श्राद्ध पितरों के प्रति श्रद्धा-अर्पण

मृत शरीर की आत्मा की संतुष्टि एवं शांति के लिए जो कर्म किया जाए, उसे श्राद्ध कहते हैं। हमारा सनातन धर्म पूर्ण सहिष्णु एवं विश्व कल्याणमय है, जिसमें इह्लोक के साथ परलोक को भी महत्व दिया गया है। उसके अनुसार वर्ष में एक सम्पूर्ण पक्ष (पन्द्रह दिन) पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा एवं निष्ठा प्रकट करने के लिए ही नियत किया गया है। इस पक्ष में पिता, पितामह एवं अन्य संबंधियों को श्राद्ध करने का उल्लेख विभिन्न धर्मों में मिलता है। श्राद्ध आश्विन कृष्ण पक्ष पितृपक्ष के नाम से सुप्रसिद्ध है। जो मनुष्य श्रद्धा से श्राद्ध करता है, वह पितरों सहित सम्पूर्ण संसार को प्रसन्न करता है। पितृकर्म से दीर्घायु, यश, श्रीकीर्ति एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है। श्राद्धसार एवं यस्मृति  में श्राद्ध का महत्व प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि श्राद्ध से आयु, पुत्र यश, कीर्ति, समृद्धि, बल, श्री-सुख, धन-धान्य की प्राप्ति होती है। ज्योतिष शास्त्र व धर्मशास्त्रादि ग्रंथों से श्राद्ध के विषय में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध होते हैं।  भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जिस प्रकार मनुष्य जीर्ण वस्त्र उतार कर नवीन वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है। शरीर के मृत हो जाने पर भी आत्मा सदैव अमर रहती है। इसी कारण से मृत पूर्वजों के नाम से दान आदि करने पर उनकी आत्मा तृप्त होती है।
श्राद्ध का संबंध पितृलोक से ही है। पितृलोक में ही पितरों का निवास माना गया है। पितर दो प्रकार के होते हैं-नित्य और नैमित्तिक। ईश्वरीय विधान के अनुसार नित्य पितर ही नैमित्तिक पितरों तक श्राद्धान्न पहुंचाते हैं। शास्त्रों के अनुसार उन्हें तो मात्र तृप्ति का आभास होता है अर्थात् वे जिस योनि में पहुंचे होंगे, उस योनि में उन्हें तृप्त करने वाली जो भी स्वाभाविक वस्तुएं होंगी, श्राद्ध के फल उसी रूप में परिवर्तित होकर मत प्राणी की तृप्ति का कारण होगा। वाल्मीकि रामायण, तुलसीकृत द्वारा रामचरित मानस में भी राम द्वारा श्राद्ध क्रिया का वर्णन मिलता है। गया में श्राद्ध करने के पश्चात् भी श्राद्धपक्ष में श्राद्ध करना उचित माना गया है। यदि आत्मा मुक्ति प्राप्त कर चुकी हो, तो भी श्राद्धकर्ता को तो पुण्य प्राप्त होता है। श्राद्धकाल में ब्राह्मण भोजन को महत्व दिया गया है। यदि यह संभव न हो तो कच्चा धान व दक्षिणा का भी उतना ही फल प्राप्त होगा। इसमें असमर्थ हों तो गायों को चारा डलवाया जा सकता है। यदि और कुछ भी संभव न हो तो श्रद्धा सहित पितरों का स्मरण कर उन्हें नमस्कार करना ही उनको तृप्त कर देगा और वे श्राद्धकर्ता को आशीर्वाद प्रदान करेंगे। शास्त्रों में मनुष्य के लिए देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण उतारना आवश्यक बताया गया है। पितृऋण से मुक्त न होने पर जीवन निरर्थक है। जीवित माता-पिता की सेवा करने पर भी कमी रह ही जाती है। उसी के लिए श्राद्ध करना सरल उपाय है। पुत्र को चाहिए कि वह अपने माता-पिता की मरण तिथि के मध्यान्ह काल में पुन: स्नान करके श्राद्ध करें। एक, तीन या पांच ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करें। ब्रह्म पुराण के अनुसार आश्विन (क्वार) मास के कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितरों को स्वतंत्र कर देते हैं ताकि वे अपनी संतान द्वारा किए पिंडदान के लिए पृथ्वी पर आ सकें। कर्म पुराण के अनुसार पितर अपने पूर्व गृह में यह जानने के लिए आते हैं कि उनके कुल के लोग उन्हें याद करते हैं या नहीं। वे श्राद्ध करने वालों को आशीर्वाद देते हैं। हरिवंश पुराण में भीष्म युधिष्ठिर को समझाते हुए कहते हैं-पितर गण धर्म चाहने वालों को धर्म, संतान चाहने वालों को संतान और पुष्टि चाहने वालों को पुष्टि भी प्रदान करते हैं। अत: आज के भौतिक युग में पितृपक्ष के सोलह दिनों में पूर्वजों/मृत संबंधियों की पुण्य तिथियों पर पितृपूजन, तर्पण, ब्राह्मण भोजन, अन्न-वस्त्रादि दानकर्म से पितरों की आत्मा तृप्त होती है और वे पारिवारिक सुख शांति का आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

— उमेश कुमार साहू