरे अर्थ समझ सकने में नाकाम रहे हैं। यही कारण है कि वह इसका मुकाबला करने के लिए ठोस रणनीति नहीं बना सके। वह अभी भी पुरानी किस्म की जगीरू राजनीति और अत्याचार व दमन के पुराने पैंतरों से ही चिपके हुए हैं।  अगर ऐसा न होता तो भोपाल में एक 30 वर्षीय दलित को सिर्फ इस बात को लेकर मारपीट की घटना न घटित होती कि वह सरपंच के घर के आगे से मोटरसाइकिल पर सवार होकर क्यों गुज़रता है। दया राम अहीरवार नामक इस व्यक्ति ने पुलिस के पास दर्ज शिकायत में बताया कि सरपंच, जो जाति का कुर्मी है, उसके भाइयों और एक अन्य पड़ोसी द्वारा 21 जून वाले दिन उससे गम्भीर मारपीट की गई। आरोपियों का कहना था कि वह उनके घरों के सामने से गुज़रते समय मोटरसाइकिल पर सवार होकर नहीं बल्कि इसको धकेल कर गुज़रे। एक अन्य घटना में गुजरात में एक हज़ाम से सिर्फ इस कारण मारपीट की गई क्योंकि वह दलितों के बाल क्यों काटता है। जिगर नामक इस हज़ाम को 10 दिन पूर्व चेतावनी दी गई थी कि वह अपनी दुकान पर दलितों की हज़ामत आदि न करे। परन्तु जिगर ने इस धमकी की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। जिसके बाद उससे मारपीट की गई। यह घटना गुजरात के मेहसाना ज़िले की मतलासना तालुका के गांव उपरेचा में घटित हुई और इस मामले में ऊंची जाति के चार व्यक्तियों के खिलाफ केस दर्ज किया गया है।
इस माह के शुरू में 13 वर्ष के एक दलित लड़के को ऊंची जाति के पांच व्यक्तियों द्वारा इस ‘कसूर’ कारण पीटा गया था कि वह ‘दरबार’ (एक ऊंची जाति) की तरह दिखने की कोशिश करता है, क्योंकि उसने राजवाड़ी मोजारी (पारम्परिक जूती)और सोने की मोटी चेन पहनी हुई थी, जोकि आम तौर पर ऊंची जाति वाले पहनते हैं। जगीरू और ऊंची जाति के लोगों द्वारा दलितों और दबे-कुचलों को अपमानित और पीड़ित करने की घटनाएं हमेशा से ही घटित होती रही हैं। परन्तु पिछले कुछ वर्षों से दलित अपनी पहचान पर योजनाबद्ध हमले होते देख  रहे हैं। दलितों के ़िखलाफ होते अपराधों के मामलों की ओर नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है कि दलितों की मौजूदा पीढ़ी, खास तौर पर नौजवान पीढ़ी, इनको जाति टकराव या जातीय हिंसा के रूप में नहीं देखती। इस हिंसा की प्रकृति में एक बड़ा बदलाव आ चुका है। दलितों को यह एहसास होना शुरू हो गया है कि यह वास्तव में वर्ग संघर्ष के प्राथमिक तत्व हैं। इसलिए, स्वाभाविक तौर पर दलित विरोधी हिंसा के प्रभावों  व परिणामों को गम्भीरता से विचारे जाने की आवश्यकता है। नौजवान एक नया दृष्टिकोण हासिल कर रहे हैं और साक्षरता और पढ़ाई-लिखाई के महत्त्व से पूरी तरह सुचेत हैं। वह संचार और सकारात्मक कार्रवाई के महत्त्व को भी समझते हैं। विगत चार-पांच वर्षों के दौरान के उभरते दलित संगठनों के कार्य-ढंग पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है कि दलित नौजवान वर्ग प्रति अधिक सुचेत हैं और सामाजिक व आर्थिक स्तर पर अपनी पहचान हर पक्ष से ज़ाहिर करने की अधिक इच्छा रखते हैं। यह सिलसिला भारत स्तरीय है। दलितों की पुरानी पीढ़ी के लिए अम्बेडकर सिर्फ पूजनीय और सम्मान हेतु थे परन्तु नई पीढ़ी ने उनके सिद्धांतों, लेखों और भाषणों का अध्ययन और मूल्यांकन करना शुरू किया है। दलित मुक्ति में डा. अम्बेडकर द्वारा डाले गए अकादमिक योगदान ने भाईचारे के भीतर विश्वास की और स्वयं को ज़ाहिर करने की भावना पैदा की है।
