सृष्टि का संगीत है 

ओ३मसृष्टा का स्वरूप और सृष्टि का संगीत है ओ३म। ब्रह्माण्ड में जो सृष्टा रूप में विद्यमान है, वहीं नाभिचक्र में ओम के रूप में प्रतिष्ठापित है, अर्थात् पिण्ड (शरीर) में प्रणव ऊँ का स्थान नाभिचक्र है। यही कारण है कि प्रकृति के पालन का सुन्दर उपहार शिशु संसार में अवतरित होने के पूर्व नाभिकमल (नाभिनाल) से संपृक्त रहता है और बिना दुग्धपान या अन्नप्राशन के इसी के सहारे जीवन की संजीवनी प्राप्त करता रहता है।  ऋषि पतंजलि के योग का  मूलमंत्र भी ओ३म की साधना है। अन्तत: प्राणायाम एवं योग के रथ जिनमें योगासन रूपी सहस्त्रों अश्व लगे हुए हैं, ओ३म के धाम पर ही विश्राम पाते हैं।  अ-उ-म, इन तीनों के मेल से ओम शब्द सिद्ध होता है जो अव्युतपन्न है। अव्युत्पन्न होने के कारण ही ओम को ईश्वर कहा जाता है क्योंकि ईश्वर भी अव्युत्पन्न है। रक्षण, गति, कान्ति, प्रीति, तृप्ति, अवगम, प्रवेश, श्रवण, स्वामयर्थ, याचन क्रिया,इच्छा, दीप्ति, वाप्ति, आलिंगन, अहिंसा, दान, भाग और वृद्धि, इन सब की सिद्धि ओम की साधना से होती है और इनकी सिद्धि होने पर ही जीव की मुक्ति होती है। ओ३म को आत्मा की भाषा, अभ्यंतरिक आवाज, स्वर्गिक स्वर, अज्ञात से वार्तालाप, अनाहत ध्वनि, सभी नामों तथा रूपान्तरों की जननी तथा सृष्टि का संगीत कहा गया है। ‘इन दि बिगिनिंग वाज दि वर्ड, दि वर्ड वाज विद गॉड, दि वर्ड वाज गॉड’ ओम के विषय में ही कहा जाता है। ओम की साधना करने वाला कालजयी होता है। इच्छानुसार मृत्यु को प्राप्त होता है। सर्वज्ञाता और सम्पूर्ण सिद्धियों का अधिपति बनता है और उसकी सूक्ष्मता बढ़ जाती है।  ऊँ शब्द के आगे 3 का अंक लिखा जाता है। तदुपरान्त आधा ‘म’ लिखा जाता है। 3 का अंक लिखने का अर्थ है उसे अपेक्षाकृत तीन गुणी क्षमता से बोला जाये। तदुपंरात उसके साथ अधर्म को जोड़ दिया जाए। मात्र इस एक संगीत में विश्व का सम्पूर्ण रस, जीवन का समग्र उद्धेश्य, उपलब्धियों का विश्वकोश, आनंद का अम्बर, आस्था का अमरलोक, उपासना का अर्थशास्त्र, आराधना का अंकगणित तथा साधना का समाज शास्त्र छिपा हुआ है। ओम का उपासक अवणि की तरह स्थिर, सागर की तरह गंभीर तथा अम्बर की तरह विस्तर्ण होता है।  (उर्वशी)

-सुकन पासवान प्रज्ञाचक्षु