दुनिया में आर्थिकता को कौन नियंत्रित कर रहा है? (भाग-4)र् ईराक और लीबिया को तबाह क्यों किया गया ?


(कल से आगे)
वर्ल्ड बैंक का बनना
1944 के ब्रैटलवुड्ज़ एग्रीमेंट ने अमरीका के डॉलर को विश्व व्यापार का माध्यम बनाकर अमरीका के फैडरल रिज़र्व बैंक का विश्व में प्रभुत्व कायम कर दिया। उसी दिन अर्थात् 22 जुलाई, 1944 को एक अन्य समझौते के तहत आई.एम.एफ. के सदस्यों ने एक बैंक खोलने का फैसला किया, जिसका नाम पुनर्निमाण और उन्नति के लिए अंतर्राष्ट्रीय बैंक रखा। जिसको आमतौर पर वर्ल्ड बैंक कहा जाता है। इस बैंक के प्राथमिक सदस्य वह ही होने थे, जो आई.एम.एफ. के सदस्य बने थे। इसका प्राथमिक स्टॉक दस अरब डॉलर था, जिसको एक-एक लाख के एक लाख शेयरों में बांटा गया और आई.एम.एफ. के सदस्य देशों को अपने दिए हुए कोटे के अनुसार शेयर खरीदने का अधिकार दिया गया। सदस्यता शेयरों की कीमत सोने या यू.एस. डॉलरों के रूप में अदा करनी थी। (4)
विश्व की अर्थव्यवस्था पर बैंकों का नियंत्रण
1. अब सवाल उठता है कि इन सभी घटनाओं का विश्व भर की अर्थव्यवस्था पर क्या और कैसे प्रभाव पड़ रहा है, इसको समझने के लिए एक बयान को समझना ज़रूरी है, जो लंदन में कारोबार कर रहे रौथ्सचाईल्ड भाईयों ने अपने न्यूयॉर्क में कारोबारी हिस्सेदारों को लिखकर भेजा वह इस प्रकार था :
‘जो लोग इस सिस्टम को समझते हैं, वह या तो अपने मुनाफे के लिए या अपने लिए रियायतों हेतु चुप रहेंगे और उनके द्वारा कोई विरोध नहीं होगा, जबकि दूसरी तरफ लोगों की वह बड़ी संख्या जो मानसिक तौर पर यह समझने के योग्य नहीं कि पूंजी इस सिस्टम का कितना बड़ा फायदा उठा रही है, वह इस भार को बिना किसी शिकायत सहन करते रहेंगे और वह यह संदेह भी नहीं करेंगे कि यह सिस्टम उनके हितों के विरुद्ध है।’
क्या यह अब भी सत्य नहीं?
2. अमरीकी डॉलर का व्यापार का माध्यम बनना, कुछेक देशों को छोड़कर दुनिया भर को अमरीका के आर्थिक गुलाम बना गया। ब्रैटनवुड्ज़ समझौते पर हस्ताक्षर करके शुरू में तो 44 देशों ने, परन्तु बाद में लगभग सभी ने ईरान, सीरिया, लेबनान, सोमालिया, सूडान और इराक, रूस के अलावा अन्य सभी देशों ने अमरीकी डॉलर को लेन-देन का माध्यम मान लिया। किसी देश में जाकर कुछ भी लेना हो, तो आपके पास अमरीकी डॉलर होने चाहिए। अमरीका का फैडरल रिज़र्व बैंक, डॉलर छाप कर विदेशी मुद्रा के तौर पर सोने या चांदी के बदले अन्य देशों को देता है। 
जब कुछ देशों ने सवाल किया कि हम तो आपसे सोना-चांदी या सामान देकर कागज़ के छापे हुए टुकड़े लेते हैं तो हमें क्या विश्वास है कि कल को हमें इनके बदले, यदि हम मांग करें तो सोना इनके मूल्य के बराबर मिल जायेगा, तो अमरीका ने दुनिया भर को यह गारंटी दी की जिसके पास भी 35 डॉलर होंगे और वह मांगे तो हम 35 डॉलर के बदले एक औंस (30 ग्राम) सोना देंगे। 1 जुलाई, 1944 को एक डॉलर का जितना सोना आता था, उसको सोने की कीमत का आधार माना गया। यह सिलसिला चलता रहा। डॉलर का प्रभुत्व बना रहा। फैडरल बैंक दिन-रात नोट छापता रहा और दुनिया को विदेशी मुद्रा के तौर पर देता गया। 1970 के लगभग जब फ्रांस के बैंकों ने देखा कि उनकी तिजौरियां और कमरे अमरीकी डॉलरों से भरे पड़े हैं, जो हैं तो छापे हुए कागज़ के टुकड़े ही तो उन्होंने अमरीका को कहा कि यह सभी नोट ले लें और हमें इनके बदले दी हुई गारंटी के अनुसार सोना दे दें, तो अमरीका ने देखा कि जितने नोट वह छाप चुके हैं, सोना तो उससे दसवां हिस्सा भी नहीं रहा था, तो अमरीका के प्रेज़ीडेंट निकसन ने 1971 में गारंटी सस्पैंड कर दी। अब डॉलरों के बदले सोने या चांदी की कोई गारंटी नहीं। 
