सरकारी तंत्र की नाकामी दर्शाती भुखमरी

दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में बुधवार को एक परिवार की बेहोश हुई तीन बच्चियों को अस्पताल ने ‘मृतक लाईं’ अर्थात्
Brought dead  ऐलान कर दिया। 8,4 और 2 वर्ष की इन सभी बहनों की मां से उनकी मौत का कारण पूछा गया तो जवाब की
बजाय उसका सवाल था ‘खाना कब मिलेगा?’
बच्चियों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट और मां का भूख से निचुड़ता संवेदनहीन जबाव बताते हैं कि बच्चों के पेट में गत आठ दिनों से अनाज
का एक दाना नहीं गया। पूर्वी दिल्ली के मंडावली क्षेत्र में हुए इस हादसे के कारण लोग, व्यवस्था और प्रशासन सकते में हैं। संतोष इस
बात का कि तस्वीर ने डरावना सच हमें अभी-अभी नहीं दिखाया, अपितु यह सच पहले से ही मौजूद था। संतोष इस बात का है कि
मौतों की संख्या सिर्फ तीन तक ही सीमित नहीं है और संतोष इस बात का भी है कि हालात अभी बिगड़े नहीं, अपितु यह अमल गत
कुछ वर्षों से बदस्तूर जारी है। आओ, इन ‘तसल्ली’ देते आंकड़ों पर एक दृष्टि डालें :
2017 के भूख के वैश्विक सूचकांक के अनुसार 119 विकासशील देशों की सूची में भारत का नाम 100वें स्थान पर है। पड़ोसी देश चीन
तो खैर इस सूची में कहीं आगे (29वें स्थान पर) है। छोटे-छोटे पड़ोसी देश जिन देशों में भारत की ओर से कई सहायता प्रोजैक्ट चलाये
जा रहे हैं, जैसे नेपाल (72वें), म्यांमार (77वें), श्रीलंका (84वें), बंगलादेश (88वें) भी हमसे कहीं आगे हैं। हालांकि इस बात का संतोष
मनाया जा सकता है कि कट्टर मुकाबलेबाज पाकिस्तान हमसे 6 स्थान और पीछे अर्थात् 106वें स्थान पर है। हालांकि वैश्विक स्तर पर
भूख का प्रकोप कम हुआ है। वर्ष 2000 के मुकाबले वर्ष 2017 में वैश्विक स्तर पर भूख में 27 प्रतिशत कमी आई है, परन्तु भारत
2014 के मुकाबले 2017 में 45 स्थान नीचे पहुंच गया है। भुखमरी एक ऐसी स्थिति है, जिसमें शरीर ऊर्जा कम ग्रहण करने के कारण कुपोषण का गम्भीर रूप धारण कर लेता है और उचित देखभाल न होने पर मौत का रूप धारण कर लेती है। विश्व भर में भुखमरी आज भी मौत का मुख्य कारण है। दुनिया भर के 80 करोड़ भुखमरी के शिकार लोगों में से एक तिहाई भारत में रहते हैं और 20 करोड़ से अधिक भारतीय हर रोज़ भूखे पेट सोते हैं। यदि दुनिया भर में हर सैकेंड में भुखमरी से एक व्यक्ति की मौत होती है, तो भारत में हर रोज़ 7,000 तथा हर वर्ष 25 लाख लोग भुखमरी से मरते हैं। दिल्ली में हुई इन तीन मौतों से पहले जून में झारखंड में तीन दिनों में तीन व्यक्तियों की मौत भी चर्चा में रही। दिल्ली में इन मौतों के अगले ही दिन एक आदिवासी की भूख से मौत होने की खबर भी आई। आखिर क्या कारण है कि दुनिया की 6वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भूख के हाथों मजबूर नज़र आ रही है? भुखमरी का अहम कारण गरीबी तो है ही परन्तु इसके साथ ही सामाजिक सुरक्षा
मुहैय्या करवाने का कमज़ोर ढांचा और मनरेगा के तहत दिए जाने वाले रोज़गार और भत्ते का मिलना है।  यदि सामाजिक सुरक्षा के
नाम पर शुरू हुई योजनाओं को खंगालना शुरू करें तो योजनाओं की एक लम्बी सूची सामने आएगी। 2014 में लागू हुए अनाज सुरक्षा
कानून के तहत खाने के अधिकार को मनुष्य के प्राथमिक अधिकारों में शामिल किया गया था। बड़े स्तर पर दो राष्ट्रीय कार्यक्रम भी
