महाराजा शेर सिंह की बरसी को किया गया अनदेखा

अमृतसर, 15 सितम्बर (सुरिन्द्र कोछड़) : शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के सुपुत्र महाराजा शेर सिंह तथा पौत्र टिक्का प्रताप सिंह की आज 175वीं बरसी पर प्रदेश सरकार, सिख संगठनों तथा शेर सिंह के वंशजों के मौजूदा परिवारों द्वारा उनकी याद को अनदेखा करते हुए किसी प्रकार का कोई समारोह आयोजित नहीं किया गया। वर्णनीय है कि महाराजा रणजीत सिंह के देहांत के बाद महाराजा बने उनके बड़े शहजादे खड़क सिंह तथा पौत्र कंवर नौनिहाल सिंह का एक ही दिन कत्ल होने के बाद 27 जनवरी 1841 को शेर सिंह महाराजा बने थे। गुलाब सिंह तथा ध्यान सिंह डोगरा द्वारा संधावालिया सरदारों के साथ मिलीभुगत करके महाराजा शेर सिंह को कत्ल करने की बनाई योजना के कारण 15 सितम्बर 1843 को उनके सामने एक खेल मेला करवाया गया। इतिहासकारों के अनुसार उस दिन महाराजा लाहौर की कोट ख्वाज़ा सईद बारादरी में कुर्सी पर बैठे हुए थे तथा उनका चचेरा भाई अजीत सिंह संधावालिया 400 घुड़सवारों के आगे चलता हुआ उनके सामने पेश हुआ तथा हज़ूर ने एक दोनाली राइफल पेश की। जैसे ही शेर सिंह उसको पकड़ने के लिए उठे, अजीत सिंह ने उन पर गोली चला दी तथा महाराजा तड़प कर वहीं पर ढेर हो गए। अभी वह आखिरी सांस ले ही रहे थे कि अजीत सिंह ने तलवार के साथ उनका सिर काटकर नेजे पर टांग लिया। उधर दूसरी ओर गोली की आवाज़ सुनते ही रिश्ते में शेर सिंह के चाचा लैहणा सिंह संधावालिया ने तलवार से शहज़ादा प्रताप सिंह का सिर काटकर नेजे पर टांग लिया। बाद में महाराजा शेर सिंह तथा उनके शहजादे के कटे शीश लाहौर शाही किले में से मिल जाने पर कोट ख्वाज़ा सईद की वलगण में दोनों के शवों को एक ही अंगीठी में संस्कार किया गया। इसी स्थान पर शेर सिंह की पत्नी रानी धर्म कौर रंधावी द्वारा समाध की चूनायुक्त तथा गुंबददार इमारत चबूतरे पर निर्मित की गई। सन् 1992 में भारत में उठे बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान उपरोक्त समाध का बड़ा हिस्सा गिरा दिया गया, जिसके बाद पीछे से पाकिस्तान सरकार द्वारा पुरातत्व विभाग तथा लाहौर पार्क एवं हार्टिकल्चर अथारिटी (पी.एच.ए.) की देखरेख में उक्त समाध के नवनिर्माण का काम मुकम्मल करवाकर पास ही एक खूबसूरत बाग लगवाया गया है।