संकट में हैं भारत के बैंक : क्या मोदी सरकार इसे दूर कर पाएगी ?

भारत के बैंकों के सामने जो संकट हैं, वे संकट यदि किसी पश्चिमी देश में होते तो उसकी बैंकिंग व्यवस्था इतनी चुनौतियों के बीच ढह जाती, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था या कहिए समाज में ही एक अस्थिरताकारी ताकत है, जिसके कारण बड़े से बड़ा संकट भी हमें अस्थिर नहीं कर पाता। समस्याग्रस्त भारतीय बैंकों को इसी का लाभ मिल रहा है और इस बीच यह हमारे नीति निर्माताओं के विवेक और अर्थकौशल पर यह निर्भर करता है कि बैंकों के सामने खड़े अभूतपूर्व संकट को वह कैसे दूर करें। असली समस्या सरकारी बैंकों में है जो एनपीए ( नॉन परफॉर्मिंग एसैट्स) की समस्या से जूझ रहे हैं। इनमें लोगों का विश्वास इसलिए बना हुआ है, क्योंकि ये सरकारी हैं और सरकार बुरे ऋण की समस्या से जूझ रहे इन बैंकों को अपने खजाने से समर्थन कर रही है। इसी सिलसिले में सरकार ने 5 बैंकों को 11 हज़ार करोड़ रुपये से भी ज्यादा धन उपलब्ध कराने की घोषणा की है। उन पांच बैंकों में पंजाब नेशनल बैंक भी शामिल हैं, जो मेहुल चौकसी और नीरव मोदी के कारण 10 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की चपत खा चुका है। सरकार ने पिछले वित्तीय वर्ष में भी बैंको को एक लाख करोड़ रुपये की सहायता की थी। तब यह सवाल उठा था कि उन बैंकों की गैर जिम्मेदारी का खामियाजा टैक्स अदा करने वाली जनता क्यों भुगते। एक बार फिर सरकारी खजाने से उन्हें वित्त पोषित किए जाने के बाद इसी तरह के सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि उन बैंकों में पैसा उन्हीं का जमा है, जो टैक्स भी देते हैं। अभी तो उन बैंकों का पैसा डूबा है। यदि बैंक ही डूब गए, तो फिर उन लोगों का पैसा भी डूब जाएगा, जिन्होंने उनमें अपने पैसे जमा कर रखे हैं।
लेकिन यह भी सच है कि सरकार अपने खजाने से बैंकों को लगातार पैसे नहीं दे सकती। उनकी समस्याओं का स्थायी हल ढूंढना होगा और उन्हें अपना संकट हल करने के लिए समय भी देना होगा। सरकारी खजाने से उन्हें धन देने के अलावा सरकार ने अन्य अनेक उपाय भी किए हैं। इसके लिए एक विशेष दिवालिया कानून भी बनाया है, जिससे बैंकों को कुछ राहत मिलती दिखाई पड़ रही है। भूषण स्टील से संबंधित मामले में पंजाब नेशनल बैंक को दिवालिया कानून का लाभ मिला भी और उसके बाद यह उम्मीद जगी थी कि बैंक एक साल के अंदर शायद अपना डूबा हुआ एक लाख करोड़ वापस पा ले। हमारे देश की समस्या यह है कि कानून आसानी से लागू नहीं होते और कानूनी कार्रवाई तेजी से होने में भी अड़चनें आ जाती हैं। कानूनी लूपहोल का ही निहित स्वार्थ लाभ नहीं उठाते, बल्कि न्याय प्रक्रिया की सुस्ती का भी उन्हें फायदा होता है। यही कारण है कि जिस तेजी से बैंकों में फ्राड हो जाता है, उतनी तेजी से फ्राड करने वालों के खिलाफ  कार्रवाई नहीं होती। दिवालिया कानून के रास्ते में भी इस तरह की समस्याएं देखने को मिल रही हैं। वैसे तो