राफेल विमान सौदा : इस दौर-ए-सियासत के अंदाज़ निराले हैं...


नैतिकता, ईमानदारी तथा शिष्टाचार जैसे क्षेत्र में तो भारतीय राजनीति में निरंतर हृस होता ही जा रहा है। परंतु गत कुछ वर्षों से सियासत में बदज़ुबानी तथा एक-दूसरे पर लगाए जाने वाले आरोपों व प्रत्यारोपों के दौरान किए जाने वाले शब्दों का चयन निश्चित रूप से सियासत के बदनुमा होते जा रहे चेहरे को बेऩकाब करता है। हालांकि भारतीय राजनीति में आया नया भूचाल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा गत् दिनों एक प्रैस वार्ता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति प्रयोग किए गए आपत्तिजनक शब्दों को लेकर मचा है। हमारे देश में सत्ताधारी दल सत्ता में बने रहने के लिए तथा विपक्षी दल सत्ता में आने की कोशिशें करते हुए हर संभव रणनीति अपनाते रहे हैं। 
कोई भी राजनीतिक दल एक-दूसरे को नीचा दिखाने,उसके मुंह पर कीचड़ व कालिख पोतने के लिए किसी पर भी झूठे-सच्चे इल्ज़ाम मढ़ सकता है। यहां तक कि अब तो अपने विरोधी को देशद्रोही,राष्ट्रद्रोही,राष्ट्रविरोधी या पाक व चीन समर्थक बता देना भी साधारण-सी बात हो गई है। सत्ता में बने रहने की राजनेताओं की इसी चाहत ने देश की राजनीति व इसके तौर-तऱीकों को पूरे विश्व में बदनाम कर दिया है। यहां के राजनेता कुर्सी की इस खींचतान में ़खुद अपनी ही साख खोते जा रहे हैं। दुनिया देख रही है कि सत्ता पाने व बचाने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वियों के प्रति किस प्रकार के अपशब्दों का प्रयोग भारतीय राजनेता करते हैं। 
ताज़ा तरीन घटनाक्रम ऱाफेल विमान सौदे से संबंधित है। गत दिनों फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का एक बयान एक फ्रांसीसी वेबसाईट में प्रकाशित हुआ जिसमें औलांद के हवाले से यह कहा गया था कि-‘भारत सरकार ने ऱाफेल सौदे के लिए एक निजी कंपनी का नाम सुझाया था। भारत सरकार ने फ्रांस सरकार से रिलायंस ड़िफेंस को इस सौदे के लिए भारतीय सांझीदार के तौर पर नामित करने के लिए कहा था। पूर्व राष्ट्रपति औलांद ने आगे कहा कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं था तथा भारत सरकार ने रिलायंस ड़िफेंस का नाम सुझाया था। और ऱाफेल निर्ता कंपनी डसाल्ट ने  अंबानी से बात की थी।’ इस बयान में ़फ्रांस की ओर से इसी वक्तव्य के संदर्भ में आगे यह भी स्पष्ट किया गया कि इस सौदे हेतु भारतीय औद्योगिक साझेदारों को चुनने में ़फ्रांस सरकार की कोई भूमिका नहीं है। गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी ऱाफेल विमान सौदे को लेकर मोदी सरकार पर लगातार हमलावर है। कांग्रेस इस सौदे में तय की गई वर्तमान ़कीमतों को लेकर तथा इन विमानों के रख-रखाव हेतु रिलांयस ड़िफेंस को ही ठेका दिलाने के विषय पर सीधे तौर पर मोदी सरकार पर उसी अंदाज़ से हमलावर है जैसेकि ब़ोफोर्स तोप सौदे को लेकर 1986-87 में यही आज के सत्ताधारी राजीव गांधी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे तथा मिस्टर क्लीन की उनकी बनी छवि को धूमिल करने की कोशिश कर रहे थे। 
लोकतंत्र में सवाल-जवाब करना, स्पष्टीकरण मांगना, आलोचना करना अथवा संदेह या शंका समाधान जैसी बातें लोकतंत्र की सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा हैं। परंतु उनमें निश्चित रूप से शब्दों का चयन किसी भी व्यक्ति की मान, प्रतिष्ठा तथा मर्दा के अनुरूप ही होना चाहिए। जो लोग स्वयं को देश का शुभचिंतक बताएं, राष्ट्र का प्रतिनिधिहोने का दावा करें और पूरा विश्व भारत के प्रतिनिधिचेहरे के रूप में उन्हें देखे, उसके बाद वही व्यक्ति अपने मुंह से घटिया, ओछी या असंसदीय बातें करने लगे तो नि:संदेह यह देश की प्रतिष्ठा का भी प्रश्न है तथा ऐसी बातों से भारतीय राजनीति के गिरते स्तर का भी अंदाज़ा होता है। 
राहुल गांधी को राष्ट्रपति ओलांद के बयान से इतनी ‘ऊर्जा’ प्राप्त हुई कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे तौर पर ‘चोर’ जैसे शब्द से संबोधित कर डाला। एक राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष पर इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना शोभा नहीं देता। परंतु क्या भारतीय राजनीति में किसी ज़िम्मेदार व्यक्ति ने पहली बार प्रधानमंत्री को किसी असंसदीय शब्द से ‘नवाज़ा’ है? 
