भाजपा विरोधी गठबंधन की सम्भावनाएं अभी भी कायम

भारतीय जनता पार्टी के प्रचारकों को अचानक लगने लगा है कि उन्हें विपक्ष की संभावित एकता तोड़ने का फार्मूला मिल गया है। इसी फार्मूले के मुताबिक वे काफी तेजी से क्षेत्रीय दलों को अपनी ओर खींचने में लग गए हैं। पहले अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस और फिर राज्यसभा में उप-सभापति के चुनाव की पेशबंदी में उन्हें अपने मंसूबों में कामयाबी भी मिलती हुई दिखाई दी है। लेकिन इन कामयाबियों से एक तरह का मुगालता भी पैदा हो सकता है, अगर उन्होंने इन सफलताओं को 2019 की लड़ाई पर प्रोजैक्ट करने की गलती की। दरअसल, राज्यसभा के प्रकरण ने बताया है कि भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय शक्तियों का त्रिकोण बेहद जटिल है। जब से जनता दल (एकीकृत) के उम्मीदवार हरिवंश को राज्यसभा का उप-सभापति चुना गया है, मीडिया मंचों पर दो बातों की होड़ लगी हुई है। हर कोई यह दिखाने में व्यस्त है कि विपक्षी एकता का शीराज़ा पूरी तरह से बिखर गया है। दूसरे, कांग्रेस को बढ़-चढ़ कर नसीहत दी जा रही है कि उसे गठजोड़ राजनीति करने की तमीज़ भाजपा से सीखनी चाहिए। भारतीय राजनीति के तथाकथित विशेषज्ञों का यह रवैया पूरी तरह से सतही, जल्दबाज़ीपूर्ण और अनावश्यक है। पता नहीं किस तर्क के आधार पर राज्यसभा में हुई इस राजनीतिक पेशबंदी को 2019 के चुनावों पर प्रोजैक्ट किया जा रहा है। आम आदमी पार्टी के एक नेता के वक्तव्य ने इस बौद्धिक कवायद को एकतरफा रूप देने में अनायास ही अपनी भूमिका निभा दी है। 
कांग्रेस को नसीहत देने वाले दो प्रमुख और जाने-माने तथ्यों को नज़रअंदाज़ करने पर तुले हुए हैं। पहला तथ्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा नेतृत्व के संबंध राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ के सहयोगी दलों से अच्छे नहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले ही शिवसेना ने अविश्वास प्रस्ताव पर हुई राजनीति में मोदी सरकार के पक्ष में मतदान करने से इन्कार कर दिया था। शिरोमणि अकाली दल के प्रतिनिधि प्रेम सिंह चंदूमाजरा ने संसद में खड़े हो कर आंध्र प्रदेश की ह़कतल़फी करने के लिए मोदी सरकार की लानत-मलामत की थी। बीजू जनता दल ने अनुपस्थित रह कर भाजपा सरकार के वोटों में बढ़ौतरी करने से परहेज़ किया था। समीक्षकों को सवाल पूछना चाहिए कि ये सभी क्षेत्रीय दल किस वज़ह से सरकार के पक्ष में चले गए? क्या यह वज़ह स्थायी है या अस्थायी? दूसरा तथ्य यह है कि कांग्रेस शुरू से उप-सभापति के पद पर अपने बजाय एक भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल का उम्मीदवार खड़ा करना चाहती थी। इसके लिए राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की वंदना चव्हाण का नाम भी तय हो गया था। लेकिन जब शरद पवार ने ओडिशा के मुख्यमंत्री को समर्थन के लिए फोन किया तो उन्हें पता चला कि उनसे पहले ही वे नितीश कुमार की अपील पर हरिवंश को समर्थन करने का वायदा कर चुके हैं। इस पर पवार के सामने स्पष्ट हो गया कि उनकी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सकतीं। इसी के बाद उन्होंने अपने नेता का नाम वापिस ले लिया और कांग्रेस को मजबूरी में अपना उम्मीदवार खड़ा करना पड़ा। 
हकीकत यह है कि विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करके भाजपा ने राज्यसभा में अपनी उपस्थिति बढ़ा ली है। इस समय भाजपा के पास बहुमत तो नहीं है, पर वह सदन की सबसे बड़ी पार्टी है। उसकी यह स्थिति ही उसके तथाकथित ज़ोरदार प्रबंधन की मुख्य वज़ह है। भाजपा की इसी स्थिति के कारण उसके खिल़ाफ संघर्ष कर रहे क्षेत्रीय दल अपना कोई उम्मीदवार देने के लिए राज़ी नहीं हुए, और यह जानते हुए भी कि हार निश्चित है, कांग्रेस को अपना उम्मीदवार खड़ा करना पड़ा। मैं कांग्रेस की राजनीति का कटु आलोचक रहा हूं- लेकिन इस मामले में मैं इस पार्टी