मां की ममता

‘परन्तु मेरी बात सुन, जिस मां ने अनेक कष्ट झेल कर हमको यहां तक पहुंचाया। अब उनको इस उम्र में वृद्धाश्रम में छोड़ आएं! कोई
अच्छी बात नहीं। समाज क्या कहेगा? रिश्तेदार क्या कहेंगे? पोते के साथ मां का बहुत मोह-स्नेह है। उसके बगैर तो वह मर जाएगी। वह
तो उसकी ज़िंदगी है। पोते के साथ उसका दिन चढ़ता है, रात होती है। मां को आश्रम में भेजना ठीक नहीं।’परन्तु पत्नी ने इतना मजबूर कर दिया कि राजेश को सारे हथियार फैंकने पड़े। एक दिन शाम को बिस्तर पर सरहाने (तकिए) की ढ़ारस
लगा कर बैठी मां के पास राजेश जा बैठा। कलेजे को सीने से बाहर निकाल कर, हिम्मत का आसमां बांध कर मां को कहने लगा, मां...
एक बात करनी है। हां, बेटा, बताओ, क्या बात है? तेरी कौन सी बात मैंने आज तक नहीं मानी बेटा, जल्दी बता क्या बात है? मां, क्या बताऊं? ‘बता ना मेरा पुत्र, खुल कर बात कर, डर-डर के बात क्यों कर रहा पुत्र! आज तक तो ऐसी घबराहट में मेरे साथ कभी बात नहीं की, बता मेरा पुत्र क्या बात है? मैं तेरी प्रत्येक शर्त पूरी करूंगी मेरे लाल! आखिर बात है क्या? जिसको जल्दी नहीं बता रहा।’ ऊपर से राजेश की पत्नी भी आ जाती है तथा उसने हिचकचाहट के पंख कुतरते हुए दलेरी के साथ सय्याद की भांति कहा, ‘मां जी, दरअसल बात यह है कि हम चाहते हैं कि आप वृद्धाश्रम में चले जाएं। वहां आपकी देखभाल अच्छी तरह से होगी। खर्च तो हम देंगे ही। घर में आपकी देखभाल अच्छी तरह से नहीं होती कई कमियां (त्रुटियां) रह जाती हैं। घर में आपकी देखभाल करनी मुश्किल होती है। हम चाहते हैं आपको वृद्धाश्रम की अच्छी सुविधाओं में छोड़ आएं। आपका वहां दिल भी लगा रहेगा। आपको वहां मिलने आते रहेंगे।’ मां ने हंसते हुए झट से कहा, ‘हां, पुत्र, मैं तैयार हूं। यह तो मैं भी सोचती हूं, महसूस करती हूं पुत्र, आप मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ आएं।मुझे कोई एतराज़ नहीं। आप बिल्कुल ठीक कहते हैं।’ मां की डबडबाई चूल्हे जैसी आंखों से जैसे धुआं निकल रहा हो। उसने चारों ओर देखा, पुत्र-वधु को देखा, पोते की ओर देखा और नज़रें नीचे करते हुए खून के आंसू कलेजे के कासे में बहाती चली गई शायद अपने पति की याद में, जैसे पति उसको आशीर्वाद दे रहा हो, बल दे रहा हो, हिम्मत तथा धैर्य की शक्ति दे रहा हो। पुत्रवधु ने जुर्रत से कहा, मां जी, आज शनिवार है तथा सोमवार हम आपको आश्रम में छोड़ आएंगे। आपकी तैयारी भी कर देते हैं। रजनी पति को याद करके बुसक-बुसक कर कलेजे की आंखों के ज़रिए रो कर गुम-सुम सी हो गई। पुत्रवधु की खुशी तथा सास के आंसू दो विपरीत दिशाओं का वर्तमान एक इतिहास को रचने जा रहा था। रात बिस्तर पर पड़ी रजनी सोच रही थी, काश! आज वह ज़िंदा होते, मेरी ओर कोई आंख उठा कर नहीं देख सकता था। वह घर मेरा होना था जो आज मेरा नहीं। मेरा तो कुछ भी नहीं है आज यहां।’ वह मन ही मन सोचने लगी, पुत्रवधु से तो दूर हो सकती हूं परन्तु पोते से दूर जाना तो एक मौत है। रवि के बगैर में ज़िंदा नहीं रह सकती। रवि मेरा दिन भी, दोपहर भी, रात भी। मेरी नस-नस में रवि है।’