ज़िंदगी को खैरबाद कहती नज़्मों का मजमुआ—सन्दली सरगोशियां

समीक्षा हेतु पुस्तक : सन्दली सरगोशियां (काव्य संग्रह), कवयित्री : सीमा ग्रेवाल, सम्पर्क : 9, दशमेश एवेन्यू, पोलिटैक्निक रोड, डाकघर आर.एस. मिल्स, अमृतसर-143104, प्रकाशक : ग्रेसियस बुक्स, 23, शालीमार प्लाज़ा, सामने पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला, मूल्य : 495 रुपए।
‘सन्दली सरगोशियां’ के भीतर दर्ज शायरी को पढ़ते हुए यह एक वाक्य बेसाख़्ता मुंह से निकला था—सांसें बता देती हैं भीतर की हलचल का पता। ‘सन्दली सरगशियां’ के पहले पन्ने पर दर्ज यह शे’अर संग्रह के भीतर की तमामतर नज़्मों/कविताओं के लब-ओ-लुआब की ज़मीन से वाकिफ करा देता है। आप भी लुत़्फ लें इन पांच सतरों का—
नसों से चीख जब उभरे
तो अश्कों से रक्त टपकता है
क़ागज़ के सीने पे उस दम
स़ुर्ख नज़्में/सांसें लेती हैं।
पंजाबी में एक कहावत है—‘घर दे भाग ड्योढ़ी तों पता चल जांदे ने’। नि:संदेह ये पांच पंक्तियां उनवान हैं इस संग्रह में दर्ज की गई कविताओं का। एक-एक पंक्ति और हर पंक्ति का प्रत्येक शब्द और अक्षर कवयित्री के जज़्बातों, उनके ख़्यालात की तर्जुमानी करता है। बड़ा आसान होता है, कभी-कभी हाथ में आई किसी तितली के पंखों से झरते रंग-पराग को उंगलियों से झटक देना, परन्तु उतना ही कठिन और दुष्कर होता है इन रंगों के बीच में से उतरते-उभरते तसव्वुर को अपने विचारों की तश्तरी में सजा लेना। कुछ ऐसा ही नज़ारा दिखता है ‘सन्दली सरगोशियां’ में दर्ज नज़्मों के आस-पास। सीमा ग्रेवाल ने अपनी हर नज़्म के जिस्म पर अपने विचारों, अपने जज़्बातों की फुलकारी ओढ़ा कर उसे दुल्हन की तरह संवारा है। उन्होंने अपनी नज़्मों के शब्दों को जुगनुओं की मानिंद चुन-चुन कर बड़ी तरतीब से सजाया है। इन नज़्मों को लेकर यह भी कहा जा सकता है कि सावन की पहली बरसात की पहली फुहार की हर बूंद जैसे सीप के मुख में जाकर मोती बनी हो। हर नज़्म अपने वजूद का एहसास अपने प्रत्येक अंग यानि अपने होने के अन्दाज़ से कराती है। मोती बनी ऐसी ही एक काव्य-बूंद को अपने भीतर उतरते महसूस किया जा सकता है—
जब-जब भी तुम्हें
इत्र का नज़राना दूं
वैसा ही खुद के लिए भी 
ले लेती हूं...
तुम्हारे करीब होने का
खुद को दिलासा देती हूं। (इश्क—पृष्ठ 76)
सीमा ग्रेवाल के इस मजमुआ की तमामतर गज़लें जैसे तारे उतर आए हों ज़मीन पर। एक बड़ी बात यह भी कि नज़्मों का हर शब्द जैसे एहसासों की सूई से काढ़ा गया एक कसीदा हो। शाइरा की उर्दू सलाहियत पर भी रश्क होता है। बहुत कम शायर इस हासिल से ़खूबतर होते हैं। शब्द-चयन भी ऐसा कि जैसे मोतियों से पिरोयी गई कोई माला हो। बेशक यह शायरी वर्तमान की अब तक की शायरी से कुछ हट कर है। शायरी में सोज़ है, तरन्नुम है। हर नज़्म के साथ रेखाचित्र जैसे इत्र-फरोशी का काम करता है... जैसे शब्दों को इन्द्र-धनुषी रंगों से नहलाया गया हो। जो लोग ज़िंदगी के हर लम्हे में नया रंग और हर रंग में ज़िंदगी की तलब, खुश्बू ढूंढ लेते हैं, ज़िंदगी फिर उनकी हमस़फर हो गुजरती है। इस मजमुनामी हर नज़्म, इस एक एहसास से चश्मे-तर हुई महसूस होती है।
मां के हिस्से की नज़्म और इस नज़्म के ज़रिये हासिल हुआ बाप का शगुन भावुकता की किसी कतरन को छूने जैसा मरहला है। पुस्तक का आकार-प्रकार, लहज़ा, रंग-ढंग प्रभावित तो करता है, परन्तु है थोड़ा महंगा। ज़िंदगी के हर एहसास को ़खैरबाद कहती नज़्मों वाली इस शायरी का स्वागत होगा।

—सिमर सदोष