शुरू किए गए, जिनमें Integeatel child development services और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन शामिल हैं। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक भोजन की उपलब्धता, मिड-डे मील, बुढ़ापा पैंशन जैसी कई योजनाएं सामाजिक सुरक्षा के घेरे में आती हैं, परन्तु मामला यह नहीं है कि सामाजिक सुरक्षा के लिए ढांचा या योजनाएं मौजूद हैं या नहीं। अपितु समस्या इसको लागू करने वाले तंत्र के अंतर की है।  प्रशासनिक कोताही, अनपढ़ता और जागरूकता की कमी के कारण लोग इन सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित रहते हैं। झारखंड में हुई मौतों में मृतकों के पास राशनकार्ड न होने के कारण वह सरकार की ओर से रियायती दरों पर दिया जाने वाला अनाज लेने से असमर्थ थे। कुछ केसों में राशनकार्ड के आधार नंबर से लिंक न होने के कारणकल्याण योजनाएं उनके असली हकदारों तक नहीं पहुंच सकीं। दूसरा केन्द्र और राज्यों के बीच तालमेल भी एक बड़ा सरोकार है। कानून कहता है कि राज्य गरीबों की सूची मुहैय्या करवायेंगे तथा राज्य सरकारें आंकड़ों मुहैय्या करवाने में ढीला रवैय्या अपनाते हैं। गरीबी दूर करने के प्रयासों के लिए बनाई कमेटियों द्वारा भी गरीबी रेखा से नीचे की आबादी के लिए अलग-अलग संख्या निर्धारित की जाती है। हाल ही में एक एन.जी.ओ. द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश इतने भीषण रूप में पहुंच गया था कि बच्चों को मिट्टी तक खाने को मजबूर होना पड़ रहा था। जब इसमें रिपोर्टें सामने आईं तो प्रशासन द्वारा कुछ अनाज मुहैय्या करवाकर गांव वालों को मुंह बंद रखने के लिए कहा गया। तीसरा, कल्याण योजनाओं के लिए पर्याप्त पहचान-पत्रों के सीमित दायरे होना दिल्ली का उल्लेख करें तो आज़ादी के बाद से ही दिल्ली भारत के अलग-अलग हिस्सों से आए लोगों को अपने भीतर समाती जा रही है। काम की तलाश में और नौकरियों के बेहतर विकल्प होने की उम्मीद में लोग दिल्ली आते हैं परन्तु ‘दिल्ली वाले’ होने के पहचान-पत्र जुटाने में ही उनको काफी समय लग जाता है। जिस कारण न तो वह यहां के निवासी बन पाते हैं और न ही कल्याण योजनाओं के हकदार। तीन मौतों से संबंधित परिवार के दिल्ली में होने पर भी अलग-अलग विचार व्यक्त किए जा रहे हैं। सत्ता पक्ष आम आदमी पार्टी के अनुसार वह हाल ही में दिल्ली आए थे, जबकि विपक्ष के अनुसार वह गत 10-15 वर्षों से यहां रह रहे थे। यदि एक आधार नंबरपूरे देश में व्यक्ति की पहचान बन सकता है तो एक राशनकार्ड क्यों नहीं? चौथा कारण सार्वजनिक वितरण व्यवस्था है। यह व्यवस्था शुरू से ही सवालों के घेरे में रही है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार पी.डी.एस. का 51 प्रतिशत अनाज भ्रष्टाचार के कारण उपलब्ध नहीं होता और खुले बाज़ारों में बेचा जाता है। वितरण प्रणाली से इन त्रुटियों को दूर करने का दावा करता आधार कार्ड स्वयं ही कानूनी पेचीदगियों में उलझा हुआ है। मामला अदालत के विचाराधीन होने के बावजूद सरकारी तंत्र की हर योजना पर इसको आवश्यक किए जाने के कारण लाभपात्र इन योजनाओं का लाभ उठाने से चूक जाते हैं। बढ़ती जनसंख्या, कम होता क्षेत्र और लगातार सीमित होता कृषि का रकबा भुखमरी के ‘स्थायी’ कारण कहे जा सकते हैं, परन्तु उपरोक्त कारणों को सही करने में छोटे लेकिन सार्थक कदमों की ही ज़रूरत है। दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीश सिसोदिया ने इन मौतों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह व्यवस्था की नाकामी है। सचमुच यह व्यवस्था की ही नाकामी है, जहां योजनाएं सरकारी तंत्र के पेचों में उलझ जाती हैं। जहां समस्याओं का हल तलाश करने की बजाय ‘ऐलान’ इन्कारी मौत अपना लिया जाता है, जहां आरोप-प्रत्यारोप अधिक हावी हो जाता है। सत्ता पक्ष आंकड़ों को खारिज करने और विपक्ष उनको अधिक से अधिक उभारने में व्यस्त हो जाता है। आंकड़ों को बदलने के लिए एक-दूसरे पर दोष लगाने की राजनीति से ऊपर उठना होगा। आंकड़ों को स्वीकार करना पड़ेगा और इनमें सुधार लाने के लिए ठोस प्रयास करने पड़ेंगे, जिसमें राजनीतिक और सामाजिक इच्छा-शक्ति की ज़रूरत होगी। 

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