2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों ने साफ कर दिया कि दलित अब एक बड़ी तस्वीर को देख रहे हैं। आपसी ताने-बाने और संचार हेतु सोशल मीडिया का प्रयोग बढ़ा है,  वामपंथी पार्टियां और इनकी सीमाओं की नज़रसानी होने लगी है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि उन्होंने पारम्परिक कम्यूनिस्ट पार्टियों से दूरी बना ली है। नक्सलवादी ही उनको आकर्षित करने वाली एक मात्र राजनीतिक ताकत हैं। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी आर.जे.डी.-जनता दल (यू.) के महागठबंधन ने जहां भाजपा को बुरी तरह मात दी, वहीं सी.पी.आई.-एम.एल. केवल तीन सीटें ही जीत सकी थी, वह भी महादलित जनसंख्या वाली।
यह बात भी विशेष महत्त्व की धारणी है कि दलितों और खेत मज़दूरों के उन लहरों के प्रति रवैये में भी बड़ा बदलाव आ चुका है, जो उनकी अपनी समस्याओं के हल के लिए अस्तित्व में आए हैं। पिछले दो वर्षों के दौरान दलितों के कत्लेआम के तीन मामलों में पटना हाई कोर्ट द्वारा जागीरदारों आदि के गुंडों को बरी किया जा चुका है। परन्तु दलितों द्वारा इनके विरोध में सड़कों आदि पर प्रदर्शन नहीं किए गए कि सरकार ने केस अच्छी तरह नहीं लड़ा या कमज़ोर वकील आदि चुने। रोष प्रदर्शन के पुराने ढंग-तरीके में यह एक बड़ा रणनीतिक बदलाव है।
दलित अब मामलों को अपने हाथों में लेने की सोच अधिक रखने लगे हैं। परन्तु वह इस बात संबंधी स्पष्ट नहीं हैं कि ऐसा करने के लिए ढंग-तरीका कौन-सा अपनाया जाना चाहिए। चाहे स्वयं को ज़ाहिर करने का मुख्य सूचक-अंक उनके लिए अभी भी जाति ही है परन्तु वह जाति राजनीति से निराश हैं। उनकी मज़बूत धारना है कि उनके जाति नेताओं ने केवल उनका शोषण ही किया है और उनको अपने निजी लाभ के लिए इस्तेमाल किया है। मायावती और उनकी किस्म वाली राजनीति और सोशल मीडिया में बड़ी बहस होती है। अधिकतर दलित संगठनों का मानना है कि उनको एक व्यापक राजनीतिक मुहाज़ अपनाना चाहिए।
हिन्दू एकजुटता, दलितों और मुसलमानों की गौ-रक्षकों आदि द्वारा मारपीट किए जाने और नैतिक पुलिसिंग आदि के विवादों वाली पृष्ठ भूमि में दलितों के भीतर यह सोच बढ़ने लगी है कि उनको राजनीतिक तौर पर एक-दूसरे के और नज़दीक आने की ज़रूरत है। मायावती को इस जटिलता को समझना चाहिए और नया विचारधारक पैंतरा अपनाना चाहिए। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है कि दलित एक बड़े ‘कैनवस’ की तरफ देख रहे हैं। अपने स्वयं के संगठनों और लहरों के प्रति उनके रवैये में भी एक बड़ा बदलाव आ रहा है। (मंदिरा पब्लिकेशन्ज़)