बेरोज़गारी की समस्या और मोदी स्टाइल समाधान

मोदी सदल-बल अगले आम चुनाव में विजय प्राप्त करने के लिए लंगर-लंगोटे कस कर चुनाव प्रचार अभियान में उतर चुके हैं। मोदी जी अपने ताज़ा बयानों में यह कह रहे हैं कि वह इस चुनाव में विजय, वोटों के धार्मिक ध्रुवीकरण अथवा साम्प्रदायिक उन्माद भड़का कर प्राप्त नहीं करेंगे, बल्कि पिछले चार वर्ष में उन्होंने देश के आर्थिक कायाकल्प के लिए इतना काम किया है, 2014 में अपने चुनावी घोषणा-पत्र में आर्थिक विकास द्वारा आम आदमी के लिए अच्छे दिन लाने के अपने वायदों को इस कद्र पूरा किया है कि जनता आश्वस्त होकर अपने मतों से अपने आप उन्हें जितवा कर अगली शासन पारी पकड़ा देगी, ताकि वह अपने अधूरे काम पूरे कर सकें। सन् 2022 तक भारत को दुनिया की महाशक्ति और सबसे तेज गति से आर्थिक विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बनाने का उनका वायदा है। लेकिन इन दावों को केवल हवाई बात कहने वाले कम नहीं हैं। उनकी सबसे बड़ी आलोचना यह है कि सही मोदी काल की इस पारी में विकास दर बढ़ी। मोदी काल से पहले यह पांच प्रतिशत तक लुढ़क गई थी, अब यह बढ़कर फिर 7.3 प्रतिशत को स्पर्श कर रही है। देश के शेयर सूचकांक की ऊंचाई देख लो, इस समय वह 38000 के शीर्ष को स्पर्श कर रही है। इसका अर्थ यह है कि मोदी काल में देशी-विदेशी निवेशकों का भरोसा देश के शासन की साख, स्थिरता और सुदृढ़ता के प्रति बढ़ा है। अंतर्राष्ट्रीय मूल्यांकन संस्थान फिंच और मूडीज़ भी बताते हैं कि इन वर्षों में भारत व्यवसाय करने के लिए अधिक सुविधाजनक और निवेश करने के लिए अधिक भरोसेमंद देश बन गया है। लेकिन इसके बावजूद आशा के अनुरूप देश में विदेशी निवेश नहीं आया। इसका कारण यह है कि अभी भी उन्हें देश के नौकरशाहों का लालफीताशाह ढांचा हज़म नहीं हो रहा। उत्पादन प्रक्रिया के कन्धों पर ज़रूरत से अधिक नियम, कायदों और कानूनों का बोझ लदा है।मोदी जी के दिलासे के बावजूद यह हटा नहीं। इसलिए सबकी उम्मीद के मुताबिक यह निवेश आया नहीं। जो आया वह देश के सामाजिक तकाजों के मुताबिक दिशा-निर्देशित निवेश नहीं था, बल्कि उपभोक्ता क्षेत्र में निवेशक को अधिक लाभ देने वाला निवेश था। देश का पूंजी निर्माण अथवा मूलभूत आर्थिक ढांचे का निर्माण इन्होंने नहीं किया। बल्कि देश को उसके सांस्कृतिक आधार से हटा कर उस पर पश्चिम के आधुनिकीकरण के अंधानुकरण का रवैया पैदा कर दिया।
अब चुनाव करीब जानकर मोदी की चुनाव मशीनरी सक्रिय हो देश की विकास यात्रा के रोज़गार विहीन होने को मिथ्या साबित करने पर तुल गई है। उसका कहना है कि मोदी सरकार के पिछले एक साल में एक करोड़ से ज्यादा नौकरियां पैदा हुई हैं, इसलिए रोज़गार विहीन विकास का मिथ्या प्रचार बन्द होना चाहिए। लेकिन यह सरकारी आंकड़े भी स्पष्ट बता रहे हैं कि नौकरियों के ये अवसर उन नौकरियों से कहीं कम हैं, जो बेकार नौजवान अपने लिए मांग रहे हैं। मोदी सरकार वायदा खिलाफी के इस आरोप से इन्कार करती है कि उसने हर हाथ को काम देने का समावेशी विकास नहीं किया। उसका यह कहना है कि उसके काम देने के वायदे में स्वरोज़गार प्रदान करने के अवसर भी शामिल थे। इसके लिए उन्होंने बिना ज़मानत छोटे ऋणों की व्यवस्था करने वाली मुद्रा योजना की शुरुआत की है। लेकिन इससे प्रेषित ऋण इतना कम है कि इसकी औसत प्रति जन 43 हज़ार रुपए बैठती है। अब बताइये, आजकल के इस महंगाई के ज़माने में इतनी राशि से कौन-सा ढंग का काम शुरू किया जा सकता है। अमित शाह ने पकौड़े बेचने का धंधा शुरू करने का उदाहरण दिया था।