सवाल सीधा जवाब गोल—क्यों महंगा है डीज़ल-पेट्रोल ?

हमारे देश की राजनीति में यह भी एक अंदाज़ है कि यहां समस्या की ओर सभी उछल-उछल कर इशारे करते हैं, परन्तु समाधान खोजने में रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं दिखाते। डीज़ल और पेट्रोल के भाव पहली बार तो बढ़े नहीं यह तो गत 30-40 वर्षों से कहीं से कहीं पहुंच गए। जब श्रीमति इंदिरा गांधी की सरकार थी तो वाजपेयी जी छकड़ा गाड़ी पर बैठ कर संसद भवन आए थे। अब जब मोदी जी की सरकार है तो राहुल गांधी बैलगाड़ी पर बैठ कर अपना रोष-प्रदर्शित कर रहे हैं। डीज़ल-पेट्रोल कई प्रकार की नीतियों के उलझाव भरे रास्तों से गुज़रता रहा है। भाजपा सरकार यह कहती है कि डीज़ल-पेट्रोल की वर्तमान नीति कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार ने बनाई थी। अंतर्राष्ट्रीय तेल उत्पादक देशों से जिस भाव प्रति बैरल क्रूड ऑयल आता है, उसी के हिसाब से कीमत तय होती है। यह भी सत्य है कि भारत के आस-पड़ोस के कुछ देशों से भारतीय उपभोक्ता अधिक कीमत अदा कर रहे हैं। हमारे देश में पेट्रोल-डीज़ल के दाम दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। जी.एस.टी. (वस्तु एवं सेवा कर) के घेरे से डीज़ल-पेट्रोल को बाहर इसलिए रखा गया है ताकि इससे राज्यों एवं केन्द्र की सरकार को योजनाओं एवं विकास के लिए समुचित धन प्राप्त हो सके। इसके पीछे एक दलील यह दी जाती है कि लोग पूरी तरह टैक्स अदा नहीं करते और मजबूरन सरकार को देश की अर्थव्यवस्था को सुचारु ढंग से चलाने के लिए डीज़ल और पेट्रोल पर आश्रित होना पड़ रहा है। आज पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं। इसीलिए आम आदमी पर बढ़ते बोझ को कम करने के लिए एक्साइज एवं विक्रय कर में कटौती की मांग उठ रही है। अर्थशास्त्री यह खुल्लम-खुल्ला कह रहे हैं कि डीज़ल-पेट्रोल के बढ़ते दाम से जल्दी ही अन्य वस्तुओं पर भी इनका असर दिखाई देने लगेगा। जैसे माल-भाड़ा, फल-सब्ज़ियां और अनाज लगभग सभी डीज़ल-पेट्रोल का दामन थाम कर साधारण आदमी की पहुंच से निकल जायेगा। महंगाई की आंच केवल आम आदमी को ही नहीं, धीरे-धीरे सरकार को भी लगने लगेगी। विपक्षी दलों के पास यह बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा हाथ लगा है।महंगाई डीज़ल-पेट्रोल की हो अथवा अन्य वस्तुओं की इनकी व्याख्या राजनीति से होती रही है। यह हकीकत है कि भारत में कीमतें महज़ मांग और आपूर्ति के अर्थशास्त्रीय सिद्धांत से ही नहीं, बल्कि राजनीति से भी तय होती रही हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि जो चीज़ निजी क्षेत्र से उपलब्ध हो उनकी कीमत तो फिर भी काबू में रहती है, परन्तु जहां सरकारों का दखल हो वहां कीमतें तो बढ़ती हैं, परन्तु आपूर्ति अनिश्चित हो जाती है। राजग सरकार ने जब शपथ ली और मोदी ने जब पहला भाषण दिया तो उन्होंने कहा था कि यह सरकार गरीबों, किसानों, मज़दूरों, दलितों, वंचितों, मध्यम वर्गीय लोगों एवं आदीवासियों के लिए है। किसी लिहाज़ से लगता भी ठीक है। सरकार ने इन लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए कुछ प्रयास भी किए नज़र आते हैं। सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जान-फूंक