महसूस कीजिये कि आपने बहुत तरक्की कर ली


आली जाह, लोकतंत्र में जनता ही तो जनार्दन होती है, इसलिए हम आपकी आंखों में आंख डाल कर दोनों हाथों से ताली बजा कर कहते हैं कि महसूस कीजिये अच्छे दिन आ गये। देश ने बहुत तरक्की कर ली। अभी एक नया सूचकांक सामने आया है जो यह बता रहा है कि अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में गरीबी रेखा से नीचे जीते लोगों की संख्या में कमी हुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले ऐसे लोग दिन में एक जून रोटी खाते थे, और दूसरी जून ठण्डा पानी पी कर खाली पेट पर तबला बजाते थे।
अब बेशक स्थिति सुधर गई है। देश के मरभुक्खों को दूसरी जून रोटी देने के लिए तेज़ी से साझी रसोइयां खोली जा रही हैं, जहां सतयुगी कीमत पर उन्हें खाना प्रदान किया जा रहा है। चाहे इसे प्रदान करने वाले कलियुगी धन्ना सेठ हैं, काले धन के भामासाह हैं, या मिलावटखोरी से लेकर हर तरह के नशातंत्र के माफिया डॉन। पहले ये लोग अपने इस अकूत धन से सरकारें बनाने और बिगाड़ने का सांप सीढ़ी खेल खेलते थे। अब जब भूखों का क्रन्दन बढ़ गया और अपना देश भुखमरे देशों के सूचकांक में भी कई पायदान ऊपर चढ़ गया, तो इन काले धन सम्राटों की अंतरात्मा जागी। क्यों न साझी रसोइयां खोल कर भूखों के पेट में दो टुक्कड़ डाल दो, नहीं तो अन्य देशों की तरह यहां भी भूखों ने रोटी छीनने के लिए दंगे शुरू कर दिये तो न रहेगा बांस और न रहेगी बांसुरी। अब जब रोम जलता हो तो नीरो को तो बांसुरी बजानी होती है, इसलिए दया और करुणा के नाम पर संसद में भीख मांगना वैध करने का कानून पास करवाया जा रहा है। हम तो कहते हैं कि लगे हाथ रक्षा ही क्या रोज़मर्रा के बड़े सौदों में भी दलाली खाने का कानून पास करवा लो। फिर न बोफोर्स कांड होगा, और न ही राफेल कांड के घपले का स्वर गूंजेगा। मेज के नीचे से रिश्वत पकड़ने को तो बाबू लोगों ने पहले ही कानूनी बना रखा है, अब क्यों न सरेआम इसे मेज से ऊपर से पकड़ लिया करें। नागरिकों को काम करवाने का अधिकार अपने आप मिल जायेगा। ये सुविधा केन्द्र भी असुविधा केन्द्र नहीं कहलायेंगे। 
बिल्कुल उसी तरह से जैसे आप स्वच्छ भारत के शहरों से स्मार्ट शहरों की ओर बढ़ गये। आजकल स्वच्छता और स्मार्ट सूचकांक बन रहे हैं। शहरों द्वारा इनमें घुसपैठ की दौड़ लगाई जा रही है। निरीक्षण के दिन नई सजी बहू की तरह शहर स्वच्छ हो जाते हैं और स्मार्ट भी। स्वच्छ भारत की मुनादी करने वालों का कारवां गुजर जाता है तो बकौल नीरज हम उसका गुब्वार देखते रहते हैं। स्व. नीरज ने तो मोड़  पर रुके-रुके उस वकाया गुब्वार को देखते रहना था। हम तो अपनी मज़र्ी से रुक भी न पाये। घोषणाओं की भीड़ के ट्रैफिक जाम में धंसे रुके खड़े हैं। पैरों के नीचे की नई धरती टटोलते हैं, तो पाते हैं कि अधूरे फ्लाईओवर पर खड़े हैं। ये वर्षों से अधूरे पड़े हैं, क्योंकि सरकारों का खजाना खाली है और कर मुंशी जी अपनी जेब गर्म करने के अंदाज़ से लाचार।
अभी स्वच्छ भारत की मुनादी करने वाले यहां से निकल गये और अपने पीछे छोड़ गये हैं, कूड़े के डम्प, अंधेरे पार्कों के कोने में छिपे जेब तराश और फ्यूज़ लाइटों वाली निर्जन सड़कों पर अपने ग्राहक टटोलती पेशेवर लड़कियां। 
उनकी बेबाकी देख कर जाने क्यों लगता है कि भीख मांगने, दलाली खाने, उधार की अर्जियां लगाने की तरह इन पेशेवर लड़कियों का धंधा भी जायजा घोषित हो जाना चाहिए।
देखते ही देखते इस देश में न जाने कितना कुछ जायज़ हो गया। पहले जिसे दूर की हांकना कहा जाता था, अब वही इस इक्कीसवीं सदी में जुमलों के सच हो गये। बेकारों को कहा है महसूस करो तुम्हें नौकरी मिल गई है। हमने काम देने का वायदा किया था। बताओ अपना काम शुरू करना क्या रोज़गार नहीं। चाहे पुल बना सकने वाला तेल बेचे या फिलास्फी का डाक्टर पकौड़े तले। हमने मुद्रा योजना में बिना जमानत दस-दस लाख रुपए बांट दिये हैं, आपके हिस्से में महज़ तिरतालीस हज़ार रुपये आये तो हम क्या करें? अब इनसे मज़े के साथ पकौड़े बेचिये। किसी डिस्को के बाहर खड़े हैं, तो मोमो बेचने का ठेला भी लगा सकते हैं। आजकल इसकी बड़ी क्रेज़ है।
परन्तु, अजी, सुनिये तो। आप तो अपनी डॉक्टरेट की डिग्री लहराते हुए चपड़ासियों की भर्ती की भीड़ में खड़े हो गये। बस यही तो आजकल के युवाओं में कमी है। इन्हें कहो कुछ करते कुछ हैं। भला ऐसे लोगों के अच्छे दिन कैसे आयेंगे?