दहशतगर्दी के भयावह युवा चेहरे और साज़िश

हिन्दोस्तान के लोगों को यह बात अब अनोखी नहीं लगती कि जैश-ए-मुहम्मद, अल-कायदा, लश्कर-ए-तैयबा और हिज़बुल मुजाहिद्दीन और वही लोगों को अज़हर मसूद, हाफिज सैयद और सलाहूद्दीन आदि के नाम सुन कर हैरानी भी नहीं होती है। दहशतगर्दी के यह राक्षसी सोच के मालिक जो खेल कश्मीर के युवा लोगों के साथ खेल रहे हैं यही परेशानी का मुख्य कारण बनता जा रहा है। हथियार व विस्फोटक सामग्री के साथ जब कुछ युवक जालन्धर के किसी शैक्षणिक संस्था के होस्टल से जम्मू-कश्मीर और पंजाब की पुलिस के एक साथ किए गए आप्रेशन में पकड़े जाते हैं तब एक बार फिर गम्भीर समस्या पर गहन चिंतन की आवश्यकता हो जाती है। जब तक घाटी में पत्थरबाज़ी और आतंकवाद एक साथ चलते रहे तब भी कश्मीर के युवकों के पथ भ्रष्ट होने पर देश में चिंता व्याप्त थी परन्तु अब धीरे-धीरे ऐसा लगता है कि युवा वर्ग को कठपुतलियों की तरह अपनी उंगलियों पर नचाने वाले उसे कश्मीर की सीमाओं से बाहर ख़ौफ-ओ-खून का खेल खेलने के लिए तैयार कर रहे हैं। आत्मघाती दस्ते जो पाकिस्तान में दहशतगर्दी की सिखलाई करने वाले कैंपों में तैयार किए जाते हैं उन पर भी अफसोस हिन्दोस्तान के लोगों में है। कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत की डगर पर ऐसे गुमराह युवकों को लाने का प्रयास भी होता है परन्तु जब युवकों को मौत का सामान देकर अन्य राज्यों में भेजने की कोशिश दिखाई दी तब राजनीति के पंडितों में चर्चा होनी स्वाभाविक ही है। वे कहते हैं कि हिन्दोस्तान एक युवा देश है जिसकी 65 प्रतिशत आबादी युवा है वहां युवकों को मौत के हवाले करना कहां तक उचित कहा जा सकता है। खेद की बात यह है कि घाटी में बैठे कुछ नेता जो पाकिस्तान के इशारों पर चल रहे हैं वह भावी पीढ़ी को उकसा कर पाकिस्तान की मंशा को पूरा कर रहे हैं।11 सितम्बर, 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर आतंकवादियों ने जब हमला किया तब अमरीका को पता चला कि दहशतगर्दी क्या होती है? तब अमरीका ने दहशतगर्द के खिलाफ जंग छेड़ दी। इराक, अफ़गानिस्तान के तानाशाहों के तख्त पलट दिए। यहीं पर ही बस नहीं उसने पाकिस्तान के एपटाबाद में छुपकर रहते संसार के  सबसे बड़े दहशतगर्द ओसामा-बिन-लादेन को मृत्यु के घाट उतार दिया, जिससे लगता था कि आतंकवाद की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी गई है परन्तु वह भस्मासुर ही सिद्ध हुआ उसके मरने के पश्चात् कई ऐसे लोगों के नाम सामने आए जो दहशतगर्दी की फैक्टरियां चलाने लगे और जुनूनी युवाओं को हिंसा और मौत का तांडव करने के लिए उनका ब्रेन वाश किया जाने लगा। तालिबान के इतने लोग अफ़गानिस्तान अथवा वज़ीरस्तान में नहीं मारे गए जितने कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान से आए युवक मारे गए। पाकिस्तान में सरकार कोई भी हो वहां सेना का वर्चस्व कायम रहता है और सेना की पूरी हमदर्दी तालिबान के साथ है। आतंकवाद का पक्षधर