मोमबत्तियों का सफर

देश की आज़ादी के 71 वर्ष पूरे हो गए हैं। इस बार देश के लोगों ने आज़ादी की 72वीं वर्षगांठ मनाई है। जब भी आज़ादी की वर्षगांठ आती है, तो एक तरफ तो लोगों के मनों में इस दिन के प्रति उत्साह होता है। आज़ादी के संघर्ष के लिए बड़ी कुर्बानियां करने वाले देशभक्तों के प्रति श्रद्धा और सम्मान के भाव होते हैं और दूसरी तरफ आज़ादी मिलने के साथ ही देश के हुए विभाजन तथा इस विभाजन के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा में मारे गए लोगों और एक करोड़ विस्थापित हो गए लोगों की दुखद यादें भी हमारे मन को सताने लगती हैं। खासतौर पर पंजाबी जिन्होंने देश की आज़ादी में 80 प्रतिशत कुर्बानियों का बड़ा योगदान डाला था और देश के विभाजन के साथ ही पंजाब का विभाजन होने से सबसे अधिक दुख भी पंजाबियों ने उठाया था, के मनों में एक बड़ी दुविधा पैदा होती है। बहुत सारे पंजाबी युवक इतिहास पढ़ने के बाद अब यह सवाल उठाने लगे हैं कि 15 अगस्त के दिन हम आज़ादी के जश्न मनाएं या पंजाब के हुए विभाजन और तबाही का शोक मनाएं?
इस  संबंध में हमारा विचार यह है कि नि:संदेह 1947 के घटनाक्रम ने पंजाब तथा पंजाबियों की बड़ी तबाही की है। देश का विभाजन एक पहाड़ जितनी गलती था, जिसके लिए ब्रिटिश सरकार, कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग तीनों एक समान ज़िम्मेदार थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू को तो बाद में यह एहसास भी हो गया था कि मुस्लिम लीग और अंग्रेज़ों के दबाव में विभाजन को स्वीकार करना एक बड़ी गलती थी। इसके स्थान पर कोई अन्य अच्छे विकल्प भी हो सकते थे, परन्तु जो इतिहास बीत गया है, इतिहास ने जो नुक्सान देश का और खासतौर पर पंजाबियों का कर दिया है, उसकी मुकम्मल पूर्ति तो नहीं हो सकती परन्तु इस नुक्सान को कम किस तरह किया जा सकता है और इस क्षेत्र के जो लोग हज़ारों वर्षों तक एक साथ रहते आ रहे थे, उनके मिलने के लिए और हर क्षेत्र में सहयोग के लिए रास्ते किस तरह खोले जा सकते हैं, और यह क्षेत्र भी दुनिया के अन्य देशों की तरह कैसे विकास कर सकता है। यहां अमन और सद्भावना कैसे बहाल की जा सकती है, यह सवाल इस क्षेत्र के जागरूक लोगों के सामने आज़ादी के बाद से ही निरन्तर खड़े रहे हैं और आज भी यह सवाल बरकरार हैं, क्योंकि देश के विभाजन के साथ ही भारत और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी की ऐसी नींव रखी गई जिसको आज तक भी हिलाया नहीं जा सका, खासतौर पर कश्मीर का विवाद ऐसा मामला बन गया है जो हमें बेहतर भविष्य की ओर बढ़ने नहीं दे रहा। इसी तरह के एहसासों और स्थितियों को ध्यान में रखते हुए देश के प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अटारी-वाघा सीमा पर 14 अगस्त की रात को मोमबत्तियां जलाने का सिलसिला शुरू किया था और इस उद्देश्य के लिए हिन्द-पाक दोस्ती मंच की स्थापना की गई थी। उद्देश्य यह था कि भारत और पाकिस्तान के करोड़ों लोग जो क्षेत्र में शांति और विकास चाहते हैं और सीमाओं के आरपार आ-जा कर ज़िंदगी के हर क्षेत्र में सहयोग करना चाहते हैं, उनके विचारों को एक माध्यम तथा एक आवाज़ मुहैय्या की जा सके। धीरे-धीरे इस काफिले में फोकलोर रिसर्च अकादमी, साऊथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन, पाकिस्तान-इंडिया पीपल्ज़ फोरम फॉर पीस एण्ड डैमोक्रेसी, साफ्मा, सरबत का भला ट्रस्ट, नाट्यशाला अमृतसर और पंजाब जागृति मंच आदि संगठन भी शामिल हो गए। गत 22 वर्षों से यह सिलसिला चलता आ रहा है। इस बार 23वां हिन्द-पाक दोस्ती मेला अमृतसर में मनाया गया। पहले दिन 13 अगस्त की शाम को प्रसिद्ध पाकिस्तानी नाटक निर्देशिका मदीहा गोहर को श्रद्धांजलि देने के लिए नाट्यशाला में एक प्रभावशाली समारोह करवाया गया, जिसको प्रसिद्ध नाटककार केवल धालीवाल, ज्ञान सिंह (जर्मनी), अमृतसर से लोकसभा के सदस्य गुरजीत सिंह औजला, लाला लाजपत राय सोसायटी नई दिल्ली के सचिव सत्यपाल, दीपक बाली तथा फोकलोर रिसर्च अकादमी के चेयरमैन रमेश यादव द्वारा सम्बोधन किया गया। उसके बाद 14 अगस्त की सुबह को भारत और पाकिस्तान के संबंधों के बारे में सैमीनार हुआ, जिसमें राजस्थान पत्रिका के सलाहकार सम्पादक ओम बानवी, योजना आयोग