पेट्रो डॉलर
अब अमरीका को दुनिया भर के देशों को भरोसा दिलाने की ज़रूरत थी कि वह डॉलरों के बदले सोने की जगह और क्या दे सकता है। अमरीका ने खाड़ी देशों पर ज़ोर डाला कि वे अपना तेल सिर्फ अमरीकी डॉलरों के बदले ही बेचें।  किसी और करंसी में न बेचें क्योंकि कुछ देश जिन्होंने ब्रैटन वुड्ज़ समझौते को अभी तक नहीं माना था, अपना तेल अपनी मर्जी से जो भी करंसी उनको ठीक लगती थी, उसके बदले बेच देते थे। अमरीका ने खाड़ी के उन देशों को अपनी सेना सुरक्षा की गारंटी दी और साथ ही शर्त लगाई कि आप तेल डॉलर लेकर ही बेचेंगे और कमाये गये डॉलर अमरीका के बैंकों में जमा करायेंगे या अमरीका में निवेश करेंगे।
यह शर्त ईराक, ईरान, लीबिया और कुछ अन्य देशों ने, जिनका उल्लेख पहले किया गया है, ने नहीं मानी। ईराक के सद्दाम हुसैन ने अपना तेल यूरो के बदले बेचना शुरू कर दिया। ईरान ने चीन को यूआन के बदले और लीबिया ने दीनार के बदले तेल बेचा। लीबिया ने तो अपना दीनार सोने का सिक्का बना दिया था जिसका नाम गोल्ड दीनार रखा गया। यह गोल्ड दीनार डॉलर से ज्यादा मकबूल होने लगा था। इसलिए ईराक और लीबिया को तबाह कर दिया गया। अब ईरान की बारी है। 4. इसके पीछे छिपी या प्रमुख शक्तियां कौन-सी हैं और इसको कैसे कबूल करती हैं, इसका अंदाज़ा कुछ इस तरह का है :
1. फैडरल रिज़र्व समेत अधिकतर बैंकों पर कुछ घरानों और कार्पोरेट का कब्ज़ा है। 2. इनके बैंकों में दुनिया का जितना पैसा है, उसका 80 फीसदी जमा है। 3. इन बैंकों की नीति है कि लोगों को जितना अधिक से अधिक हो सके, ऋणी कर दो। 4. घरेलू खरीददारी के लिए हर आदमी की जेब में एक कार्ड डाल दो जिससे वह बिना पैसा दिए उधार खरीददारी कर सके। उधार लेने की आदत लोगों को डाल दो। जब वे उधार लिया पैसा या सामान की कीमत न वापिस कर सकें तो उन पर अधिक ब्याज़ लगा कर जितना भी शोषण किया जा सकता है, करो। 5. जब लोग ऋण से तंग आ जायेंगे तो वे अपनी सरकार के गले पड़ेंगे। इन हालात में सरकारें आप से ऋण की मांग करेंगी। तब आप जितना अधिक से अधिक हो सके, सरकारों को ऋण दो और उनसे अपनी शर्तें मनवाओ और सरकारी नीतियां अपने पक्ष में उनसे बनवाते रहो। 6. अगर कोई सरकार या सरकार का मुखिया यह न माने तो उस सरकार का तख्ता-पलट करवा दो या सरकार के मुखिया, राजा, प्रैज़ीडेंट, प्रधानमंत्री आदि जो भी हो, उसे मरवा दो। इसी तरह ईराक के सद्दाम हुसैन, लीबिया के गद्दाफी और अन्य कई देशों की अनगिनत मिसालें हैं। इससे अमरीका भी नहीं बचा। वहां के छह राष्ट्रपति जैसे कि पहले बताया जा चुका है, इनका शिकार बने।
यहीं बस नहीं, इस कार्पोरेट सैक्टर ने अमरीका में भी सैनिक तख्ता-पलट की कोशिश की थी। अमरीकी नौसेना के एक बड़े प्रसिद्ध जनरल मेजर जनरल स्मैडले बटलर को उकसाने की कोशिश की गई कि वह अमरीका में सत्ता-पलट कर दें और प्रैज़ीडेंट की जगह सैक्रेटरी ऑफ जनरल अफेयर्स नामज़द किया जाए जो न्यूयॉर्क वाल स्ट्रीट  के कार्पोरेट सैक्टर के प्रति जवाबदेह हो। प्रैज़ीडेंट फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट जो 1933 से 1945 तक राष्ट्रपति रहे, ने अपने पहले चुनाव के बाद न्यू डील नामक एक कार्य-योजना  पेश की थी, जिसके अनुसार बैंकों से संबंधित कानून में तबदीली लाना, कई रिलीफ प्रोग्राम तैयार करना जिनमें कर्मचारी और अन्य कामों में लगे कर्मचारियों को सुविधाएं देना और कृषि के बारे सुधार लाना शामिल था। ये सुधार बैंकों के मालिकों और कार्पोरेट सैक्टर को पसंद नहीं थे। अत: वे रूज़वेल्ट को हर हालत में हटाना चाहते थे। (शेष कल)
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