होना पाकिस्तानी हुकमरानों की नीति है अथवा मजबूरी? वज़ीर-ए-आज़म नवाज़ शऱीफ को अथवा इमरान खान, युवा वर्ग को दहशतगर्दी से बचा नहीं सकते क्योंकि वहां एक अनुमान के अनुसार तीस के करीब ऐसी दहशतगर्द तकसीमें यानि संगठन खड़े हो चुके हैं जिन्होंने पाकिस्तान के साथ कश्मीर की घाटी को भी बारूद के ढेर पर ला बिठाया है। शैतानी सोच यह नहीं समझ सकी कि आने वाली पीढ़ी की पीड़ा क्या है। इंजीनियर, डाक्टर, शिक्षक अथवा अधिकारी बनना था वे मौत के सौदागर बन रहे हैं। भारत फिक्रमंद है कि कश्मीर को युवा दहशतगर्दी की अंधेरी गुफा में क्यों धकेला जा रहा है। पड़ोसी देश पाकिस्तान किस तरह झूठे प्रचार तथा मजहबी खुराक के माध्यम से नए-नए आतंकियों की पौध तैयार कर रहा है। भारत के सेना प्रमुख विपन रावत ने कहा भी था कि पाकिस्तान अपनी इस हरकत से बाज आए और एल.ओ.सी. के इस तरफ गुमराह जनूनी युवकों को हथियार देकर न भेजे क्योंकि भारतीय सेना उनकी मौत के हवाले करने से गुरेज़ नहीं करेगी। समय कभी-कभी एक युवा को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है जब वह युवा चौराहे पर आकर यह भी नहीं सोच सकता कि उसे किधर जाना है। एक तरफ दहशतगर्दी का रास्ता है जो सीधा मौत तक जाता है और दूसरी तरफ कट्टरवाद के जलते अंगारे उसे दिखाई देते हैं जिसे वह चाह कर भी बुझा नहीं सकता, तीसरी तरफ उसका परिवार है जो उस युवा से उज्जवल भविष्य की उम्मीद लगाए बैठा है और चौथा रास्ता है उसके वे मित्र जो स्वयं भटक चुके हैं उसे भी उसी राह पर चलने के लिए प्रलोभन देते हैं। हुर्रियत और इस जैसे अन्य कई संगठन रहते तो भारत में हैं और सोचते हमेशा पाकिस्तान के लिए हैं। आज़ादी के झूठे नारे और विकास न हो सकने का बहाना बना कर कलम छोड़ बंदूक उठा लेने पर आमादा कर देते हैं। इनके अपने बच्चे तो विदेशों में पढ़ते हैं परन्तु कश्मीरी माओं के बेटों को जवानी में ही कब्र के हवाले कर देते हैं। जालन्धर में पकड़े गए चार युवक शायद यह भी नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं और किसके लिए कर रहे हैं? आज कई मुस्लिम उलेमा यह भी मानते हैं कि उनकी खामोशी ने युवाओं को कट्टरवाद का नशा पिला कर अराजकता और हिंसा की ओर धकेल दिया है। मुस्लिम पर्सनल लॉ के भी होंठ सिले हैं वह भी कश्मीर के मुस्लिम युवाओं को कत्लो-खून के रास्ते से हटने का दरस नहीं दे रहा। अमन और शांति की बातें तो बहुत होती हैं भाईचारा और धर्म-निरपेक्षता जैसे शब्द भी सुनने बोलने में अच्छे लगते हैं परन्तु कश्मीर के मुल्ला मौलवी जो जुम्मे की नमाज़ पर आग उगलते शब्दों से चिंगारी को शोला बनाने का काम करते हैं उन्हें भी नहीं रोका जाता। युवा वर्ग अपहरण करता है एक सुरक्षा कर्मी का और उसे मौत के हवाले कर देता है क्या इसे कश्मीरियत कहते हैं भाई-भाई को मार रहा है। यह साजिश कौन कर रहा है?, जिसके बूते दहशतगर्दी के युवा भयावह चेहरे देखने को मिल रहे हैं। कौन समझाएगा कि आग से आग नहीं बुझती और क्या कहें।