वह दिन दूर नहीं जब सीधे लिफ्ट से पहुंचेंगे अंतरिक्ष

स्वर्ग के लिये सीढ़ी नहीं अब सीधे लिफ्ट होगी। पिछले महीने यह तय हो गया कि यह संभव है। अंतरिक्ष के क्षेत्र में यह परिघटना उसका कायाकल्प करने वाली होगी। जन्नत तक सीढ़ी लगे न लगे पर यह तय हो गया है कि सातवें आसमान तक लिफ्ट लग कर रहेगी। इसी के साथ यह भी सुनिश्चित हो गया है कि अब समुद्री पत्तन या हवाई अड्डे की तरह अंतरिक्ष में जाने के लिए बाकायदा पोर्ट बनेगा। दरअसल आकाशीय आमदरफ्त तेज और आम हो जायेगी। यह कमर्शियल कामों के लिये बेहद मुफ ीद मौका होगा, ग्रहों को खोदने, उनके खनिजों को लूटने के लिये रास्ता खुलेगा। अंतरिक्ष में स्पेस मिशन के लिये शिपयार्ड, फ्यूएल स्टेशन बनेगा। स्पेस में मानवीय बसावट को बल मिलेगा। स्पेस टूरिज्म बढ़ेगा, अंतरिक्षीय लागडांट और संप्रभुता स्थापित करने के प्रयासों से यहां तनाव भी अधिक आयेगा। दुर्घटनाओं की आशंका बढ़ेगी पर अंतरिक्ष के नये रहस्यों की परतें भी खुलेंगी। पिछले महीने 27 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर स्टार्स- मी, यानी स्पेस टीथर्ड ऑटोनॉमस रोबोटिक सेटेलाइट- मिनी एलीवेटर का स्वागत किया गया। यह जापान निर्मित रोबोटिक एचटीवी-7 कार्गो स्पेसक्राफ्ट के जरिये पहुंचा। अंतरिक्षीय लिफ्ट का पहला प्रयोग था जो जापान के शिजुओका विश्वविद्यालय और वहीं की एक बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी ओबायाशी के सम्मिलित प्रयास से संभव हुआ। लिफ्ट की तरह केबल के जरिये एक चौकोर बॉक्स सरीखे सेटेलाइट को अंतरिक्ष में 39 मीटर तक खींचा गया, सैटेलाइट में लगे कैमरों ने हर गतिविधि पर बारीकी से नजर रखी। अब जब इन कैमरों की तस्वीरों का फौरी विश्लेषण किया जा चुका है तो यह साबित हो गया है कि अंतरिक्ष तक लिफ्ट का निर्माण करना कोई हवाई बात नहीं है और परिस्थितियां अनुकूल रहीं तो तीन दशक बीतते बीतते हम अंतरिक्ष जाने के लिये बस रॉकेट के भरोसे नहीं रहेंगे। अंतरिक्ष के क्षेत्र में यह स्थिति क्रांतिकारी, युगांतकारी बदलाव वाली होगी। अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत एक स्थापित नाम बन चुका है, इस बदलाव से उसे और इसरो को भी बहुत लाभ होगा। बात 1895 की है जब रूसी वैज्ञानिक कांस्टेंटाइन सिओलकोवोस्की ने आसमान से बातें करते हुये एफि ल टॉवर को देखकर स्पेस एलिवेटर के बारे में सोचा था। बाद में आर्थर सी. क्लार्क के उपन्यास ‘द फ्वारेन्स ऑफ  पैराडाइज’, ने आम जनता में अंतरिक्षीय लिफ्ट का सपना दिखाया। पर अंतरिक्ष लिफ्ट पर ठोस वैज्ञानिक काम तब सामने आया जब नासा ने दशक भर पहले 1999 में इस बावत अपनी एक शोध रपट प्रकाशित की। इस पर गहन अध्ययन और कुछ प्रयोगों के सामने आने के बहुत बाद 2015 में अमरीकी अंतरिक्ष कंपनी स्पेस-एक्स के संस्थापक एलोन मस्क ने कहा कि अंतरिक्ष तक लिफ्ट तैयार करने के बारे में तब तक नहीं सोचना चाहिए, जब तक कोई फु टब्रिज से लंबी नैनोट्यूब तैयार नहीं कर लेता। एलन मस्क की बात के जवाब में दो साल बाद जापान के वैज्ञानिकों ने घोषणा की कि वे अंतरिक्ष की यात्रा आसान बनाने के लिये एलीवेटर बनाने की तैयारी में एक दशक से लगे हुये थे और अब वे इस स्थिति में हैं कि उसका परीक्षण कर सकें। फि लहाल अंतरिक्ष तक ले जाने वाली स्पेंस एलीवेटर का शुरुआती ट्रायल हुये पखवाड़ा बीत चुका है। भले ही स्वर्ग तक सीढ़ी लगाने की अवधारणा हमने सबसे पहले विकसित की हो पर वहां तक लिफ्ट लगाने के मामले में जापान बाजी मार ले गया है। चीन का दावा है कि वह इसे 2045 में तैयार कर लेगा, जापान कहता है कि वह 2050 तक यह सेवा शुरू कर देगा। पचास साल से ज्यादा बीत गये पर अभी तक अंतरिक्ष में जाने का एक ही साधन है, वह है रॉकेट पर अगले पचास साल नहीं लगेंगे जब एक और तथा पहले से बेहतर विकल्प तैयार होगा। जापान द्वारा किया परीक्षण सफल रहा है अंतरिक्ष कार्यक्रम के क्षेत्र में क्रांतिकारी साबित होगा। अब तक किसी ने पृथ्वी से अंतरिक्ष में केबल आधारित लिफ्ट शुरू करने का नहीं सोचा था, लेकिन अब ऐसा होने जा रहा है। 