देश भर की सड़कों में हैं जान-लेवा गड्ढे

साल 2016 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन 6 अकाल मौतें सिर्फ  इसलिए हो जाती हैं क्योंकि भारत की सड़कों में गड्ढों की एक जबरदस्त आबाद दुनिया है। देश के किसी भी शहर की अच्छी से अच्छी सड़क का एक चक्कर लगा लीजिए, दो-चार गड्ढे तो यूं मिल जाएंगे जिससे उनके बिना सड़कों का अस्तित्व ही अधूरा हो। इसलिए 6 अकाल मौतों के दैनिक सरकारी आंकड़े तो इस समस्या का एक बहुत ही छोटा कोना दिखाते है; क्योंकि इस विशाल देश की आम जनता आज भी मौत के बाद पुलिस के यहां सरकारी लिखा पढ़ी से बहुत खौफ  खाती है। नतीजतन गड्ढों के चलते देश में हर दिन होने वाली मौतों का वास्तविक आंकड़ा 6 से कहीं ज्यादा है। यह संख्या इसलिए भी इससे अधिक होगी क्योंकि गड्ढे से जुड़ी हुई दर्जनों मौतें रिपोर्ट ही नहीं की जाती हैं, क्योंकि प्रत्येक राज्य में दुर्घटना रिपोर्टिंग प्रोटोकॉल अलग-अलग हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार सड़कों पर गड्ढों के चलते भारत में 2013 से 2016 तक 11,836 मौतें हुईं और 34,421 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। घायल हुए इन लोगों में से 70 फीसदी से ज्यादा लोग जीवनभर के लिए अपाहिज हो गये। इस डाटा की अगर राज्यों के अनुसार समीक्षा की जाये तो मालूम होता है कि मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु व महाराष्ट्र ने खराब सड़कों, विशेषकर गड्ढों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं के संदर्भ में अपना यह निंदनीय रिकॉर्ड बरकरार रखा है और लगातार पहले चार स्थानों पर अपना कब्जा बनाये रखा है। इसी सिलसिले में टॉप टेन में रहने वाले अन्य राज्य हैं- आंध्र प्रदेश, केरल, ओडिशा व पश्चिम बंगाल।
मानसून के सीजन में विशेष रूप से गड्ढे से संबंधित मौतें हर साल सुर्खियां बनती हैं। मगर विरोधाभास देखिये कि सड़कों की खराब देखभाल के लिए ठेकेदारों या इंजीनियरों या सरकारी विभाग के कर्मचारियों पर मुकद्दमा दायर करने की बजाय पुलिस रिपोर्ट अक्सर पीड़ित या चालक पर ही आरोप लगा देती है कि ‘लापरवाही के कारण मौत हुई’। सड़क मालिकों या मेंटेनेंस अधिकारियों की तरफ  से होने वाली लापरवाही को कभी सामने नहीं लाया जाता है, इस तरह गड्ढों के कारण होने वाली मौतों का सिलसिला जारी रहता है। भारतीय सड़क कांग्रेस ने 100 से अधिक दिशा-निर्देश दिए हुए हैं यह सुनिश्चित करने के लिए कि सड़कों का निर्माण, मेंटेनेंस और प्रबंधन, जिसमें गड्ढे भरना भी शामिल है, सुचारु रूप से चलता रहे। लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। इसलिए चुनौती यह सुनिश्चित करने में है कि इन दिशा-निर्देशों को सख्ती व ईमानदारी से लागू किया जाये।