एनपीए की समस्या से लगभग सभी सरकारी बैंक जूझ रहे हैं, लेकिन कुछ कमजोर बैंकों के सामने कुछ ज्यादा ही कठिनाइयां सामने आ रही हैं। इसलिए एक विकल्प यह भी है कि कमजोर और छोटे बैंकों को मजबूत और बड़े बैंकों में विलीन कर दिया जाए। केन्द्र सरकार ने इस दिशा मेें आगे बढ़ने का फैसला भी किया है और इसके लिए भारतीय रिज़र्व बैंक को आगे की कार्रवाई करने को भी कहा है। मोदी सरकार के गठन के बाद भारतीय स्टेट बैंक में उसके अनुसंगी कुछ बैंकों का विलय भी हुआ है। वे विलय सफल रहे हैं। यूपीए सरकार ने एक महिला बैंक भी बनाया था। उस महिला बैंक का भी भारतीय स्टेट बैंक में विलय हो चुका है। लेकिन भारतीय स्टेट बैंक में उन बैंकों के विलय की सफलता से कोई ज्यादा उत्साहित होने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वह विलय एनपीए की समस्या को हल करने के लिए नहीं था। वे बैंक एसबीआई के अनुसंगी बैंक थे और बेहतर संचालन और खर्च कम करने के उद्देश्य से उसका विलय किया गया था। लेकिन अब जो विलय होगा, तो उसमें कमज़ोर बैंकों की कमज़ोरी का भी विलय होगा और इसका खतरा यह होगा कि मज़बूत बैंक भी उसी समस्या से ग्रस्त हो सकता है, जो कमज़ोर बैंक का था।  यही कारण है कि विलय की दिशा में भारतीय रिज़र्व बैंक और भारत की सरकार को फूंक-फूंक कर कदम उठाना होगा। सही अध्ययन करना होगा कि विलय के कारण कहीं लाभ होने के बदले नुक्सान तो नहीं हो जाएगा। कौन-सा बैंक किस बैंक में विलीन किया जाए इसका निर्णय करने में समय लगेगा। यही कारण है कि यह कहने में जितना आसान लगता है, करने में उतना आसान नहीं है और इसमें दो साल से 5 साल तक लग सकते हैं। सरकारी खजाने से बैंकों का वित्त पोषण किया जाना और कमजोर बैंकों को मज़बूत बैंकों मेें मिला दिया जाना समय की जरूरत हो सकती है, लेकिन जिनके कारणों से भारत की बैंकिंग व्यवस्था आज संकटग्रस्त हो गई है, उन कारणां का इलाज करना भी जरूरी है। आखिर बैंकों की यह हालत हुई क्यों? 2008 में जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी की शिकार थी, तो भारत उसका अपवाद बना हुआ था। दुनिया का आर्थिक संकट अमरीकी बैंकों मे शुरू हुए संकट का ही नतीजा था, लेकिन भारत के बैंकों तक वह संकट नहीं पहुंच पाया। हमारे बैंक उस समय हमारी अर्थव्यवस्था को ताकत प्रदान कर रहे थे। लेकिन आज यह स्थिति क्यों पैदा हो गई है। तो उसका एक कारण 2008 का वह विश्वव्यापी अर्थसंकट भी है। उस समय उद्योगों को विशेष पैकेज दिए गए थे। उनमें ब्याज दरों की कमी भी शामिल थी। उस कमी से उद्योगों को तो हजारों करोड़ों का फायदा हुआ, लेकिन बैंकों को तो नुक्सान ही हुआ। उसके कुछ समय बाद ही 2-जी घोटाला भी सामने आया। घोटालेबाजों ने बैंकों से हजारों करोड़ों के ऋण ले रखे थे। उनके लाइसैंस कोर्ट द्वारा रद्द किए जाने के कारण बैंकों के भी हजारों करोड़ रुपये फंस गए। कोयला घोटाले और उसके बाद के अदालती आदेशों के कारण भी बैंकों के एनपीए बढ़े। (संवाद)