96 हजार किमी तक ऊपर ले जाने वाली स्पेस एलीवेटर धरती पर किसी खास बने पोर्ट से ऊपर उठेगी और जैसे लिफ्ट का एक खास कंटेनर या डिब्बानुमा संरचना होती है उसी तरह की रचना की मदद से लोगों को या सामान अथवा उपग्रह को धरती के ऑर्बिट स्टेशन तक ले जाएगी। यह ऊंचाई 36000 किलोमीटर से ज्यादा की होगी। इस एलीवेटर और उसके मेन शाफ्ट के लिए कार्बन नैनोट्यूब और ग्रेफेन का इस्तेमाल करेंगे, जिसकी मज़बूती स्टील से 20 से 200 गुना ज्यादा होगी। इस शाफ्ट पर ही खिसकते हुए स्पेस एलीवेटर लोगों को 60 हजार मील यानि करीब 96 हजार किमी ऊंचाई तक ले जाएगी। अंतरिक्ष में ऐलीवेटर केबल को स्पोर्ट देने के लिए 2 बड़े उपग्रह मिलकर एक बेस स्टेशन बनायेंगे जो एलीवेटर के पूरे वजन को सहने में सक्षम होंगे। जापान के एलीवेटर प्रोजेक्ट में पृथ्वी से आईएसएस तक केबल स्थापित करने का लक्ष्य है। इसमें अंतरिक्ष वैज्ञानिकों और उनके लिए ज़रूरी सामग्री आईएसएस तक पहुंचाई जा सकेगी।  फि लहाल तो रॉकेट ही अंतरिक्ष यात्रियों को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन या आईएसएस तक लेकर जाते हैं। इसे बनाने में 10 अरब अमरीकी डॉलर का खर्चा कुछ वर्ष पहले किया गया था। नि:संदेह खर्च में और बढ़ौत्तरी होगी। यह कुछ ज्यादा तो है। पर किसी सक्षम अंतरिक्ष यान अथवा भारी पेलोड ले जाने वाले रॉकेट की लागत से कम। यह भी ध्यान में रखना होगा कि चीन एक नयी रेल लाइन पर 600 अरब खर्च कर चुका है, वह एक 24 मील की सड़क और पुल बनाने में 2 अरब लगा देता है अथवा अमरीका तकरीबन डेढ़ किलोमीटर का पुल बनाने में लगभग 7 अरब फूंकता है तो उसकी तुलना में यह रकम कुछ भी नहीं है।  अभी अंतरिक्ष में किसी भी मानवीय संरचना को भेजने में प्रतिपौंड 3,500 अमरीकी डॉलर का खर्च आता है। लिफ्ट के रहते यह घट कर 25 डॉलर प्रति पौंड पर पहुंच जायेगा। एक बार लिफ्ट तैयार होने के बाद आवश्यक ईंधन की कीमत पर ही हर बार 100 टन का भार भेजा जा सकेगा। रॉकेट के उपयोग की तुलना में बहुत कम ऊर्जा लागत लगेगी। ईंधन के दाम में रॉकेट की 82 डालर प्रति किलोमीटर की तुलना में ढाई गुना कीमत आयेगी। इस तरह बार-बार इस्तेमाल होने वाले रॉकेट की तुलना में भी यह सस्ता ही बैठेगा। यह भी सच है कि इसकी लागत को लेकर वैज्ञानिक सचेत हैं और वे ऐसे तरीके निकाल रहे हैं कि इसकी लागत काबू की जा सके। एक ख्याल यह भी है कि धरती की कक्षा के बाहर तक पहला चरण किसी रॉकेट के जरिये तय किया जाये और वहां से इस लिफ्ट की सेवा ली जाये। इससे अंतरिक्षीय लिफ्ट बनाने में भारी धन बचेगा। ऐसे में यह तकनीक अंतरिक्ष तक पहुंच की लागत को लगभग 10 डॉलर प्रति किलोग्राम तक और कम कर सकती है। अमूमन इसे कुछ देश मिलकर बनायेंगे और सम्मिलित तौर पर उपयोग करेंगे, खर्च बंट जाने से यह कोई बड़ा आर्थिक बोझ नहीं होगा। अंतरिक्ष में लिफ्ट के जरिये पहुंचने की समय सीमा 2045 तक बतायी जाती है पर सच तो यह है कि इस लक्ष्य को समय सीमा तक पाना बहुत कठिन है। जिस खास सामग्री से इस लिफ्ट का ढांचा और शाफ्ट तैयार होने वाला है उस कार्बन नैनोट्यूब का उत्पादन अभी भी बहुत आरंभिक दौर में और सीमित है, खास किस्म के ग्राफेन का भी वही हाल है। अंतरिक्षीय लिफ्ट एक विशाल संरचना है जिसमें बड़ी मात्रा में सामग्री की जरूरत होगी।