जुमलों और भाषणों के कन्धों पर सवार दावे


मित्रो, मैं न तो कोई मदारी हूं, और न ही सड़क पर जादू के खेल दिखाने वाला, न हिमालय पर साठ साल की तपस्या के बाद नीचे उतर कर आया कोई बाबा हूं कि जो आपको हथेली पर सरसों जमा दूं। ‘खुल जा सिम सिम कहूं’ और आपके ज़ीरो वैलेंस 
वाले खातों में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपए चले आयें।
सच कहूं, भय्यपन कोशिश तो की थी। गिनीज़ बुक आफ रिकार्ड बना पाने की कोशिश। जिनकी सुबह के बाद शाम को दाल रोटी का ठिकाना नहीं, उनके एक नहीं, दो नहीं दस करोड़ जन धन खाते खुलवा दिये थे। टेंट में दबा कर बैठे बड़े नोट वालों के होश फाख्ता करने के लिए उनके बड़े नोट गैर-कानूनी बना दिये। सोचा था, इनका कोई हिसाब-किताब तो है नहीं। धड़ाधड़ नोट बाहर आयेंगे। रात्रि भोजन की जूठन की तरह इनमें से कुछ आपके खातों में जमा करवा के दूंगा, लो आगाज़ तो अच्छा है, अब अंजाम खुदा जाने।
लेकिन ये जुमले हमारे होंठों पर फड़कते रह गये और ऊंची अट्टालिकाओं पर बैठे धन्ना सेठों ने अट्टहास करके कहा, ‘मियां यहां आगाज़ और अंजाम तुम्हारा खुदा नहीं, हम जानते हैं।’
पुराना जुमला है ‘मियां की जूती मियां के सिर’। तुम्हारे ही जन धन खाते हथियार बने। हमने जिन नोटों को गैर-कानूनी बनाया वे इन्हीं खातों को पायदान बनाकर कानूनी हो गये। बल्कि उससे ज्यादा नोट कानूनी हो गये, जितने तुमने गैर-कानूनी बनाये थे। अब बैंकों में वापिस आये पुराने नोटों के माल गोदाम में से छांटते रहो, कितने असली आये  हैं और कितने नकली। इस देश की नौकरशाही पर पैबन्द लगे हैं और सरकारी मशीनरी किसी कांखती कराहती बुढ़िया सी चरमराती है। इसलिए जब तक नोटों की गिनती मिनती खत्म हुई, लोग भूल गये कि कितने लोग अपना ही पैसा पाने की परेशानी में बैंकों के बाहर लगी कतारों में काल कलवित हो गये थे। बाहर मुनादि वाला वोटों के नये इम्तिहान की घण्टी बजा रहा है। सत्ता की कुर्सी दौड़ शुरू होगी चन्द सच्चर घोड़ों के लबादे पहन फिर दौड़ने के लिए तैयार बैठे हैं। 
‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ की धुन पर दौड़ शुरू की सीटियां बज रही हैं। उधर इनमें पलीता लगाने के लिए कई रंग-बिरंगे बैंड एकमेव हों सुर मिला रहे हैं। ‘रे अभागे, न तेरे अच्छे दिन कभी आये थे, न आयेंगे’। ये दिन तो जुमालों में  जीते हैं, भाषणों के कन्धों पर सवार होते हैं, और स्थगित हो जाने के कोलाहल में डूब जाते हैं।
लेकिन चुनावी महाभारत शुरू हो गया। आमने-सामने सजी योद्धाओं की सेनाओं की तरकश में न जाने कितने और तीर बाकी हैं। एक और ब्रह्मास्त्र चला था, इतने बड़े देश में करों का गड़बड़झाला नहीं रहेगा, एक देश रुक कर होगा। बेचने वालों के लिए मण्डियां पूरा देश ही नहीं, अब ‘वसुदैव कुटम्बकम’ का नारा लगायेंगी। लेकिन नारे कर चोरों की बारात ने छीन लिये। पेट्रोल पम्पों के बाहर लगी परेशान लोगों की कतारों ने कहा, ‘एक देश एक कर है, तो सोने के भाव बिकते पेट्रोल को भी इसके अंकुश में लाओ।’ लेकिन बहरे कानों पर ऐसे ध्वनि विस्तारक असर नहीं करते। अब परेशान कतारों को आने वाले दिनों में बाहुबलि हो जाने के सपने से दुलरासा जाता है।
आकाश की ओर देखो। वहां घुमड़ते बादलों के निशान थे। भाषणों के कन्धे पर फिर जुमले सवार हो गये। मित्रो, इस बार मानसून सुखद सन्देश दे रहा है। धरती धन-धान्य से तुम्हारे ओसारे भरेगी। किसान नाच-नाच कर गायेंगे, ‘अच्छे दिन आ गये, अच्छे दिन आ गये’।
बेशक इन बादलों के अच्छे दिन आये। जहां घुमड़ कर बरसे, खूब बरसे। जल थल ही नहीं हुआ। जल प्रलय हुआ। सड़कें बरसाती नदियां बनकर अपने लिए डोंगियां तलाश करने लगीं। पहले इन बरसाती बाढ़ों में खड़ी फसलें बहें, फिर ढोरडंगर और आखिर में धन जन। लेकिन दिलासा देने वाली सरकारी खिड़िकियों ने कहा, ‘चिन्ता न करो। स्थिति नियंत्रण में है। बस अनुदान की कृपा अब होने वाली ही है। बांटने वाले मध्यजन हर्षित हो जायें।’
भाषणबाज चिंतित नहीं। उनके जुमले कहते हैं, आखिर अंतर्राष्ट्रीय कहर पर किसका जोर? पर्यावरण प्रदूषण का कहर है। ‘स्वच्छ भारत’ का नारा लगाओ और इससे मिल जुल कर टकराओ। भीड़ बने नारों के गले रुंध गये हैं। जल्दी ही वह किसी जय घोष में बदल जायेंगे। बन्द गलियों में परिवर्तन की बयार के वायदे कपाटों से टकरायेंगे और इसके आखिरी मकान तक आकर दम तोड़ जायेंगे। इस उम्मीद के साथ कि अच्छे दिन अब आने ही वाले हैं।