की पूर्व चेयरमैन साइदा हमीद, प्रोफेसर कुलदीप सिंह, राममोहन राय, जतिन देसाई और दक्षिण एशियाई मामलों के बारे प्रसिद्ध विद्वान कमर आगा जैसी शख्सियतों द्वारा सम्बोधन किया गया। इस सैमीनार में फोकलोर रिसर्च अकादमी द्वारा विशेष तौर पर प्रकाशित की गई पत्रिका ‘पंज पाणी’ भी रिलीज़ की गई। शाम को ही नाट्यशाला में ही एक प्रभावशाली सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ, जिसमें युवा सूफी गायक खान साब और अनादि मिश्रा ने अपनी गायकी से लोगों को अमन और दोस्ती का पैगाम दिया। रात 12 बजे सीमा पर दोनों देशों के लोगों को अमन और दोस्ती का पैगाम देने के लिए मोमबत्तियां जलाईं गईं परन्तु इस बार पाकिस्तान से साऊथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन के कार्यकर्ताओं को सीमा पर आने के लिए अनुमति न मिलने के कारण पाकिस्तान की तरफ से इस अमल में कोई शामिल नहीं हो सका। परन्तु पाकिस्तान में अमन और दोस्ती के लिए कार्य करने वाले शांति-प्रेमियों ने यह संदेश अवश्य भेजा कि वह अगली बार बनने वाली नई सरकार से स्वीकृति लेकर मोमबत्तिया जलाने के लिए अवश्य आयेंगे। लेखक 1996 से ही इस अमल से जुड़े रहे हैं। पीछे की ओर लौट कर जब इस सारे सिलसिले पर दृष्टि डालते हैं तो यह सफर काफी मुश्किल लगता है, क्योंकि इन सभी वर्षों के दौरान दोनों देशों के बीच बेहद टकराव बना रहा है। संसद पर हमला होने के बाद दोनों देशों की सीमाओं पर युद्ध जैसी स्थिति बन गई थी। इसी तरह जम्मू-कश्मीर की विधानसभा पर हमला होने और देश के अन्य अलग-अलग हिस्सों में बार-बार बम विस्फोट होने के कारण देश में ऐसे हालात बन गए थे कि कई बार भारत और पाकिस्तान की दोस्ती की बात करना जोखिमपूर्ण कार्य बन गया था। इस तरह के हालात में कई बार हमारे समर्थक भी कहने लगते थे कि मोमबत्तियां जलाने के सिलसिले को अस्थायी तौर पर स्थगित कर दिया जाए, ऐसे समय प्रसिद्ध शायर तारा सिंह कोमल की ये पंक्तियां भी याद आती हैं :
काहनू बालदां बनेरे ते मोमबत्तियां
लंघ जाण दे बाज़ारां चों हवावां तत्तीयां
फिर हमारे कई अन्य समर्थक यह राय भी देते थे कि जब दोनों देशों में ज्यादा तनाव बना हो, युद्ध का खतरा हो उस समय तो अमन और दोस्ती की बात करने की अधिक ज़रूरत होती है। आगे-पीछे अमन और दोस्ती की बात करना कोई ज्यादा महत्व नहीं रखता। इस तरह की सलाह के बाद हम अपने लोकप्रिय शायर सुरजीत पातर की इस नज़्म से प्रेरणा लेने की कोशिश करते थे :
जगा दे मोमबत्तियां
उठ जगा दे मोमबत्तियां।
एह तां एत्थे बगदियां ही रहिण गियां,
पौणा कुपत्तियां, तू जगा दे मोमबत्तियां।
नेर न समझे कि चानण डर गया है,
रात न सोचे कि सूरज मर गया है।
बाल जोतां आस भरियां,
माणमतियां, उठ जगा दे मोमबत्तियां।
 इस तरह की परिस्थितियों में किसी न किसी तरह हम इस सिलसिले को जारी रखने में सफल हुए हैं। चाहे अभी दोनों देशों के बीच संबंधों में कोई बड़ा सकारात्मक बदलाव नहीं आया परन्तु हर वर्ष अटारी-वाघा की सीमा पर मोमबत्तियां जलाने से अब भारत और पाकिस्तान तथा दुनिया के अन्य देशों में रहते भारतीयों तथा पाकिस्तानियों तक यह संदेश अवश्य चला गया है कि हर वर्ष 14 अगस्त की रात को सीमा पर मोमबत्तियां जला कर कुछ लोग अमन और दोस्ती की कामना करते हैं, उनका साथ दिया जाना चाहिए। इस बार आस्ट्रेलिया के शहर ऐडीलेड में भी भारत और पाकिस्तान के लोगों ने मिलकर एक हाल में दोनों देशों के लोगों तथा सरकारों को अमन और दोस्ती का पैगाम देने के लिए मोमबत्तियां जलाई हैं। इस वर्ष यह सिलसिला अंतर्राष्ट्रीय रूप धारण करता नज़र आ रहा है। उम्मीद है कि अन्य देशों में रहते भारतीय तथा पाकिस्तानी भी इस तरह के आयोजनों के लिए मिलकर आगे आयेंगे। इस बार की एक विशेष विलक्षणता यह भी रही कि राम मोहन राय पानीपत दिल्ली राजघाट से एक बस लेकर शांति प्रेमियों के एक बड़े काफिले के साथ इस कार्यक्रम में शामिल हुए।हम समझते हैं कि इस क्षेत्र में एक शक्तिशाली शांति की लहर खड़ी करने और आतंकवादी संगठनों का विरोध करने के लिए भारत और पाकिस्तान के करोड़ों लोगों को जागृत होकर आगे आने की ज़रूरत है। जब तक शक्तिशाली लहर नहीं बनती तब तक दोनों देशों की सरकारों से इस दिशा में बड़े सकारात्मक कदमों की उम्मीद नहीं की जा सकती।