वाजपेयी ने राजनीतिक चुनौतियों का सामना कैसे किया ?

अटल बिहारी वाजपेयी से मेरी मुलाकात अस्सी के दशक में उस समय हुई थी जब मैं साप्ताहिक ‘दिनमान’ के लिए लेखन कार्य किया करता था। मैं अटल जी का इंटरव्यू लेने के लिए गया। मुझे यह कबूल करने में कोई संकोच नहीं है कि वामपंथी खेमे से आने के बावजूद उस दिन उनकी बातचीत की शैली, राजनीतिक हाज़िर जवाबी और सहजता मुझे पसंद आई। इससे पहले मैं भाजपा के दूसरे बड़े नेता लालकृष्ण अडवानी से भी इंटरव्यू ले चुका था। लेकिन उस इंटरव्यू की कोई सुखद स्मृति मेरे पास नहीं है। अडवानी मुझे कुछ सख्त मिजाज़ लगे। इसके बाद भी एक-दो बार वाजपेयी जी से मुलाकात हुई, और हर बार उन्होंने मुझ पर आत्मीयता की छाप छोड़ी। लेकिन आज मैं उनके साथ अपने इस मामूली से संबंध को एक तऱफ रखता हुआ उनके व्यक्तित्व के कुछ राजनीतिक पहलुओं की चर्चा करना चाहता हूं। 
अटल बिहारी वाजपेयी को मिली श्रद्धाजलियां सुन और पढ़ कर ऐसा लगता है कि एक राजनेता के तौर पर उनका व्यक्तित्व उनकी कविताओं और सांस्कृतिक शख्सियत के पीछे कहीं छिप गया है। यह एक विडम्बना ही है कि जो व्यक्ति मुख्य तौर से एक राजनीतिज्ञ था, उसे उसके राजनीतिक कौशल और उसके ज़रिये लोकतांत्रिक सार्वजनिक जीवन में उसके योगदान को याद करने में संकोच किया जाए। हम जानते हैं कि इस देश में कवि होना और यहां तक कि अच्छा कवि होना एक तरह से आसान है। लेकिन आज के ज़माने में अच्छा नेता होना आसान नहीं है। अस्सी के दशक के बाद से ही भारतीय लोकतंत्र के लिए कठिन समय चल रहा है, और अटल जी की यह अनूठी उपलब्धि थी कि उन्होंने इस मुश्किल वक्त को दूसरों के मुकाबले बेहतर तरीके से गुज़ार कर दिखाया। 
ज़ाहिर है कि वे संत नहीं थे। उन्होंने अपनी पार्टी के बाहर और भीतर जम कर राजनीतिक प्रतियोगिता की, हर तरह के दांव-पेंच किये और शीर्ष पर पहुंचे। इस प्रक्रिया में पचास साल से भी ज़्यादा समय तक उन्होंने कई अंतर्विरोधों और विरोधाभासों का सामना किया। लेकिन बड़ी कुशलता से वे उन उलझनों से निकल आए। 16 अगस्त को जब उनके देहांत की घोषणा हुई, तो उनका दामन पूरी तरह बेदाग था। वे यही चाहते थे कि उनका गमन इसी तरह से हो।
मैं यहां राजनीतिक होड़ के उन चार क्षणों को विश्लेषित करना चाहूंगा जिनका अटल जी के राजनीतिक जीवन के लिए बहुत महत्व है। पहला क्षण वह है जब साठ और सत्तहर के दशक में उन्होंने भारतीय जनसंघ के भीतर बलराज मधोक की हस्ती से लोहा लिया। मधोक भी वाजपेयी की तरह प्रभावशाली वक्ता (शायद उतने मोहक नहीं), विचारधारात्मक रूप से दृढ़, लेखक, सिद्धांतकर्ता और एक प्रेरक संगठनकर्ता थे। उनके नेतृत्व में जनसंघ चुनाव के मैदान में प्रगति करता हुआ प्रतीत भी हो रहा था। संघ के भीतर आदर्श समझी जाने वाली पवित्रतावादी जीवनशैली के आईने में देखने पर मधोक वाजपेयी से इक्कीस बैठते थे। वे वाजपेयी से नाखुश रहते थे और उन्होंने संघ परिवार के भीतर वाजपेयी की जीवनशैली को लेकर गुरु गोलवलकर के सामने आपत्तियां भी दर्ज कराई थीं। लेकिन संघ को जल्दी ही समझ में आ गया कि विचारधारात्मक निष्ठा और विभिन्न योग्यताओं के बावजूद मधोक के भीतर संघ से हट कर एक स्वतंत्र आधार बनाने की प्रवृत्ति है। मधोक के बारे में संघ की इस राय का वाजपेयी को लाभ मिला। मधोक के नेतृत्व का पतन होने के बाद बागडोर वाजपेयी के हाथ में आई।  उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अगले पच्चीस साल तक पार्टी का नेतृत्व अटल और उनके परम सहयोगी अडवानी के बीच इधर से उधर होता रहा।  