चाय पे बुलाया है...

कालेज के ज़माने में हम जाने कितनी बार चाय पीते रहते थे। कैंटीन, चाय की दुकानें समय बिताने के लिए अच्छे स्थान समझे जाते थे। रात को देर तक जाग कर पढ़ने के लिए भी चाय हमें ज़रूरी लगा करती थी। मेरा एक सहपाठी तो रात हमारे साथ बैठकर केवल इसलिए पढ़ाई करता रहता था ताकि चाय पी सके। तब कोई हमें यह बताने वाला नहीं था कि चाय पीना अच्छा है या फिर बुरा है। हां, एक मित्र कहा करता था कि तुम पिला रहे तो चाय फायदेमंद है और अगर मुझे कहोगे कि मैं चाय पिलाऊं तो वह हानिकरक है। मगर विवाह के बाद पत्नी ने अपने कायदे कानून लागू कर दिये और घोषणा कर दी कि अधिक चाय पीना अच्छी बात नहीं है। मतलब साफ है कि जितनी बार वह खुद पीना चाहे उतनी बार पीने में कोई हज़र् नहीं लेकिन अगर मैं एक कप और पीने की तमन्ना करता हूं तो वह खराब बात है। पत्नी को मेरा शाम को एक कप और चाय बनाने का आग्रह करना कभी नहीं भाता है। वैसे उसे मेरी तमाम बातें अच्छी नहीं लगती, न मेरा हंसना अच्छा लगता है न ही रोना और गाना तो बिल्कुल भी नहीं। जो बातें उसे अच्छी लग सकती हैं अथवा हर पति की पत्नी को अच्छी लगती हैं वो मेरे बस की नहीं हैं। बस बात को अधिक आगे नहीं बढ़ाकर फिर से चाय की बात पर आता हूं। जब भी कोई सत्ताधारी नेता शहर में आता है तो कई जगह अलग-अलग लोग अपने घर पर उसे चाय पिलाने का आयोजन करते हैं। इन बड़े लोगों की चाय का प्रबंध हज़ारों रुपए खर्च करके किया जाता है। इस प्रकार उनके एक दिन में चाय पीने के कार्यक्रमों पर लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं। मगर चाय पिलाने वाले जानते हैं कि उनका पैसा व्यर्थ नहीं जाने वाला, कई सौ गुणा होकर वापस आयेगा उनके पास। इस प्रकार चाय पिलाना शुद्ध रूप से एक राजनीतिक कारोबार है।  सत्ताधारी नेता को चाय पिलाने वाले का हर काम करना ही पड़ता है। चाय पीने का यह चस्का बहुत बुरा है, कई बार तो कुछ नेता स्वयं किसी जान-पहचान वाले कार्यकर्ता या कारोबार करने वाले से कह देते हैं कि कभी हमें चाय पर बुलाओ। एक सज्जन सालों तक मेरे पास आते रहे हैं नियमित रूप से गप-शप करने और समय बिताने के लिए। जब भी आते थे कहा करते थे कि आज आपके घर की चाय ही पीनी है। मेरा दफ्तर नीचे है और घर ऊपर है अत: मैं खुद घर की ही चाय पीता हूं, मगर कभी जब कोई मिलने-जुलने वाला आ जाए तो सामने चाय वाले से चाय मंगवा कर भी काम चला लेता हूं। लेकिन वे सज्जन अपनी दुकान पर जाने कितनी बार वही बाज़ार की चाय खुद भी पीते थे और हर आने-जाने वाले को भी पिलाते थे लेकिन मेरे पास आकर घर से चाय मंगवाने की बात सदा कहते थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि तब चाय के साथ कुछ स्वादिष्ट खाने को भी आ ही जायेगा। कभी-कभी महीने में एकाध बार मुझे भी उनकी दुकान पर जाना ही पड़ता था मगर तब न मेरे पास चाय पीने की फुर्सत होती थी न ही वे ही खाली होते थे पिलाने के लिए, बल्कि वे अधिकतर वहां मिलते ही नहीं थे, जब कभी मिल जाएं तो बड़ा काम है, फुर्सत ही नहीं, कहना भूलते नहीं थे। कुछ सालों से उनका आना कम हो गया है क्योंकि अब उनकी दुकान उनके बेटे ने संभाल ली है और वे अब बड़े शोरूम पर बैठने लग गये जो थोड़ा दूरी पर अलग बाज़ार में है। लेकिन तब भी महीनों बाद ही सही वे जब भी मेरे पास आते हैं तो फुर्सत से बातें करना, मेरे घर की चाय पीना सदा याद रखते हैं। मैं बताना भूल गया कि वे मुझ से क्या बातें करते हैं। अपने दौलत कमाने की बातों के साथ-साथ मेरी असफलता का जिक्र हर बार करना। कहा जाता है कि जिसके पास सब कुछ हो तब भी उसकी और अधिक पाने की लालसा सदा रहे वह सबसे दरिद्र होता है। उन्होंने बहुत कोशिश की थी मुझे अपनी अमीरी का कायल बनाने के लिए। मगर उनकी बातों का मुझ पर कोई असर हो नहीं पाया, क्योंकि एक आदत सी हो गई थी मुझे उनकी ऐसी बातें सुनने की। शहर में कई कार्यक्रमों में उनका नाम विशेष अतिथि के तौर पर निमंत्रण पत्रों पर पढ़ने को मिल जाता है। हम जब उन्हें अपने एक कार्यक्रम का निमंत्रण पत्र देने गये तो उनको लगा कि हज़ार-दो हज़ार की चपत लगाने आये हैं। हमने उन्हें कह दिया था, आप नाहक घबरा रहे हैं, हम किसी से चंदा मांगकर कार्यक्रम नहीं आयोजित करते हैं न ही अपने कार्यक्रम में किसी को पैसे लेकर मुख्य अतिथि ही बनाया करते थे। उनका सवाल था कि हम ऐसा कर कैसे लेते हैं। हमें उन्हें कोई जवाब देना ज़रूरी नहीं लगा था। वे हमारे कार्यक्रम में आए थे मगर रुके नहीं क्योंकि उन्हें कहीं और जाना था जो अधिक महत्वपूर्ण था। हम उनकी मजबूरी समझ गए थे। अखबार में हमारे कार्यक्रम की खबर पढ़ कर उनका फोन आया कि आज शाम को मैं उनके शोरूम पर आ कर चाय पियूं। हां मगर आने से पहले फोन अवश्य कर लूं, यह जानने के लिए कि वे वहां पर हैं। पहली बार उन्होंने मुझे चाय पर बुलाया, मगर घर पर नहीं। हालांकि उनका घर मेरे घर से दूर नहीं है। मुझे ध्यान आया आज अप्रैल महीने का पहला दिन है। अन्यथा मुझे कोई चाय पर बुलाए ऐसी मेरी किस्मत कहां, मैं कोई वी.आई.पी. नहीं हू। लगता है उन्होंने मुझे जो चाय पिलानी है और जो कुछ कहना, जतलाना है उसके लिए उनका शोरूम ही सही जगह हो सकती है। मगर मैं उनके पास नहीं जा पाया चाय पीने। इसलिए अब वे मुझसे नाराज़ हैं। लोग उनकी चाय पीने को तरसते हैं ऐसा उनका दावा रहा है।

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