दी है, बिजली, उज्जवला, उजाला सड़कें, स्वास्थ्य एवं मनरेगा आदि सभी में सुधार लाने का प्रयत्न दिखाई भी देता है, लेकिन एक बात सरकार को यह भी याद रखनी चाहिए कि इक्कीसवीं शताब्दी का भारत ट्रैक्टर, नलकूप, स्कूटर इत्यादि वाहन के सहारे आगे बढ़ रहा है और इनमें डीज़ल-पेट्रोल अनिवार्य है। यदि अनाज की कम से कम कीमत तय कर दी गई है उसी के साथ डीज़ल और पेट्रोल के भाव बढ़ने से किसानों को अपनी उपज कुछ अधिक लाभ नहीं दे सकेगी। राजस्थान सरकार ने डीज़ल और पेट्रोल पर अढ़ाई रूपए कम किया है। कुछ पश्चिमी बंगाल और तेलंगाना ने भी डीज़ल-पेट्रोल के वैट में रियासत की घोषणा की है। लगता है डीज़ल-पेट्रोल की महंगाई सभी सरकारों के डी.एन.ए. में शामिल है। सरकार कई प्रकार के सत्याग्रहों, नारों और धरनों से प्रभावित होती दिखाई नहीं देती। केन्द्रीय एक्साईज़ में एक बार 2 प्रतिशत की कमी की गई। पहले यह एक्साईज़ 21 प्रतिशत थी जो अब 19.5 प्रतिशत रह गई। कई राज्यों में वैट एक जैसा नहीं है। कहीं 30 प्रतिशत है तो कहीं 33 प्रतिशत इसीलिए डीज़ल और पेट्रोल का जो भाव दिल्ली में है वैसा महाराष्ट्र में नहीं। केन्द्रीय सरकार डीज़ल-पेट्रोल के दाम बढ़ने से चिंतित तो दिखाई देती है और वह दलील भी देती है कि डालर के सामने रुपया बहुत गिर गया है, जिससे भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। उसी के साथ हमें क्रूड ऑयल की सप्लाई करने वाला देश ईरान है, उस पर अमरीका ने कई तरह की पाबंदियां लगा दीं, जिससे हमें क्रूड ऑयल कई अन्य दूर-दराज़ के देशों से खरीदना पड़ रहा है। तेल उत्पादन करने वाले देशों ने इसकी उत्पादकता कम कर दी है, ताकि इसके दाम स्थिर रखे जा सकें। आपूर्ति में यही बड़े अवरोध खड़े हो गए हैं। भारत को 80 प्रतिशत क्रूड ऑयल विदेशों से मंगवाना पड़ता है। मात्र 20 प्रतिशत भारत में निकलता है, इसलिए सरकार की मजबूरी है कि देश में खपत पूर्ति के लिए महंगाई को सहन करना पड़ रहा है। परन्तु साधारण मनुष्य जिसके पास मात्र थोड़ी तनख्वाह और आने-जाने का एक साधन स्कूटर अथवा बाईक ही हो उसे सरकार की मजबूरी समझ नहीं आ सकती। 
हम यह भी नहीं कहते कि डीज़ल-पेट्रोल की राशनिंग कर दी जाए, परन्तु तेल वितरण कम्पनियों को भाव बढ़ाने के लिए बेलगाम भी नहीं छोड़ा जाना चाहिए। दस पैसे, तेरह पैसे, चालीस पैसे, पैंतालीस पैसे हर रोज़ किसी न किसी सूरत में डीज़ल-पेट्रोल के भाव बढ़ाती जा रही हैं, इस सिलसिले पर अब रोक लगनी ही चाहिए। अर्थशास्त्र की बुनियादी किताबों और दुनिया भर में यही माना जाता है कि कीमतें मांग और आपूर्ति के समीकरण से निर्धारित होती हैं। भारत में एक बात यह कही जाती है कि राजनीति साकारात्मक के स्थान पर नकारात्मक तरीके से महंगाई को उछालती है। सन् 1974 में एक फिल्म आई थी रोटी, कपड़ा और मकान। उसका एक गाना प्रत्येक चुनाव में अपनी पैठ बनाए रहा ‘बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई’। ऐसा लगता है कि भारत में डीज़ल और पेट्रोल की महंगाई भी आकाश बेल की तरह समाज की हरियाली को धीरे-धीरे चाट रही है। केन्द्रीय सरकार को इस पर कुछ ठोस और क्रांतिकारी पग उठाने की ज़रूरत है, ताकि साधारण व्यक्ति को कुछ राहत मिल सके।