नींद से कब जागेंगे लोग ?


यह देश पिछले साठ वर्ष से सो रहा था, हमने उसे जगा दिया। सुना था कि कुम्भकर्ण छ: महीने सोता था और छ: महीने जागता था। जब श्री राम से लड़ने के लिए महाबलि रावण ने उसे जगाया था, तो न जाने कितना शोर-शराभा, कितना हो-हल्ला करना पड़ा था। कनफोड़ बैंड बाजे बजे, तभी महावीर कुम्भकर्ण आंखें मलते हुए उठे, और श्री राम की वानर सेना से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
अब हमारे चुनावरण का क्या परिणाम होता है, यह तो हम अभी से नहीं कह सकते। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि साठ बरस से कुम्भकर्णी निद्रा में सोये हुए इस देश को जगाने के लिए हमने न जाने कितने शतक नाटकीय भाषणों के, और इतने जुमलों का इस्तेमाल करना पड़ा, कि अब उन्हें अनगिनत कहते हुए हमें लज्जा आती है।
देश जब सोया हुआ था तो उसकी जीर्ण शीर्ण अवस्था देख कर हमें दया आ रही थी। गद्दी पर बैठे महानुभाव अपने घपला-घोटाला विशेषज्ञों की सहायता से चोरी का माल लाठियों के गज़ बेच रहे थे, और इसके लिए भारत उदय या चमकते हुए भारत जैसे दिलासा योग्य विशेषणों का उपयोग कर रहे थे।
हमने जनता को बताया कि अभागे बंधुओ, यह ऐसा भाग्य उदय है जहां सूरज की आमद चंद धनियों के प्रासादों, या काले धनके सम्राटों की बंद मुट्ठियों में कैद हो गई, और आप साठ बरस लम्बी रात की मौत जैसी निस्पंद विकास यात्रा को ही सुबह की मंजिल मान बैठे।
इस देश की आधी-आबादी युवकों की है। लेकिन वे इस अंधेरे में भोर की तलाश करते-करते मध्यजनों के चाकर बन गये। जो बचे वे नशों के अंधड़ में बहक अपने पूर्वज देवदास की आत्महन्ता परम्परा का वहन करने लगे। ‘काम हराम है’ और ‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम’ के मूलमंत्र के साथ लोग देश में सामन्ती संस्कृति की भव्यता से चमत्कृत हो इसे परिवर्तक की बयार मान रहे थे।
हमने इस बयार को नकारा। इसे पीढ़ी दर पीढ़ी शासन करने वाली हठधर्मी को नकार एक नई सवेर के वायदे के साथ परिवर्तन के क्रांति दूतों के रूप में सत्ता के मीनारों पर एक नई कलई की तरह हम लोग उभरे।
पहले इन मीनारों पर एक रहस्यपूर्ण मौन पसरा रहता था। इस मौन का माहौल लेकर कभी ‘टालू संत’ अवतरित होते थे, और कभी ‘मौनी-बाबा’। मौनी बाबा ने तो रिमोट कंट्रोल से परिचालित होकर दो शासन पारियां गुज़ार दीं। लेकिन जब भूखे, बेकारों, प्रताड़ित किसानों और उखड़े हुए मजूरों का हड़कम्प असहनीय हो गया, तो कोलाहल के एक नये हड़कम्प के साथ हमारी बड़वोली संस्कृति ने धूल मिट्टी हो रहे लोगों को जगाया। लोगों को लगा कि शायद वह वक्त आ गया, कि जब यह कहा सार्थक हो जाएगा कि ऐ खाक नशीनों उठ बैठो, वह वक्ता मुकाबिल आ पहुंचा, ‘जब ताज उछाले जाएंगे, जब तख्त गिराये जाएंगे।’
लीजिये, साहब परिवर्तन हो गया। देखते ही देखते परिवर्तन के पहले साल गुज़र गये। इससे पहले जहां एक हाथ को नहीं पता चला था कि दूसरा हाथ क्या कर रहा है, अब यह आया नारों और शोर के हुजम का युग। अब सब प्रशंसा के चैम्पियन सामने आ गये।  बैताल हो गये। शार्ट कट संस्कृति इस नये युग का वह स्वर्णिम पथ बनी, जिसके द्वारा भारत की महान अतीत की परिकल्पना को स्वलाम धन्य विद्वानों ने वर्तमान को कचरा बता स्थापित करना चाहा। लेकिन ‘स्वच्छ भारत’ के नारों के बावजूद न आधुनिकता का कचरा बुहारा जा सका, और न ही अतीत की गरिमा पर लगी मिध्याचार और अधकचरी विद्वता की दीमक और फूफंद को समेटा जा सका।
हमने दुनिया भर के अपनी पौन शतक से अधिक यात्राओं के साथ सम्पन्न देशों की इक्कसवीं सदी को अपने देश की 18वीं सदी के स्थगित अंधेरों पर आयात करना चाहा। लेकिन जो परिणाम पाया वह यही था कि ‘कौआ चला हंस की चाल अपनी चाल भी भूल गया।’ ‘मेक इन इंडिया’ के नाम पर हमने अपना ‘मेड इन इंडिया’ भी गंवा दिया। हमारी दस्तकारी, हस्तकला, लघु और कुटीर उद्योग हम तोड़ गये। करोड़ों नौजवानों के हाथ से रोज़गार छिना और वे इस देश के ‘सोने की चिड़िया’ न कहलाने की शोक यात्रा में शरीक हो इस धरती से पलायन के लिए कबूतरबाज़ों के टूटे पंखे तलाशने लगे। बाकी रह गये, उपभोक्ता संस्कृति के तबूत, अधूरे फ्लाई ओवर, और दुनिया के अरबपतियों को शर्मिन्दा करते हुए व्यावसायिक घरानों के वर्चस्व।
लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है, बंधु। आओ, फिर इन सपनों के बायस्कोप दिखाने वालों का महिमा-मंडन करें? क्योंकि शायद आज नहीं तो चार बरस बाद ही हमारी सुन ली जाए। इससे अधिक तो हम कटे फटे लोग और कुछ भी चाह नहीं सकते न। अभी के लिए वही पुरानी बात दुहरा दीजिये। ‘हा/हत भाग्य।’