सज़ा-ए-मौत और ढीली पड़ीं फंदे की गांठें

वर्ष 2012 में निर्भया कांड की गूंज अभी तक सुनाई दे रही है। इससे पूर्व वर्ष 1991 में राजीव गांधी की हत्या हुई थी। वर्ष 1999 में ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टीवर्ट स्टेंस को उनके दो बेटों के साथ जला दिया गया। हमारे देश में हत्याएं होना कोई अनोखी घटना नहीं। कई मुकद्दमे अदालतों में न्याय की प्रतीक्षा में पड़े हैं जिनको सज़ा-ए-मौत की घोषणा हो चुकी है वे भी अभी तक अधर में लटके हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था की उपेक्षा का दंश झेलते कई लोग देश भर की जेलों में सड़ रहे ज़िन्दगी और मौत की अनिश्चितता की यंत्रणा भोग रहे हैं। कमज़ोर अभियोग पक्ष, डगमगाते गवाह, सबूतों से छेड़छाड़ और लंबा खिंचता मुकद्दमा न्याय के उबड़-खाबड़ रास्तों से गुज़र कर जब एक अपराधी को सज़ा-ए-मौत की घोषणा हो चुकी होती है तब भी वह फांसी के फंदे तक नहीं पहुंच पाता ऐसा क्यों? राजीव गांधी के हत्यारे, जिनमें मुरुगन, पेरारिवालन और नलिनी आदि को उच्चतम न्यायालय द्वारा सज़ा-ए-मौत की घोषणा हो चुकी थी फिर भी कानूनी दाव-पेंच में उलझ कर वे फांसी के फंदे तक पहुंचने में बच गए। आतंकवाद का सर्वग्रासी दानव जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है,  उनकी राहें रोकने और उसके संगी-साथियों को धर दबोचने के लिए पुलिस तथा खुफिया सुरक्षा एजेंसियों की कार्रवाइयां भी उसी रफ्तार से तेज हो रही हैं। जब अपराधी पकड़े जाते हैं और न्याय उन्हें सज़ा दे देता है तो भी वे फांसी के रस्से तक नहीं जाते। मानवता की बातें करने वाले तो बहुत हैं परन्तु अपराध रोकने की चेष्टा करता कोई दिखाई नहीं देता। आज देश की हालत देखिए दुष्कर्म और हत्याओं का सिलसिला भारतीय टी.वी. चैनल सनसनीखेज तरीके से लोगों के सामने परोस रहे हैं। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या के इरादे से इशरत जहां और उसके कुछ साथी अहमदाबाद में आए थे। खुफिया तंत्र ने पेशगी सूचना दी और वे मौत के घाट उतर गए। इस पर भी मानव अधिकार की बातें करने वाले लोग कुछ समझ नहीं पाए। किसी घटना के होने पर ही अपराध का रोकना ठीक है। आज पूरे देश में कहीं भी बम ब्लास्ट नहीं हो रहा, क्या इसका श्रेय खुफिया तंत्र को नहीं जाना चाहिए? इससे पूर्व शायद ही कोई महानगर आतंकवादियों द्वारा किए गए बम बलास्ट से बचा हो। मुम्बई की लोकल ट्रेनों में, जावेरी बाज़ार और गेट-वे-ऑफ इंडिया के अतिरिक्त होटल ताज और ओबराए में खून-खराबे से लहू-लुहान होती मासूम ज़िन्दगियां। अजमल कसाब अगर जीवित न पकड़ा जाता तो पाकिस्तान में बैठे आतंकवादियों के चेहरे से पर्दे न हटते। भारत में आज भी उन लोगों के हमदर्द हैं, जिन्होंने मुम्बई की सड़कों को रक्त रंजित किया और 250 से अधिक कीमती जाने चली गईं। भारत के लोकतंत्र के मंदिर यानि संसद भवन पर जिन लोगों ने यह साजिश रची कि देश के नेताओं को एक ही जगह पर खत्म कर दिया जाए, उनमें एक अफज़ल गुरु भी था जिसे सज़ा-ए-मौत दी गई।  गत दिनों दुष्कर्म और हत्या के मामले में दो अदालतों ने सज़ा-ए-मौत का निर्णय किया, उसमें मात्र पांच-छ: दिन लगे। जब हत्या और दुष्कर्म के सबूत मिल जाएं तो फिर किस बात के लिए मुकद्दमो को लंबा खींचा जाता है। गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा है। ‘भय बिन होत न प्रीत गोसांई’ और हमारे न्यायालयों को कानून और इंसाफ को भय का संदेश लोगों तक पहुंचाना चाहिए। फांसी की सज़ा मतलब फांसी दे दी जाए। पाकिस्तान के पेशावर में 132 बच्चों की जब आतंकवादियों द्वारा हत्या की गई तब तत्कालीन वज़ीर-ए-आज़म नवाज़ शऱीफ ने उन हत्यारों को फांसी देने का आदेश दिया जिनकी अपील रहम के लिए खारिज हो चुकी थी और एक ही दिन में नौ लोगों को फांसी दे दी। एक घटना पाकिस्तान  पंजाब की और है कि वहां के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या उसके अंगरक्षक मलिक मुमताज़ हुसैन कादरी ने कर दी। उस पर लोगों ने पुष्प वर्षा भी की और उसके हक में नारे भी लगाए, इस पर भी वहां के न्यायालय ने बहुत थोड़े समय में उसे फांसी पर चढ़ा दिया। क्या हमारे देश में आजकल जो अपराध बेख़ौफ  होकर जहां-तहां वारदातें कर रहा है, उसे रोकने के लिए कठोर सज़ा शीघ्र नहीं दी जा सकती? अबु सलेम जैसा दुर्दांत सरगना जिसे भारत सरकार पुर्तगाल से लेकर आई थी एक शर्त के साथ कि भारतीय न्याय उसे फांसी नहीं देगा लिहाज़ा अबु सलेम उम्र कैद भोग रहा है। यहां एक बात और बता दें जस्टिस राजेन्द्र सच्चर ने एक बार कहा था कि उम्र कैद का भाव है अंतिम श्वास तक कैद में परन्तु अपराधी ऐसा नहीं मानते वे सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय का हवाला देकर और अपने असर रसूख का लाभ उठा कर मात्र चौदह वर्ष ही जेल में गुज़ारते हैं। जस्टिस वर्मा ने जब निर्भया हत्याकांड के पश्चात् इस सज़ा में तबदीली की बात कही थी कि दुष्कर्मी को मृत्युदंड अथवा उम्रकैद की सज़ा दी जाए और सरकार ने भी ऐसा निर्णय कर लिया फिर क्या कारण है कि समाज में ऐसी घृणित घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं। जब तक कठोर सज़ाओं का भय समाज में नहीं बनेगा तब तक यह पाप रुकने वाला नहीं। संसार के बहुत से देशों में ऐसी वारदातों के लिए बहुत कठोर सज़ाएं दी जाती हैं। इसीलिए वहां ऐसा जुर्म करने से पूर्व एक व्यक्ति की रूह कांपती है।