चिन्ताएं हर लेती है चिन्तपूर्णी माता

चिन्ता-मुक्त होने के लिए मनुष्य नाना प्रकार के यत्न करता है जैसे औषध, योग, पाठ-पूजन आदि। हिमाचल प्रदेश के ज़िला ऊना में स्थित है देवी चिन्तपूर्णी का मंदिर। पंजाब के होशियारपुर से चलकर भरवाईं नामक स्थान से मात्र तीन मील दूर चिन्तपूर्णी देवी का मंदिर है जो मां के भक्तों को चिन्ताओं से मुक्त कराता है। मंदिर तक पहुंचने के लिए नैना देवी से भी सीधा रास्ता है। बस मार्ग से पहुंचने में छ:-सात घण्टे लग जाते हैं। चिन्तपूर्णी माता का इतिहास ऐसी मान्यता है कि माईदास नाम का एक श्रद्धालु माता दुर्गा का परम भक्त था। उसके पिताजी अठूर नामी गांव रियासत पटियाला के निवासी थे जिनके तीन पुत्र थे- देवीदास, दुर्गादास तथा सबसे छोटा माईदास। चूंकि पिता देवी के परम भक्त थे इस कारण से पुत्र माईदास का भी देवीभक्त होना लाज़िमी था। घर के कामकाज व व्यापार में ध्यान न देने के कारण ज्येष्ठ भ्राताओं ने माईदास को अलग कर दिया लेकिन इससे माईदास की भक्ति प्रभावित नहीं हुई। वह रात-दिन देवी भक्ति में डूबा रहता था। एक बार माईदास ससुराल जा रहा था कि रास्ते में घने जंगल में वटवृक्ष के नीचे आराम करने के लिए बैठ गया। आराम की मुद्रा में माईदास को नींद आ गयी। जिस जगह माईदास को नींद आई, उस स्थान का प्राचीन नाम छपरोह था। वहां माईदास को एक स्वप्न आया। दिव्य तेजपुंज से युक्त एक कन्या माईदास को स्वप्न में दिखाई दी। उस कन्या ने माईदास को कहा कि तुम इस स्थान पर ही रहो और मेरी सेवा करो। इसी में तुम्हारी भलाई है। कुछ क्षणों के बाद माईदास की आंख खुल गई। वह ससुराल चल दिया लेकिन पूरे रास्ते में और ससुराल पहुंचने पर भी उसके मन में दिव्य कन्या वाली बात आती रही। वापसी पर उसी राह से वह ससुराल से आया तथा जहां स्वप्न आया था, उस वटवृक्ष के नीचे बैठ गया। वह भक्तिपूर्वक माता से यह प्रार्थना करने लगा कि स्वप्न में जो दर्शन दिये थे, वही साक्षात् में दर्शन दो। उसकी भक्ति से प्रभावित होकर सिंहवाहिनी दुर्गा ने माईदास को साक्षात् दर्शन दिये और कहा, मैं इस पेड़ के नीचे पिण्डी के रूप में विराजमान हूं। मैं छिन्नमस्तिका नाम से पुकारी जाती हूं। माईदास ने माता से निवेदन किया, मैं अकेला हूं। जंगल में जीव-जंतु हैं तथा भोजन पानी इत्यादि का भी प्रबंध नहीं है। ऐसे में यहां डर लगता है। कृपया मार्ग सुझायें। माता ने तब कहा कि इस स्थान से नीचे जाकर एक पत्थर उठाओ, जहां तुम्हें पानी मिलेगा। यहीं पर तुम मेरी पूजा आराधना करो। जिन भक्तों की मैं चिन्ताएं दूर करती जाऊंगी, वे सब बाकी की व्यवस्थाएं करते जायेंगे। मेरा मंदिर भी बना देंगे। जो चढ़ावा चढ़ेगा, उससे तुम्हारा गुजारा होता जाएगा। सूतक-पातक का विचार न करना। मेरी पूजा का अधिकार तुम्हारे वंश को ही रहेगा। ऐसा कहकर मां दुर्गा पिण्डी के रूप में लोप हो गईं। भक्त माईदास ने माता के बताये अनुसार पहाड़ी के नीचे उतरकर बड़ा पत्थर हटाया जिसके नीचे अपरिमित जल मिला। वहां माईदास ने अपनी झोंपड़ी बना ली तथा नित्य नियमपूर्वक माता की पिण्डी का पूजन आरम्भ कर दिया। कुछ समय के पश्चात् वहां भक्तों ने मंदिर बनवा दिया। जहां से पत्थर उखाड़ कर जल निकला था, वहां पर सुंदर तालाब बनवा दिया। इसी तालाब के पानी से माता का अभिषेक आज भी किया जाता है। यह तालाब पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के तत्कालीन दीवान ने बनवाया था जिनके नाम का पत्थर आज भी तालाब के निकट लगा हुआ है। पश्चात् उत्तरोतर विकास अन्य भक्तों द्वारा किया जाता रहा। वर्तमान में तालाब के ठीक ऊपर संत माईदास जी की समाधि बनी हुई है। समाधि के समीप एक बावड़ी भी है। माता के निर्देशानुसार भक्त माईदास ने जल निकालने के लिए जो पत्थर उखाड़ा था, वह ऐतिहासिक प्राचीन पत्थर यात्रियों के दर्शनार्थ माता के दरबार में आज भी रखा हुआ है जिसे मंदिर में प्रवेश करते हुए, मुख्य दरवाज़े के समीप दाहिनी ओर देखा जा सकता है।  माता चिन्तपूर्णी का मंदिर उसी ऐतिहासिक व प्राचीन वटवृक्ष के साये में स्थित है जहां माईदास ने अपने ससुराल जाते हुए और वापिस लौटने पर विश्राम किया था और स्वप्न के उपरांत भगवती के साक्षात् दर्शन किये थे। आज इस वट-वृक्ष की शाखाओं पर भक्तगण मौली बांधते हैं। इच्छा पूरी होने पर वापस माता के दरबार में उपस्थित होकर उस मौली को खोल देते हैं। इस शक्तिपीठ की  गणना प्रमुख शक्तिपीठों में होती है। 

-पवन कुमार कल्ला