देश को पदक दिलवाते हमारे गांवों के बच्चे 

अब नौकरी की तलाश में रहने वाले युवाओं को खेलों को भी अपने करियर के प्राथमिकता के रूप में अपनाने के संबंध में सोचना ही चाहिए। अब आपको खेलों की  सफलता भी मालामाल कर सकती है। आपको नौकरी और नकद पुरस्कार और सामाजिक प्रतिष्ठा के अलावा भी तमाम सुविधाएं मिलती हैं। इसलिए युवाओं को खेलों को नजरअंदाज तो हरगिज ही नहीं करना चाहिए। बिहार से इस एशियाई खेलों में कोई भी पदक विजेता नहीं निकला। बिहार के समाज और सरकार को इस संबंध में गंभीरता से सोचना होगा कि आखिर राज्य खेलों में अब तक क्यों फिसड्डी रहा है? यह ठीक है कि बिहारी समाज में पढ़ने .लिखने पर विशेष फोकस दिया जाता है, पर यह सोच तो थोड़ी बदलनी होगी। आप पढ़िए जरूर पर खेलों को नजरअंदाज तो मत करिए। बिहारी कहावत है किए ‘पढ़ोगे-लिखोगे, बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे, बनोगे खराब’ अब सार्थक नहीं रही इसमें बदलाव की सख्त जरूरत आन पड़ी है। एक समस्या यह भी हो रही है कि हमारे यहां खेलों का मतलब मोटा-मोटी क्रिकेट को ही मान लिया गया है। अधिकतर युवाओं और उनके अभिभावकों को यह लगता है कि क्रिकेटर बनकर ही स्टार बना जा सकता है। इस मानसिकता के चलते जगह.जगह क्त्रिकेट कोचिंग सैंटर खुलते जा रहे हैं। एथलेटिक्स, मुक्केबाजी, बैडमिंटन, स्क्वैश, शूटिंग जैसे खेलों की अकादमियां गिनती की ही हैं। पर ये व्यक्तिगत ही खेल देश को सही मायने में पदक दिलवाते हैं। क्रिकेट का तो वैसे भी कोई पदक इन खेलों में नहीं है। इसलिए सरकार को इन खेलों पर विशेष ध्यान देते रहना होगा। नौजवानों को भी इन खेलों को अपनाना होगा। ये खेल आपको देखते-देखते एक मुकाम पर पहुंचा सकते हैं। रातों रात हीरो बना सकते हैं। उसके बाद तो आपको शिखर पर जाना है। अभी तक हम खेलों की दुनिया में कोई शक्ति नहीं बन पाए हैं। अमरीका या चीन से  तो हम मीलों पीछे हैं। हमें फिलहाल अपनी तुलना अमरीका या चीन से करनी भी नहीं चाहिए क्योंकि इसका कोई मतलब ही नहीं है। अभी तो अगर हम अपने स्कूलों में खेल के मैदान ही उपलब्ध करवा दें तो बड़ी उपलब्धि होगी। इस तरह का कदम उठाने से देश खेलों में लंबी छलांग लगाने की स्थिति में होगा। देश में खेलों की संस्कृति विकसित करने में मदद मिलेगी। अभी तो लाखों स्कूलों में खेल के मैदान तक नहीं हैं।हम कुछ ही खेलों तक अपने को सीमित नहीं रख सकते। हालांकि, कुछ जानकार इस तरह का सुझाव देते रहते हैं। दरअसल हमारा देश बहुत ही विशाल है। यहां पर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग खेलों को लेकर जनता में दिलचस्पी रहती है। इसलिए सरकार के स्तर पर कुछ खेलों पर ही खास फोकस नहीं रखा जा सकता है। भारत में तो क्रिकेट, फुटबाल, हॉकी, बैडमिंटन, टेनिस, कबड्डी, कुश्ती, शतरंज समेत अनेक खेल लोकप्रिय हैं। इसलिए देश को सभी खेलों पर तवज्जो देते रहना होगा।  यहां यह भी समझ लिया जाए कि एशियाई खेलों से लेकर ओलंपिक खेलों में देश उसी स्थिति में आगे जाएगा जब देश का निजी क्षेत्र खेल के प्रति अपना दायित्व समझेगा। खेलों के विकास में प्राइवेट सैक्टर को और निवेश करते रहना होगा। अभी हमारे यहां आईटी सैक्टर की कंपनियां खेलों के विकास से दूर हैं। अंत में एक बात और। भारत में विभिन्न खेलों की टीमों के चयन में धांधली के आरोप लगते रहे हैं। इस स्तर पर पारदर्शिता अपनाई जानी चाहिए। टीमों के चयन में पक्षपात करने वाले तत्वों पर कठोर कार्रवाई होनी चाहिए। पहले तो चुनाव में क्षेत्रवाद की भूमिका रहती थी। इस मोर्चे पर हम पहले से बहुत सुधर गए हैं। एक बात और कहने का मन है। पी.वी. सिंधू को लेकर। वो बेहतरीन खिलाड़ी है। उसने बैडमिंटन की एकल प्रतियोगिता में चांदी का पदक जीता। वो फाइनल में हार गई। उसका फाइनल में बार-बार हारना सुखद संकेत नहीं है। वो रियो ओलंपिक में भी फाइनल में हारी थी। कुछ अन्य प्रतियोगिताओं में भी उसे चांदी का पदक ही मिला। वो अपने से काफी नीचे रैंक की खिलाड़ियों से भी हार रही है। उसके कोच गोपीचंद भी उसके फाइनल में लगातार हारने से निराश होंगे। सिंधू को अब स्वर्ण पदक जीतने की आदत डालनी होगी। बहरहाल, 18वां एशियाई खेल भारत को खूब पदक दे गया। पर अभी तो हमारे युवा खिलाड़ियों को शिखर पर जाना है।