बैंकों और सहकारी संस्थाओं की कार्यशैली में सुधार लाने की ज़रूरत

ऋण संहिता को बिल्कुल ही उपेक्षित करके वोट लेने के एकमात्र उद्देश्य से शुरू की गई ऋण माफी की मुहिम ने बैंकों और सहकारी संस्थाओं के ऋण देने के बुनियादी ढांचे को ही छिन्न-भिन्न करके रख दिया है। बैंकों के ढांचे में तो बड़ी हलचल हुई ही है मुस्तफीद किसानों में भी अशांति फैल गई है। बहुमत ने ऋणों की वापिसी बंद कर दी है। राष्ट्रीय बैंकों और सहकारी बैंकों के देनदारों की संख्या में भारी वृद्धि हो गई है और बकाये बढ़ गए हैं। बैंकों और सहकारी संस्थाओं ने किसानों को और ऋण देने लगभग बंद ही कर दिए हैं। बैंकों से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। पंजाब नैशनल बैंक में हुए घोटालों के बाद सभी बैंक घाटे में आ गए हैं। एफ.आर.डी.आई. बिल ने तो अमानतदारों के बीच बहुत डर पैदा कर दिया था। एक समय तो कुछ व्यक्तियों और एन.आर. आईज़ ने अपनी अमानतें निकलवानी शुरू कर दी थीं। अब एफ.आर.डी.आई. बिल के वापिस लिये जाने के बाद बैंकों के डिपॉजटरों के बीच पैदा हुआ डर कुछ कम हुआ है। यदि यह बिल पास हो जाता तो अमानतों का पैसा भी बैंकों को संकट से निकालने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। इस वर्ष विशेषकर अधिकतर क्षेत्रों में वर्षा न होने के कारण और दूसरों में साधारण से कम वर्षा होने के कारण फसलों के पालन-पोषण पर किसानों का बहुत खर्च हो रहा है और डीज़ल तथा अन्य सामग्री के लिए किसानों के पास पैसा न होने के कारण कई स्थानों पर फसल बुरी तरह प्रभावित हो रही है। किसान पुन: आढ़तियों तथा बड़े ज़मींदारों की ओर देखने लगे हैं। कीमियाई खाद, बीज तथा अन्य कृषि सामग्री के डीलरों की वसूली रुकने के कारण उन्होंने सामग्री उधार देनी बंद कर दी है। चाहे हर रोज़ किसानों को ऋणों के बोझ के कारण आत्महत्या करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, परन्तु उनमें से अधिकतर आत्महत्या इसलिए भी कर रहे हैं, क्योंकि उनको वर्तमान जीवन जीना मुश्किल हो गया है। उनको आवश्यक ज़रूरतें पूरी करने के लिए भी पैसे की आमद चारों तरफ से बंद हो गई है। चाहे दोष यह लगते रहे हैं कि पहले बैंक और सहकारी संस्थाएं उनको ज़रूरत से अधिक उनकी भूमि की मलकीयत को ध्यान में रखने के बिना ही ऋण देते रहे परन्तु कमज़ोर वर्ग के किसान फिर भी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी किसी न किसी ढंग से व्यतीत कर रहे थे, जो अब दूभर हो जाने के कारण आत्महत्याएं करने का रुझान और बढ़ता जा रहा है।
आज़ादी मिलने के बाद के जन्में किसान वर्ग के कुछ व्यक्तियों के साथ सम्पर्क करने के बाद यह प्रकट हुआ कि वह स्वयं को हरित क्रान्ति से पहले अब के मुकाबले सुखी और संतुष्ट महसूस करते थे और उनकी ज़रूरतें भी बहुत ज्यादा नहीं थीं। बाद में पिछली शताब्दी के पांचवें दशक से ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण (रूरल क्रैडिट सर्वे) के बाद सहकारी लहर भी उनके लिए काफी सहायक हुई। छोटे-छोटे स्तर की बचतें और ऋण सहकारी सोसायटियां जो गांवों में स्थापित  थीं, उनको ज़रूरत के समय ऋणों द्वारा सहायता दे देती थीं और गांवों के लोग अपनी बचतें उन सहकारी सभाओं में जमा भी करवा देते। गांवों के लगभग सभी किसान परिवार इस सहकारी संस्था के सदस्य होने के नाते एकत्रित होते और जिन किसानों की जो भी ज़रूरतें होतीं, वह इन सहकारी सभाओं से ऋण देकर पूरी कर देते। इस तरह कोई