आज हिन्दी दिवस पर विशेष : लेन-देन से ही होता है भाषाओं का विकास

भाषा पर सोचते हुए लिखते हुए शायद कुछ दोस्तों को प्रसिद्ध कथाकार शैलेष मटियानी का यह कथन याद आता होगा कि जितना रकबा आदमी का उतना रकबा भाषा का। हिन्दी दिवस पर सोचते हुए कभी नहीं लगा कि हिन्दी के विस्तार या हिन्दी के प्रचार के लिए हमारी कोई लड़ाई पंजाबी, मराठी या गुजराती जैसी भारतीय भाषाओं से है। अपितु इन समर्थ भाषाओं के साथ मिलकर अंग्रेज़ी के उस वर्चस्ववाद से है जो शताब्दियों से अफसरशाही, राजनीतिज्ञों और कुछ अन्य कुलीन लोगों के सोचने का हिस्सा बन चुका है। हिन्दी की ताकत को सामान्य लोगों के जीवन में देखा जा सकता है, किन्तु अंग्रेजीदां लोगों ने सदा हिन्दी की उपेक्षा की है। हिन्दी का संवाद अनेक भारतीय भाषाओं से है और रहेगा बशर्ते छोटी राजनीति इस पर रोटियां न सेंकें।आज हिन्दी भाषा की व्यापकता का श्रेय अक्सर हिन्दी फिल्म उद्योग को दिया जाता है। टीवी धारावाहिकों तथा हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी की व्यापकता को कुछ न कुछ दिया ज़रूर है परन्तु उनका लगाव उच्च सांस्कृतिक मूल्यों तथा कला के उत्थान के प्रति कम हो रहा है। हिन्दी साहित्य से भी यह जुड़ाव गहरा न होकर उथला रहा है। उनकी इच्छा काल्पनिक समाज से ज्यादा जुड़ी रहती है। कई बार तो धारावाहिकों से पता नहीं चलता कि नायक-नायिका किस वर्ग का प्रतिनिधित्व कर  रहे हैं? एक वक्त में भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ पर या कुछ जनचेतना के धारावाहिक आये परन्तु आज नहीं। हिन्दी जनचेतना की भाषा है। काल्पनिक दुनिया की उतनी नहीं जो हमसे सोचने-सीखने की क्षमता ही छीन ले।भूमंडलीकरण ने पूरे विश्व को एक गांव में बदलना चाहा। उनका मत है एक गांव, एक भाषा, एक सोच इसके लिए अंग्रेज़ी की भूमिका को ही विस्तार मिलने वाला है। भूमंडलीकरण के मूल को बाज़ारवाद ही सक्रिय एवं गतिशील है। उससे हमारे समाज को न तो संस्कार मिल सकते हैं, न ही दिशा। इसके प्रसार से हिन्दी भाषा के जानने वालों की नौकरियां पाने पर भी संकट बना रहता है। कम्पनियां नौकरी देते हुए अबाध अंग्रेज़ी बोलने की मांग करती हैं। आज हमारे युवा वर्ग में विदेश जाने की बेहद धुन सवार है। मां-बाप भी विदेश भेजने में अपनी अधूरी इच्छा को पूरी करना पसंद करते हैं। कनाडा, इंग्लैंड, अमरीका, आस्ट्रेलिया जाने वाले बच्चों की वीज़ा पाने की आतुर निगाहें दलालों पर लगी रहती हैं। जाने से पूर्व सभी विद्यार्थी अंग्रेज़ी बोलने, अंग्रेज़ी लिखने के ढंग पर जी-जान से जुटे रहते हैं। इसका अन्दाज़ा आइलैट्स की क्लासों की भीड़ और खाली होती कालेज क्लासों से लगाया जा सकता है। ऐसे विद्यार्थी से सूरदास, तुलसीदास, मुंशी प्रेम चंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद को जानने पर कोई सवाल कैसे पूछ सकते हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य के भवन निर्माण की कल्पना की और उपकरण जुटाये। 
इस सबसे यह हुआ कि हिन्दी के प्रति जो सम्मान की भावना थी, हिन्दी सीखने और व्यवहार में लाने की जो एक नैतिक और स्वाभाविक इच्छा होनी चाहिए थी, उस पर बड़ा कुठाराघात हुआ। यह समझ बन गई कि ऊंची नौकरी पाने के लिए हिन्दी इन दिनों आपका आधार नहीं बन रही। साक्षात्कार अंग्रेज़ी में ही लिए जाते हैं, तभी अंग्रेज़ी में पूछे गये प्रश्नों का आत्मविश्वासी अंग्रेज़ी उत्तर ही सम्मान बचाता है और नौकरी के पायदान पर पांव रखने देता है। नहीं तो लुढ़कते रह जायेंगे। क्योंकि तेज़ रफ्तार गाड़ियों का जमाना है। भाषा को लेकर हीन भावना इतनी ज्यादा है कि आधे पढ़े या अनपढ़ लोग भी विवाह का निमंत्रण पत्र या जागरण, शुभ महूर्त के हवन के अवसर का निमंत्रण पत्र भी हिन्दी की जगह अंग्रेज़ी में छपवाया जाता है, जिससे भगवान के प्रति या श्रद्धा कम, अंग्रेज़ी के प्रति भक्ति और श्रद्धा ज्यादा नज़र आती है। इस तरह हमारे नहीं सोचने वाले मध्य वर्ग ने भी अंग्रेज़ी को गौरव भी भाषा बनाने में कोई कमी नहीं की।एक भाषा का विकास आस-पास की भाषाओं के लेन-देन से होता है। हिन्दी राष्ट्रवाद की कट्टरता से हम अपनी ही प्रांतीय भाषाओं को न सहयोग दे पायेंगे न ले पायेंगे। भाषायी क्लेश में फंसते चले जायेंगे जिसका लाभ अंग्रेज़ी को ही मिलने वाला है। हमें आत्म-विश्वास से काम लेना होगा। हिन्दी के विकास और समृद्धि के लिए यह ज़रूरी भी है। हिन्दी की अनेक बोलियां भी हिन्दी से अलग नहीं हैं। इसलिए दिल और द्वार खुले रखने होंगे। हमारी संस्कृति हमारी जीने की क्षमता और ताकत और संघर्ष हमारी भाषा को महत्वपूर्ण बना सकती है। हम संस्कृतिविहीन बिम्ब के साथ नहीं जी सकते। यह जीवन का रास्ता भी नहीं? स्वाभिमानी का जीवन उसकी भाषा संस्कृति इतिहास के प्रति कृतज्ञ रहता है। अपितु इसे हर आंधी से बचाना चाहता था।