मां की ममता

वह सोचने लगी, ‘परमात्मा कौन से जन्म का बदला ले रहा है मुझ से। ‘जीते जी’ सब कुछ खो रहा है। मां-बाप बच्चों को संस्कार दे सकते हैं, प्यार दे सकते हैं, सभ्याचार दे सकते हैं, शिष्टाचार सिखा सकते हैं परन्तु व्यवहारिक ज़िन्दगी तो बच्चे स्वयं ही अपने आप से,समाज से, चौगरिदे से ही सीख सकते हैं, यहां मां-बाप क्या कर सकते हैं। अनिवार्य नहीं व्यवहारिक तौर पर शिक्षित बच्चे अच्छो हों।’
रजनी के मन में कई ख्याल आते और परोक्ष हो जाते। ज़िन्दगी के क्या अर्थ हैं, उसकी समझ से बाहर हो गए। सोमवार को रजनी को वृद्धाश्रम में छोड़ आए। पोता-गुम-सुम था, जैसे उसका कीमती जान से प्यारा खिलौना गुम हो गया हो। कुछ बोल नहीं रहा था। उसने अपनी मां से उदास मुद्रा में कहा, ‘दादी मां को वहां क्यों छोड़ आए हो?’ इतना कहने की देर थी कि उसकी मां ने ज़ोर से एक थप्पड़ उसके मुंह पर जड़ दिया। उसका जवाब मां ने दे दिया था। वह बिलक कर रोता हुआ चुप होगया।  दादी मां के जाने से जैसे उसकी दुनिया लुट गई हो, जैसे चारों ओर अंधेरा छा गया हो, जैसे उसके हाथ-पैर सन हो गए हों। जिस्म पत्थर हो गया हो  तथा उदासी उसके जिस्म का हिस्सा बन गई हो।
रजनी  अब वृद्धाश्रम में रहने लगी। वहां वह सुबह-शाम मंदिर में जाती, अपने पोते के दर्शन कृष्ण भगवान की मूर्ति में करने के लिए। कृष्ण भगवान की मूर्ति को चूमती, प्यार करती, देख-देख रोती, घुट-घुट कर छाती से लगाती। पूजा अर्चना करती न थकती। अपनी ममता उड़ेल देती। आश्रम में रह कर उसने धार्मिक प्रवचन शुरू कर दिए थे। उच्च शिक्षित होने के कारण, उसको धार्मिक ज्ञान बहुत था। सारा आश्रम उसका श्रद्धालु बन गया। सभी महिलाओं में एक जीवित क्रांति खड़ी कर दी। जीवन के अर्थ ढूंढ लिए। धार्मिक प्रवचन उसका आसरा बन गए। किस्मत को कोसना छोड़ कर उसने हिम्मत के भगवान को हृदय में रख लिया। रजनी पति की याद कलेजे में लेकर अपनी मंज़िल की ओर बढ़ती चली गई। कभी-कभी जब पुत्र-वधु और पोता उसे मिलने आते तो वह पोते की दबी हुई भावनाओं को समझती परन्तु वह चुप रहती। पोते से दूरी बना कर रखती थी। कहीं मोह-ममता उसकी उदासी बन कर उसकी सेहत तथा पढ़ाई का नुक्सान न कर दे। जब पोता चला जाता तो वह कमरे में अकेली बैठ कर रोती रहती और फिर स्वयं को हौसला-धैर्य  देकर अपनी सारी टूटी हुई हिम्मत को इकट्ठा करके झूठी सांत्वना में उतर जाती।
इस तरह वृद्धाश्रम में कुछ वर्ष ही गुज़रे थे कि रजनी सख्त बीमार हो गई। रजनी ने वृद्धाश्रम की प्रभारी महिला को विनय करते हुए कहा, ‘मैं अपने पुत्र से मिलना चाहती हूं। उसको बुलाओ।’ रजनी के पुत्र को फोन पर संदेश दे दिया गया, राजेश आपकी माता जी सख्त बीमार हैं। आपको मिलना चाहती हैं।’ राजेश ने कहा, ‘आज बुधवार है तो मैं छुट्टी वाले दिन रविवार मिलने आऊंगा। ’ रविवार राजेश अकेला ही मां को मिलने के लिए आया तो राजेश ने मां को देखते हुए कहा, ‘मां, आपने मुझे याद किया। सेहत तो ठीक है न?’
हां, पुत्र ठीक ही हूं। 
‘मां ने कहा, पुत्र मैं तुझे कुछ कहना चाहती हूं’
‘हां, मां बताएं।’
‘पुत्र, यहां गर्मी बहुत है, यहां मेरे कमरे में एक ए.सी. लगवा दो, पंखे की हवा बहुत गर्म होती है। यहां रोती ठंडी मिलती है, एक ओवन लगवा दे। खाना (भोजन) ठंडा होने की वजह से कई बार भूखा ही सोना पड़ता है। पुत्र, यहां गर्म पानी पीने को मिलता है, एक छोटी-सी फ्रिज ला दे। यहां बैड पुराने हैं, नींद नहीं आती, पुत्र, यह सब चीज़ें ला दे।’ राजेश मां की बातें सुन कर आश्चर्य एवं आक्रोश में बिहबल होकर मां से कहने लगा, ‘मां, कई वर्षों से तू यहां रह रही है। तूने कभी इन चीज़ों की पहले डीमांड नहीं की परन्तु अब जब के तू मरणासन्न दशा में है तो अब इन चीज़ों के लिए लालसा क्यों। क्या ऐसा व्यवहार निरर्थक नहीं है।’ मां ने ममता और स्नेह से कहा, ‘पुत्र, नहीं यह बात नहीं है, यहां बहुत-सी तकलीफे हैं। मुझे तेरा ख्याल है पुत्र, क्योंकि तेरे बच्चों ने भी कल को तुझे यहां छोड़ने आना है। तुझे कोई तकलीफ न हो मेरे लाडले।’