जो भाजपा राहुल गांधी के बयान से तिलमिलाई हुई है उसे स्वयं याद करना चाहिए कि उसने व उनके आज के शीर्ष नेताओं ने नेहरू-गांधी परिवार को बदनाम करने, उनके चरित्र हनन के लिए तथा उन्हें नीचा दिखाने के लिए किन-किन शब्दों का प्रयोग नहीं किया और आज तक करते आ रहे हैं? स्वयं मोदी जी राहुल गांधी को कभी कार का ड्राईवर तो कभी कोई किराए पर इसे मकान भी नहीं देगा जैसे शब्दों व वाक्यों से सम्मानित करते रहे हैं। भाजपा द्वारा गढ़े गए रोम राज्य बनाम राम राज्य जैसे नारों का क्या अर्थ था?   
बहरहाल,जैसा कि प्रतीक्षित था राहुल गांधी की प्रैस कां़फ्रेंस के ़फौरन बाद केंद्र सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने मोर्चा खोला। उन्होंने पहले तो भाजपा की रणनीति के अनुसार गांधी परिवार पर अपनी भड़ास निकाली। ब़ोफोर्स से लेकर आदर्श, 2जी जैसे उन्हीं घोटालों का नाम लिया जिसकी सवारी कर यह 2014 में सत्ता में आए थे। ऱाफेल सौदे के संबंध में तरह-तरह के स्पष्टीकरण देने की कोशिश की परंतु औलांद के जिस बयान को लेकर राहुल गांधी हमलावर हुए थे उस बयान पर उनका केवल यही कहना था कि औलांद ने किन परिस्थितियों में, किन मजबूरियों के तहत और क्यों यह बयान दिए, नहीं पता। ज़ाहिर है यह राहुल गांधी के आरोपों का म़ाकूल जवाब नहीं था। लोकतंत्र में यदि कोई जनप्रतिनिधि आप पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाए तो इस विषय पर स़फाई देने की ज़रूरत होती है न कि दूसरे को ही भ्रष्टाचारी कहकर अपने को बेद़ाग साबित करने जैसी कुटिल नीति अपनाने की। भाजपा इस प्रकार के पेचीदा सवालों को यही कहकर टाल देती है कि सवाल पूछने वाला व्यक्ति इस योग्य नहीं या यह गोपनीय उत्तर है, सवाल पूछने वाला स्वयं अपनी हैसियत या अपने-आप को देखे अथवा प्रश्नकर्ता द्वारा प्रश्न पूछकर चीन या पाकिस्तान को मदद पहुंचाई जा रही है। आदि-आदि। 
राहुल गांधी ने पूर्व राष्ट्र्रपति औलांद के बयान से यही निष्कर्ष निकाला है कि भारत सरकार द्वारा केवल अनिल अंबानी की रिलायंस ड़िफेंस कंपनी को ही इस ऱाफेल विमान के रख-रखाव का ठेका दिलवाया गया। यह एक बहुत बड़ा सुनियोजित घोटाला है। राहुल गांधी ने इसे प्रधानमंत्री मोदी व अनिल अंबानी द्वारा सेना पर मिलकर किया गया एक लाख तीस हज़ार करोड़ रुपये का ‘सर्जिकल स्ट्राईक’ बताया। 
इस पूरे प्रकरण में ऱाफेल विमान सौदे की ़कीमतों के विशाल अंतर को लेकर दलाली खाने या किसी उद्योगपति को इसके रख-रखाव का ठेका दिलाए जाने जैसे आर्थिक घोटाले मात्र के ही आरोप नहीं हैं बल्कि इस साज़िश के पीछे हिंदोस्तान एयरोटिक्स लिमिटेड और डीआरडीओ जैसे देश के प्रतिष्ठित रक्षा उपकरण संस्थानों की अनदेखी करने व इसे नीचा दिखाने जैसी कोशिशें भी शामिल हैं। अब तो एचएएल के अधिकारियों द्वारा भी यह कहा जाने लगा है कि जो कंपनी सुखोई जैसे विमानों का रख-रखाव कर सकती है वो ऱाफेल विमान का निर्माण क्यों नहीं कर सकती। परंतु मोदी सरकार द्वारा इन सभी आरोपों या शंकाओं का कोई तथ्यपूर्ण जवाब नहीं दिया जा रहा है। आरोपों-प्रत्यारोपों के इस दौर में जनता स्वयं को ठगी हुई महसूस कर रही है। 
परंतु बड़े उद्योगपतियों का वर्तमान दौर में तेज़ी से पैर पसारना, कई लुटेरों का देश के बैंकों को कंगाल बनाकर चला जाना और आम जनता द्वारा बढ़ती मंहगाई के रूप में इन लुटेरों की लूट का भुगतान करना यह सोचने के लिए ज़रूर मजबूर करता है कि आ़िखर क्या वजह थी कि 2010 के बाद से ही इन्हीं उद्योगपतियों द्वारा यह प्रचारित किया जाने लगा था कि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने में पूरी तरह सक्षम हैं? इन्हीं हालात से यह ज़ाहिर होता है कि- इस दौर-ए-सियासत के अंदाज़ निराले हैं?