त्याग की महिमा

कंजूस के भाग्य से जिस मोहल्ले में वह रहता था, उस मोहल्ले के मंदिर में एक बार कथा का आयोजन हुआ। कथा कई दिनों तक चली। कंजूस को भी सुबुद्धि आई तो वह भी कथा सुनने के लिए जाने लगा।कंजूस को कथा में रस आने लगा। हालांकि उसे कंजूस मक्खी चूस समझकर वहां कोई उसकी कदर नहीं करता था। फिर भी वह रोज आता और एक कोने में बैठकर कथा सुनता रहता। कथा समाप्त होने पर सबसे पहले उठकर अपने घर को चल देता। कथा के अंत में भंडारा होने वाला था। कथावाचक ने सूचना दी कि कल भंडारा होगा। उसके लिए जिसको जो चढ़ाना है, वह ले आए। अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार सब कुछ न कुछ चढ़ाने के लिए ले गए। चढ़ावा चढ़ाकर सब लोग यथास्थान बैठते जाते थे। भीड़ काफी थी। कंजूस को कोई आगे बढ़ने नहीं देता था। कंजूस की बारी तब आई जब सब लोग अपना चढ़ावा चढ़ा चुके थे। कंजूस को आगे बढ़ता देख भक्तों को हंसी आने लगी। उसके हाथ में मैली-सी गठरी देखकर तो और भी हंसी आती थी, लेकिन कंजूस को इसकी परवाह नहीं थी। कंजूस आगे बढ़ा। उसने कथावाचक को प्रणाम किया। भगवान को प्रणाम किया और अपने चीथड़े रुमाल की गांठ खोलकर जब उसने चढ़ावा चढ़ाया तो लोगों को ‘खन-खन’ की आवाज सुनाई दी। सबको आश्चर्य हुआ। सबकी नजरें उधर गईं तो देखकर सब हैरान हो गए। उन्होंने देखा कि कंजूस ने सोने की अशर्फियां चढ़ाई हैं। चढ़ावा चढ़ाकर जब कंजूस अपने स्थान पर बैठने के लिए जाने लगा तो पुजारी महाराज ने कहा-‘सेठजी! वहां नहीं, आप तो यहां बैठिए।’कंजूस बोला-‘यह मेरा आदर नहीं, यह तो मेरी अशर्फियों का आदर है वरना मैं तो रोज ही आता था और रोज ही यहीं पर बैठता था।’ पुजारी बोला-‘सेठजी! नहीं, यह आपकी अशर्फियों का आदर नहीं बल्कि आपके त्याग का आदर है। अशर्फियां तो तब भी आपके पास थीं, किन्तु आज आपने महान त्याग किया है, इसलिए आप सम्मानित व्यक्ति बन गए हैं।’ यह है त्याग की महिमा, कंजूस से वह सेठ बना और सम्मान भी पाया।

-धर्मपाल डोगरा ‘मिंटू’