सुखी कौन ?

भगवान गौतम बुद्ध विहार करते हुए एक बार पाटलीपुत्र पहुंचे। प्रतिदिन उनकी सेवा में भक्तगण आते, प्रवचन होते। एक दिन सम्राट, मात्य, महामात्य, सेनापति और भद्रजन सभी उनकी सभा में मौजूद थे। सभा में बुद्ध का प्रिय शिष्य आनन्द भी उपस्थित था। उसने प्रश्न किया, भन्ते! यहां बैठे लोगों में सबसे सुखी कौन है? बुद्ध एक क्षण मौन रहे। फिर उन्होंने सभी उपस्थित जनों पर नजर डाली। सारी सभा में सन्नाटा छा गया। वहां बैठे सभी लोग सोचने लगे कि बुद्ध की दृष्टि राजा, श्रेष्ठियों व धन कुबेरों पर ही टिकेगी परन्तु उन्होंने देखा कि सबसे पीछे एक कोने में एक फटेहाल, कृशकाय व्यक्ति बैठा था। बुद्ध ने संकेत किया और कहा, सबसे सुखी वह है। सभी लोग चकित रह गए। उनकी दुविधा बढ़ गई। तब आनन्द ने पुन: प्रश्न किया, भन्ते! सरल व स्पष्ट रूप से बताइए। तब बुद्ध ने राजा से पूछा कि आपको क्या चाहिए? राजा ने कहा, राज्य का विस्तार इस प्रकार क्रमश: सभी वर्ग के लोगों से पूछा तो सभी ने अपनी-अपनी जरूरतें बताईं। अंत में उस फटेहाल व्यक्ति से पूछा तो उसने कहा, ‘कुछ भी नहीं। फिर भी आपने कहा है तो मेरी एक विनती है कि मुझमें ऐसी चाह पैदा हो कि मेरे मन में कोई चाह पैदा ही न हो।’ सबको समाधान मिल गया कि व्यक्ति धन, वैभव, वेशभूषा इत्यादि से सुखी नहीं होता बल्कि सुख तो व्यक्ति के भीतर रहता है।

-योगेश कुमार गोयल