अटल और अडवानी के आपसी संबंधों में वैसे तो सहयोग की प्रधानता थी, लेकिन उनके बीच टकराव के बिंदुओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। मुख्य तौर पर दो बार यह टकराव गम्भीर होता हुआ लगा। पहली बार तब जब अटल जी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल मुशर्ऱफ को आगरा शिखर वार्ता के लिए बुलाया। अडवानी इसके विरोध में थे। उन्होंने इस पूरे प्रयास को भीतर से विफल करने की भरपूर कोशिश की, और उसमें कामयाब भी हुए। दूसरी बार यह टकराव तब सामने आया जब संघ परिवार की तऱफ से वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद छोड़ देने का एक नरम संदेश मिला। बात कुछ इस तरह से की गई कि ‘टायर्ड’ हो गये हैं इसलिए उन्हें ‘रिटायर’ हो जाना चाहिए। लेकिन वाजपेयी ने इसका उत्तर ‘न मैं टायर्ड हूं, न रिटायर्ड’ कह कर दिया। उन्होंने प्रधानमंत्री पद नहीं छोड़ा, लेकिन संघ के दबाव में उन्हें अडवानी को उप-प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करना पड़ा। यह एक तरह से उनके प्राधिकार में कटौती थी। संघ परिवार की तऱफ से उनके व्यक्तिगत जीवन पर हमले भी हुए- यहां तक कि तत्कालीन सरसंघचालक सुदर्शन तक ने एक टिप्पणी की। वाजपेयी ने इस टिप्पणी का उत्तर देने से बचते हुए संघ, अडवानी और अपने बीच कुशलतापूर्वक एक समायोजन निकाला।  शीर्ष-सत्ता में अडवानी के साथ हिस्सा बंटाया और किसी तरह से संकट को टाल दिया।  टकराव का चौथा क्षण 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के कारण आया। इस प्रकरण में एक तऱफ अडवानी थे जो संघ परिवार की नुमाइंदगी कर रहे थे। दूसरी तऱफ मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे जिनका राजनीतिक भविष्य पूरी तरह दांव पर लगा हुआ था। तीसरी तऱफ अटल बिहारी थे जिनकी मान्यता थी कि मोदी राजधर्म का पालन करने से चूक गए हैं इसलिए उन्हें सत्ता छोड़ देनी चाहिए। गोवा में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोर्चा खुला। आक्रमण-प्रतिआक्रमण का दौर चला। जैसे ही मोदी ने इस्त़ीफे की पेशकश की, प्रतिनिधियों की तऱफ से ज़बरदस्त विरोध करवाया गया। अटल बिहारी समझ गये कि इस मामले में उन्हें कदम पीछे खींचने पड़ेंगे। इसके बाद उन्होंने जो भाषण दिया, वह समझौते और समन्यवय का एक उदाहरण था। वे जानते थे कि न तो वे अडवानी के सहयोग के बिना चल सकते हैं, और न ही संघ परिवार की सदस्यता के बिना उनकी राजनीति परवान चढ़ सकती है। मोदी के प्रति अपनी आलोचना उन्होंने इतिहास में दर्ज भी करा दी, और बात भी वापिस ले ली।  
अटल जी जानते थे कि राजनीति काजल की कोठरी है। उनकी इच्छा थी कि उनके हाथ कभी काले न दिखाई दें। लेकिन उन्हें उस समय इसी खतरे का सामना करना पड़ा जब प्रधानमंत्री द़फ्तर पर उनके दामाद (दत्तक) के प्रभाव की पत्रकारीय कहानियां प्रमुखता से छपने लगीं। उस समय याद आया कि जैन हवाला डायरी कांड के वक्त उन्होंने संसद में क्या भाषण दिया था। अटल जी ने अ़फसोस करते हुए पूछा था कि आखिर राजनीति करने के लिए कितना पैसा चाहिए? इस दामाद कांड की रोशनी में उनका वह भाषण एक विडम्बना की तरह लग रहा था। पार्टी के भीतर के कुछ तत्व भी इस मसले को बढ़ावा दे रहे थे। लेकिन इस मुकाम पर भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया, और अपने परिवारीय प्रकरण के धुर्रे उड़ाने पर आमादा विपक्ष के साथ कुशलतापूर्वक एक ‘बैक चैनल’ खोला। इसका नतीजा यह निकला कि राजनीति में इस मुद्दे के इर्द-गिर्द पैदा हो रही गरमी कुछ दिनों के बाद शांत हो गई। धीरे-धीरे यह ‘दामाद कांड’ सार्वजनिक जीवन की स्मृति से तिरोहित हो गया। 
ये सभी प्रकरण अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीति के भीतरी संघर्ष का एक नज़ारा पेश करते हैं। कहना न होगा कि हर बार परिस्थितियों और समय ने भी उनका साथ दिया। अगर ऐसा न होता तो विपरीत परिस्थितियां उनके राजनीतिक करियर की बलि भी ले सकती थीं। 
यह इस दक्षिणपंथी राजनीति का दुर्भाग्य ही है कि न तो वाजपेयी से पहले उसके पास कोई उदार शख्सियत थी, और न वाजपेयी के बाद है। आज हमारे पास घटनाओं की पश्चात्-दृष्टि है। अगर इन भीतरी संघर्षों में वाजपेयी हार गए होते तो दक्षिणपंथी राजनीति अपने सर्वाधिक उदार नेता और उसकी उदारतावादी राजनीति से वंचित रह जाती।