की ताऱीफ करूंगा। अगर उसी शुरुआती रणनीति के अनुसार कोई क्षेत्रीय दल का उम्मीदवार खड़ा हो जाता तो नज़ारा एकदम बदल सकता था। बीजू जनता दल के वोट भाजपा को नहीं मिलते, और शिवसेना एक बार फिर से अनुपस्थित रह सकती थी। आम आदमी पार्टी खुल कर सामने आती और विपक्ष के उम्मीदवार को उसके तीन वोट भी मिलते। उस समय कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल से समर्थन मांगने की ज़रूरत ही न पड़ती। राज्यसभा की पेशबंदी के इन सामान्य तथ्यों को नज़रअंदाज़ करने के साथ-साथ भाजपा की क्षेत्रीय ताकतों के बीच अचानक बढ़ी लोकप्रियता की ताऱीफ करने वालों को यह भी बताना चाहिए कि क्या बीजू जनता दल ओडीशा में भाजपा के साथ गठजोड़ करके चुनाव लड़ेगा या दोनों एक-दूसरे के खिल़ाफ लड़ेंगे? ऐसा क्यों है कि नवीन पटनायक के इस फैसले के कारण बीजद की कतारें स्वयं को भ्रमित और नाखुश पा रही हैं? इसी तरह उन्हें इस तथ्य पर भी रोशनी डालनी चाहिए कि महाराष्ट्र में क्या शिवसेना ने भाजपा के खिल़ाफ चुनाव लड़ने का अपना प्रस्ताव वापिस ले लिया है? क्या तेलंगाना में चंद्रशेखर राव की पार्टी ने राजग में जाने का फैसला कर लिया है?  इसी के साथ-साथ इस प्रकरण के ज़रिये विपक्ष की एकता (जिसे व्यंग्य से महागठबंधन या ‘महाठगबंधन’ कहा जाता है) का जो परिप्रेक्ष्य पेश किया जा रहा है, उस पर भी एक दृष्टि डालना आवश्यक है। छवि ऐसी बनाई जा रही है कि सारे देश में विपक्षी पार्टियां एक मंच पर आ जाएंगी, और मिल-जुल कर हर जगह भाजपा के खिलाफ एक उम्मीदवार खड़ा किया जाएगा। राजनीति का सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला। अगर ऐसा हुआ तो भी वह भाजपा के पक्ष में चला जाएगा- क्योंकि तब नरेंद्र मोदी को 2019 का चुनाव जनमतसंग्रह में बदलने की सुविधा मिल जाएगी। असलियत यह है कि विपक्ष का गठबंधन राज्यों के स्तर पर होगा और जहां ज़रूरी होगा वहीं उसकी कोशिश भी की जाएगी। मसलन, यह समझना नामुमकिन है कि राज्य सभा की यह पेशबंदी किस तरह से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ की संभावनाओं को आहत करती है? सारे गठजोड़ों में भाजपा सबसे ज़्यादा इसी गठजोड़ की संभावनाओं से आहत है। यह उड़ती-उड़ती खबर कि कांग्रेस और अजित सिंह की पार्टी ने सपा-बसपा के साथ हाथ मिलाने पर सैद्धांतिक सहमति कर ली है, भाजपा की नाव डगमगा देने के लिए काफी साबित हो रही है। इसी तरह महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के बीच वह गठजोड़ होना तकरीबन तय है जिसके टूटने के कारण भाजपा को वहां जीतने का मौका मिला था। कर्नाटक में अगर कांग्रेस और जनता दल (सेकुलर) के बीच सीटों का तालमेल हो गया तो भाजपा को वहां पांच सीटें जीतना भी मुश्किल हो जाएगा। तमिलनाडु में कांग्रेस का द्रमुक से गठजोड़ तयशुदा जैसा है, और अन्नाद्रमुक के सांगठनिक बिखराव की स्थिति में द्रमुक इस समय प्रदेश की सर्वाधिक सुसंगठित शक्ति है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच गठबंधन की चर्चा हवाओं में है। वैसे तो ममता बनर्जी की पार्टी वहां पहले से सुसक्षम है, और अगर कांग्रेस वहां उसके साथ जुड़ गई तो बाकी सभी दलों का सूपड़ा स़ाफ हो सकता है। यह कोई भविष्यवाणी नहीं है। ये सभी संभावनाएं हैं जो बदल भी सकती हैं। लेकिन, इनके विकास की दिशा बताती है कि भाजपा को राज्यों के स्तर पर इस बार विपक्षी एकता का सामना करना पड़ सकता है। राज्यसभा के उप-सभापति के चुनाव में क्या हुआ, इससे यह राजनीति पूरी तरह से स्वतंत्र है। अक्तूबर-नवम्बर में होने वाले राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनावों के बाद एक बार फिर से तय होगा कि क्षेत्रीय ताकतें राजग में भरोसा जताएंगी या संप्रग में। तब हमें एक बार राजनीतिक शक्तियों के बदले हुए संतुलन का आकलन करना होगा। तब तक हम चाहें तो इन तथाकथित विशेषज्ञों की गैर-गम्भीर चुहलबाज़ियों से अपना मनोरंजन कर सकते हैं।