राफेल समझौते का विवाद


10 वर्ष तक कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार प्रशासन चलाने के समय अपनी दूसरी पारी में बुरी तरह घोटालों में घिर गई थी। नित्य दिन सामने आते नए से नए ऐसे मामलों के कारण मनमोहन सिंह सरकार का प्रभाव बेहद फीका पड़ गया था, जिस कारण सरकार पुन: पांवों पर खड़ी नहीं हो सकी। उसके बाद भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की मोदी सरकार ने सत्ता संभाली। चार वर्ष के अर्से तक कांग्रेस के नेता खासतौर पर राहुल गांधी इस खोज में लगे रहे कि वह सरकार का कोई न कोई ऐसा मामला सामने लाएं, जिसको घोटाले के रूप में बदला जा सके। 
अंतत: राहुल गांधी के हाथ फ्रांस के साथ राफेल लड़ाकू विमानों के सौदे का मुद्दा लग गया। शायद राहुल को यह भ्रम था कि वह अपने पिता राजीव गांधी के समय हुए बोफोर्स तोपों के सामने आए घोटालों पर उससे उस समय सरकार की हुई बड़ी किरकिरी का बदला राफेल सौदे को मुद्दा बनाकर ले लेंगे। इसके संबंध में राहुल ने संसद से लेकर अब तक की अनेक सार्वजनिक रैलियों में राफेल का राग अलापा है। इसलिए कांग्रेस ने पूरी शक्ति लगाई है। उसने अन्य विपक्षी पार्टियों से भी इस मुद्दे का विरोध करवाने का प्रयास किया है, परन्तु उसको इस संबंधी आज तक पूरी सफलता नहीं मिली। राहुल द्वारा उभारे जा रहे इस मुद्दे में कुछ जान तब पड़ी जब फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांसिस ओलांदे ने अपनी देश की किसी पत्रिका में यह बयान दिया कि इस सौदे में फ्रांस की कम्पनी डासाल्ट एविएशन को अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को भारत में राफेल विमान तैयार करने के लिए समझौते में गुट बनाने हेतु भारत सरकार की ओर से कहा गया था। पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति के इस बयान से काफी दिन पूर्व राहुल ने यह बयान दिया था कि शीघ्र ही इस सौदे संबंधी कोई बम फूटने वाला है। इस बात का उनको ज्ञान कैसे हुआ, यह तो वही जानते हैं। जहां तक रक्षा संबंधी आवश्यक सामान और उपरोक्त विमानों की खरीद का संबंध है, गत कई दशकों से सेना के जनरलों द्वारा मांग की जा रही थी कि भारतीय वायुसेना को पाकिस्तान और चीन दोनों के मुकाबले में खड़ा करने के लिए इसको बढ़िया लड़ाकू विमानों की ज़रूरत है। इस संबंधी समय की सरकारों की ओर से रक्षा मंत्रालय तथा वायुसेना के प्रमुखों के साथ विचार-चर्चा होती रही। राफेल लड़ाकू विमान खरीदने की योजना मनमोहन सिंह की सरकार के समय बनाई गई थी। उस समय 126 विमान खरीदने की बात चली थी, जिसमें भारत में इन विमानों को तैयार करने के लिए हिन्दोस्तान एरोनोटिकल लिमिटेड को भी भागीदार बनाने की बात चली थी। मोदी सरकार के समय भी इस रक्षा मामले संबंधी लम्बे समय तक प्रत्येक स्तर पर बातचीत चलती रही। 
अंतत: 2015 में नरेन्द्र मोदी की फ्रांस यात्रा के समय 36 लड़ाकू विमानों को खरीदने का सौदा हुआ था। इन विमानों की अनुमानित कीमत 58,000 करोड़ रुपए बनती है, जिनमें 30,000 करोड़ रुपए के पुर्जे तथा अन्य सामान डासाल्ट राफेल कम्पनी द्वारा भारत में अनिल अंबानी की कम्पनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड के साथ मिलकर बनाये जायेंगे। राहुल गांधी का पक्ष यह है कि एक तो विमानों की कीमत में वृद्धि की गई है, दूसरा अनिल अंबानी की कम्पनी को इस समझौते में किस तरह शामिल किया गया है, जबकि इसके पास इस कार्य का कोई अनुभव नहीं है। इस संबंधी फ्रांस की मौजूदा सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि किसी भी निजी कम्पनी में सरकार का किसी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं होता और न ही सरकार ने डासाल्ट कम्पनी को भागीदारी के लिए भारत ने किसी तरह का नाम सुझाया था। डासाल्ट एविएशन कम्पनी ने इस बात की पुष्टि की है। नि:संदेह भारत सरकार ने इस संबंधी अपनी ओर से कोई पूरी सफाई पेश नहीं की, अपितु उसके मंत्री राहुल गांधी के दोषों का ही जवाब देते हैं, जबकि कुछ अन्य विपक्षी पार्टियों ने इस सौदे संबंधी पूरा स्पष्टीकरण देने की मांग की है। प्रधानमंत्री ने इस संबंधी कोई विस्तार नहीं दिया। केन्द्र सरकार यह पक्ष पेश करती आई है कि सुरक्षा के दृष्टिकोण से सरकारों के बीच हुए इस सौदे संबंधी पूरा विस्तार नहीं दिया जा सकता। 
हम महसूस करते हैं कि सरकार को लगाये जा रहे इन दोषों संबंधी अपना पूरा विस्तृत स्पष्टीकरण अवश्य देना चाहिए, ताकि इस संबंधी स्थिति स्पष्ट हो सके। विपक्षी पार्टियों द्वारा इस संबंधी मामला संसद की सिलेक्ट कमेटी के पास भेजने की भी मांग की जा रही है। इसी महीने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी डाली गई है, इस संबंधी कांग्रेस का कहना है कि वह इस संबंधी अदालत में और सबूत लेकर जायेगी। नि:संदेह लगाये जा रहे सरकार पर इन दोषों संबंधी ठोस सबूत सामने लानें चाहिएं, जिनसे इस केस संबंधी पूरा सच सामने आ सके। कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी पार्टियां यदि तथ्यों के बिना बयानबाज़ी करेंगी तो लोगों में उनकी स्थिति और भी हल्की हो सकती है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द