ज़रूरत से अधिक ऋण नहीं ले सकता था और गांव से एकत्रित की गई बचत उसी गांव के कृषि विकास के लिए इस्तेमाल की जाती। फिर इन संस्थाओं का स्तर विशाल होता गया और इन्होंने बड़ी सोसायटियों तथा सहकारी रूरल बैंकों का रूप धारण कर लिया, फिर ऋण देने और अमानतें लेने के अलावा कृषि सामग्री, कीमियाई खादें और बीज आदि का वितरण भी इन संस्थाओं के ज़िम्मे लगा दिया गया, जिसके बाद कारोबार में वृद्धि हो जाने के कारण एक-दूसरे के साथ सम्पर्क कम होता गया। बकाया और देनदारियों ने जन्म ले लिया। सहकारी सोसायटियों का आकार बड़ा हो जाने के कारण पैसे का दुरुपयोग बढ़ता गया और इनमें भी राजनीति प्रवेश कर गई, जो प्रभावशाली व्यक्ति थे, वह चुनावों में आगे आ गए और अपने चहेतों को ऋण नियमों का उल्लंघन करके ज़मीन के आधार पर नहीं, अपितु उनकी मांग के आधार पर ऋण दिए जाने शुरू हो गए। किसानों का सीधा सहकारी सैंट्रल बैंकों के साथ लेन-देन हो गया। इस तरह सहकारिता लहर लगभग खत्म हो गई और ‘सहकारी ढांचा’ बनकर रह गया। हरित क्रांति के आगाज़ के बाद कुछ वित्तीय बैंकों ने कृषि क्षेत्र में प्रवेश किया और उत्तर भारत के पंजाब-हरियाणा राज्यों में स्टेट बैंक ऑफ पटियाला तथा अन्य कुछ राज्यों में सिंडीकेट बैंकों ने इस क्षेत्र में पहल दिखाई। पंजाब में स्टेट बैंक ऑफ पटियाला द्वारा ‘गांव अपनाओ’ योजना शुरू की गई, जिसके अनुसार सभी गांव के किसानों तथा खेत मज़दूरों की ज़रूरतों को पूरा किया जाता था। यह योजना जिन गांवों में शुरू की गई, उन गांवों में उत्पादन की चार गुणा तक वृद्धि हुई और किसानों की आमदनी भी बढ़ी। इन बैंकों के पास ऋण देने के अलावा इन गांवों के लोगों की अमानतें आ गईं। इस नीति के तहत पिछली शताब्दी के 60 के दशक के अंत तक स्टेट बैंक ऑफ पटियाला ने 100 करोड़ रुपए से अधिक कृषि ऋण दिए और इन ऋणों में सिर्फ 2 डिफाल्टर थे, और वह भी बड़े-बड़े किसान। इस प्रणाली में सरकारी सेवा एक ही खिड़की में मुहैय्या की जाती थी। कुछ समय बाद इस योजना में भी राजनीति प्रवेश कर गई और इसमें त्रुटियां आनी शुरू हो गईं और वफादार तथा गांवों में उत्साह से कार्य करने वाले व्यक्तियों की कमी के कारण इन योजनाओं का रूप भी बदल गया और अंत में लगभग भोग पड़ गया। क्यों बदल गया सहकारिता लहर का रूप? कहां गई कुछ बैंकों द्वारा शुरू की गई किसान कल्याण की योजनाएं? नया रूप लेने के बाद और बड़े क्षेत्र धारण करने से किसानों के बल्कि दु:ख बढ़ने शुरू हो गए। वह ऋणों के जाल में फंस गए। घरेलू खर्च आमदनी से अधिक होने और किसानों तथा नौजवानों के नशों का शिकार होने से आत्महत्याओं का रुझान बढ़ता गया। क्या बैंकिंग और क्या सहकारिता, सभी क्षेत्रों को राजनीति ने प्रभावित किया और इन संस्थाओं के कारोबार में भी वोटों की तलाश की जाने लगी। ज़रूरत है ऋणों के ढांचे को नये सिरे से दिशा देकर सही रूप में लाकर स्थापित करने की और कृषि के विकास तथा किसानों के कल्याण के लिए इस्तेमाल करने की। यदि सरकारों ने ऋणों की माफी करनी भी है, उनकी वित्तीय क्षमता इसकी अनुमति देती है तो वह एक बात को ही मुख्य रखकर करें कि किसानों को एक बार सही पटरी पर लाकर उनको सही नेतृत्व मुहैया हो तथा सही ऋण संहिता शासन के अधीन लाई जाए। यही हल है, उनके ऋणों संबंधी ज़रूरतें पूरी करने का और कृषि के विकास द्वारा किसानों की आमदनी बढ़ाकर दुगुनी करने के लक्ष्य को प्राप्त करने का।

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